दुनिया में किसान बहुत कम देशों में बचे हैं, पश्चिमी यूरोप में पूंजीवाद का विकास ही किसानों और कारीगरों की क्रमशः खेती और शिल्प उद्योग से बेदखली तथा उनके सर्वहाराकरण से शुरू हुआ। अमेरिका और आस्ट्रेलिया में मूलनिवासियों के जनसंहार और उनकी जमानों पर कृषिउद्योग की स्थापना के साथ यूरोपीय सभ्यता स्थापित हुई। इन देशों में कृषि किसानी तथा व्यापार और उद्योग है। भूमंडलीकरण का एक प्रमुख एजेंडा किसानी का विनाश है। तीसरी दुनिया के देशों में खेती पर सब्सिडी समाप्त कर उनकी बाजार विकसित देशों की सब्सिडाइज्ड कृषि उद्योग के लिए खोलना है। 1995 में विश्वबैंक ने शिक्षा और खेती के कॉरपोरेटीकरण के मकसद से उन्हें व्यपारिक सेवा एवं सामग्री के रूप में गैट्स समझौते में शामिल किया। कांग्रेस सरकारें उनपर अंगूठा लगाने में हिल्ला-हवाला करती रहीं। पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार ने 2015 में नैरोबी सम्मेलन में उस पर अंगूठा लगा दिया। नई शिक्षा नीति के तहत शिक्षाम के कॉरपोरेटीकरण तथा कृषि कानूनों के तहत खेती का कॉरपोरेटीकरण विश्वबैंक के साम्राज्यवादी मंसूबों की दिशा में उसकी वफादार सरकार द्वारा उठाए गए कदम हैं। न छात्र आंदोलनों को कुचलना इतना आसान है न किसान आंदोलनों को। इनकी सफलता नया इतिहास रचेगी तथा असफलता दीर्घकालिक ऐतिहासिक असंतोष। इन नीतियों का कुप्रभाव भक्तिभाव की मिथ्या चेतना से ग्रस्त सरकारी अंधभक्तों पर भी पड़ेगा क्यंकि उनके बच्चों को भी शिक्षा चाहिए और उन्हें भी रोटी। न तो भजन से ज्ञान की भूख शांत होगी न पंजीरी के प्रसाद से पेट की। मैं तो किसान नहीं हूं लेकिन किसान का बेटा हूं और अब भी खेती से जुड़ा हूं तथा किसान की पीड़ा समझता हूं। जिस तरह ईस्ट इंडिया की दलाली करके मुल्क को उदारवादी पूंजी की औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की गुलामी में जकड़ने में सहायक हिंदुस्तानियों की अगली पीढ़ियां उनपर शर्म महसूस करती है, उसी तरह किसान आंदोलन (तथा छात्र आंदोलन) के प्रत्यक्ष-परोक्ष विरोध कर नवउदारवादी पूंजी के भूमंडलीय साम्राज्यवाद की गुलामी में सहायक सरकारी अंधभक्तों की पीढ़ियां भी उन पर शर्म महसूस करेंगी। औपनिवेशिक और भूमंडलीय साम्राज्यवाद में मुख्य फर्क यह है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीरजाफर बन गए हैं। जय किसान, इंकिलाब जिंदाबाद।
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