स्वतंत्रता को समानता के परिप्रक्ष्य में परिभाषित करने वाले, 18वीं सदी के दार्शनिक रूसो की कालजयी कृति 'सामाजिक संविदा (सोसल कॉन्ट्रऔक्ट)' का पहला वाक्य है, 'मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है किंतु बेड़ियों में जकड़ जाता है', इसे हम भारतीय संदर्भ में अनूदित करें तो कहेंगे, 'सब पैदा तो समान इंसान होते हैं लेकिन हिंदू-मुसलमान; ब्राह्मण-दलित;........ में बंट जाते हैं। आजाद पैदा मनुष्य के पैरों में बेडियां समाज डालता है जिस पर निहित स्वार्थ फूल-माला चढ़ाते हैं। उनपर फूल माला चढ़ाने की नहीं, उन्हें तोड़ने की जरूरत होती है। चूंकि बेड़ियां समाज डालता है, इसीलिए उन्हें तोड़ने की जिम्मेदारी भी समाज की है। गुलामी यदि बलपूर्वक लादी गयी हो तो बलपूर्वक उसे उतार फेंकना न केवल लाजमी है, बल्कि वांछनीय भी। 'जो खुद को मालिक समझते हैं, वे गुलामों से भी ज्यादा गुलाम हैं'।
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