खुद के बच्चों को ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका पढ़ाने वाले जेएनयू में फीस बढ़ोत्तरी की हिमायत कर रहे हैं, कम खर्चे पर पढ़ाई की सुविधा और मेरिट-कम-मीन्स वजीफे के चलते ही आरक्षण वाले ही नहीं, देश के कोने कोने से, मेरे जैसे टाट-पट्टी से निकले साधनविहीन सवर्ण लड़के-लड़कियां भी उच्च शिक्षा ग्रहण कर सके। जेएनयू में लड़कों से अधिक लड़कियां हैं क्योंकि एडमिसन में जेंडर वंचना के भी अंक मिलते थे जिसे इस संघी वीसी ने खत्म कर दिया। यह आरक्षण खैरात नहीं सदियों की वंचना की आँशिक भरपाई है। मेरी बहन गांव की पहली और शायद अभी तक इकलौती लड़की है जो हॉस्टल (वलस्थली) में रहकर नवीं से एमए बीएड की पढ़ाई की। उसके पढ़ने के लिए मुझे पूरे खानदान से भीषण युद्ध करना पड़ा था, मुद्दा ये नहीं था कि मैं खुद छात्र था उसकी पढ़ाई का खर्च कहां से आएगा, मुद्दा लड़की होकर भी पढ़ने के अधिकार का था। लोग फिर भी नहीं मान रहे थे, मैं जबरदस्ती ले जाकर उसका एडमिसन कराया। जब बीए-एमए कर रही थी तब जरूर मेरे पिताजी सबसे कहने लगे कि उनकी बेटी वनस्थली में पढ़ रही है जबकि आठवीं के बाद उसकी शादी तय कर चुके थे। आरक्षण तो महज 49% है, 51% तो फिर भी 15% सवर्णों के लिए खुला/आरक्षित है। हम सवर्ण लोग अपने बच्चों में भी अपनी असुरक्षा डाल देते हैं कि पढ़-लिखकर क्या करोगे आरक्षण के कारण नौकरी तो मिलेगी नहीं और जहां दलित बच्चे पढ़ने-लिखने के मौके का फायदा उठाते हैं हमारे बच्चे आरक्षण का भजन गाते लंपटता करते हैं।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment