Wednesday, September 18, 2013

लल्ला पुराण ११०

बिलकुल सही कह रहे हैं यदि हम आसान राहों पर चलकर कठिन मंजिल पा लीं तो इससे अच्छा कुछ नहीं, रास्ते की कठिनाई पार करने में खर्च की गयी ऊर्जा का अन्यत्र उपयोग कर सकते हैं. लेकिन एक बे-उसूल और वैचारिक वर्चस्व की पराधीनता से जूझते समाज में उसूलों की ज़िंदगी की  राह  खुद-ब-खुद कठिन हो जाती है. इलाहाबाद में मैं राजनैतिक गतिविदियों से जुदा जिसकी समझ से नौकरशाही में जाने की बात कभी विचारार्थ ही नहीं था.पिताजी से पैसा लेने का मतलब था उनकी राय भी मानना और आईएएस/पीसीयस  की कोशिस, तो १८ साल के उम्र से मैंने पैसा ले
ना बंद कर दिया. वैसे भी उन दिनों खाते-पीते किसान परिवारों में भी नकदी का अभाव ही रहता था. अब कौन नहीं चाहेगा उन्मुक्त छात्र जीवन? लेकिन विचारों की आज़ादी की कीमत पर नहीं. कौन चाहेगा २०-२१ की उम्र का लगभग एक साल जेल में बिताना, लेकिन सरकार की मर्जी मानकर २० सूत्रीय कार्यक्रम का स्वागत करना पड़ता. कोइ दिखावे या शक्ति प्रदर्शन के लिए कठिन रास्तों का चुनाव नहीं करता, जिस तरह की ज़िंदगी आप चुनते हैं रस्ते  की सुगमता या जटिलता उससे तय होती है. अब १९८३ में जेयनयु में एक आन्दोलन के सिलसिले में निष्कासन से बचने के लिए २ लाइन का माफीनामा लिखना था, वह नहीं कर सकते थे, इसलिए रास्ते कठिन हो गए, सीनियर रिसर्च फेलोशिप के साथ छात्रजीवन ३ साल के लिए निलंबित  हो गया को मेरी वाम्छ्ना नहीं थे बल्कि जिस तरह की ज़िंदगी का चुना किया उसकी तार्किक परिणति. झुकाकर सर जो हो जाता सर मैं नौकरी १५ साल पहले पक्की हो जाती. कौन स्वेच्छा से बेरोजगारी में  परिवार चलाना चाहेगा? लेकिन जिस तरह की ज़िंदगी चुना कलम की मजदूरी से घर चलाना उसकी तार्किक परिणति थी. मित्र शान या ढिठाई दिखाने के लिए कठिन रास्ता कोइ नहीं चुनता. शांतिपूर्ण ढंग से क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएँ पूंजीपति गांधी की सलाह मानकर तरसती बन जाए और श्रम के साधनों पर श्रमिक का अधिकार हो जाए तो सर पर कफ़न बांधकर मजदूर क्यों क्रान्ति का रास्ता अपनाएगा? मुझे तो सरल रास्ते नहीं मिले नास्त्क हूँ, गाड ही नहीं है तो गाडफादर साला कहाँ से आयेगा और आप जानते ही हैं शिक्षा जगत में गाद्फादारों की मठाधीसी कैसी है, नौकरियों को अपने बाप की जागीर समझते हैं. तो आ बैल मुझे मार की शैली में मुश्किल रास्ते नहीं चुनता, सिन्द्धान्तों की राह मुश्किल होती ही है.

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