Arvind Kumar Mishra यह डोजियर 3 साल पहले का है जिसे खारिज करने के लिए बहुत कुछ लिखा जा चुका है, मैंने भी उस समय के लेखों में लिखा है, जेएनयू के खिलाफ कुछ भी हो तो डालो, 3 साल पहले अगर लिख चुके हैं तो उसे क्यों रिपीट करें, उसी को पढ़ने की सलाह देंगे। उन लेखों का लिंक शेयर किया है। जो मुझे फर्जी लगेगा उसे फर्जी बताऊंगा। इस कुंठिता ने जेएनयू की पहाड़ियों से प्रयोग हुए कंडोम, सिगरेट के बट और खाली बोतलें गिनकर ठीक ठीक संख्या बताया है। कौन किसके साथ सेक्स करता-करती है, कंडोम के साथ करता-करती है यह उन दोनों का निजी मामला है, उसमें कंडोम गिनने वाले का क्या है? मैंने अपबने लेखों में ये सवाल उठाए हैं, जिन्हें दूलरों के सेक्स करने से कुंठा हो वे फिर कंडोम खोजें। मैं दही बेचता नहीं, तथ्य-तर्कों के आधार पर लिखता हूं और उसे सही ही मानूंगा। यौनकुंठितों को जेएनयू की बजाय मनोचिकित्सक के पास जाना जाहिए। इस ग्रुप में कमेंट में और पोस्ट के रूप में धैर्य से पढ़ने के आग्रह के साथ हिंदी-अंग्रेजी के लेख शेयर किए हैं, जिस भाषा में सुविधाजनक लगे पढ़ लें। सादर।
Paritosh Singh माफ कीजिएगा आपका सवाल अब देखा आपने पढ़ाई के दौरान यूएस में जॉब की क्योंकि रुपया घर से मंगाकर डॉलर में खर्च शायद संभव न हो, मैं बीएससी दूसरे साल (1973) से ही घर से पैसे लेना बंद कर दिया तथा सिगरेट की आदत डालकर खर्च बढ़ा लिया। क्या-क्या किया सारे ब्योरे में बहुत समय लगेगा, इतना ही बता देता हूं की इलाहाबाद के बाकी 3 साल -- बीएससी फाइनल (2 साल की बीएससी होती थी) तथा 2 साल एमएससी -- अपने बल पर किया। एक अखबार (Northern India Patrika) मे कैंपस समाचार के स्ट्रिंजर (रिपोर्ट आधारित भुगतान) का काम किया, एक हिंदी अखबार 'देशदूत' के पार्ट टाइम प्रूफरीडिंग करता था। गणित का ट्यूसन पढ़ाता था। आपातकाल के बाद के कुछ दिन (3 महीने) नैनी केंद्रीय कारागर का आनंद लिया। डीआईआर से छूटा तो मीसा में वारंट था भूमिगत रहते हुए जीविकोपार्जन मुश्किल था, 1976 अगस्त में दिल्ली आ गया। इवि के एक सीनियर के साथ जेएनयू में रहने का जुगाड़ हो गया, जीविका के लिए गणित का ट्यूसन। 1977 में जेएनयू में प्रवेश लिया 1978 में फ्रांसीसी भाषा में 5 साल के एमए में छोटे भाई का प्रवेश करा दिया उसका भी खर्च मुझे ही वहन करना था (आजकल वह उद्योगपति है)। एक साल बाद घर वालों से लड़-झगड़ कर बहन का एडमिसन राजस्थान में वनस्थली विद्यापीठ में करा दिया, 3 लोगों के खर्च के लिए रिसर्च फेलोशिप के बावजूद डीपीएस में पढ़ाने भी लगा। बाद की कहानी फिर कभी। कहने का मतलब पढ़ाई करते हुए अपने साथ भाई-बहन की पढ़ाई के खर्चे का भी जुगाड़ किया, लेकिन न करना पड़ता तो वह समय पढ़ाई और ऐक्टिविज्म में खर्चता। पीयूष मिश्र झोपड़ी का शौक पाखंड क्यों? दिल्ली में झोपड़ी बनाने का बिरला अवसर ऐसे ही सौभाग्य से मिलता है। इस ग्रुप के कई लोग मेरी झोपड़ी के सुख का आनंद लिए हैं, पढ़ना-लिखना, मिलना-जुलना तो अक्सर उसके भी बाहर आम के नीचे कूलर की हवा में तथा जाड़े में अलाव की आंच में ही होता था, यह मेरे लिए लक्जरी थी, मजबूरी, गरीबी या पाखंड नहीं, रिटायर होने का सबसे अधिक कष्ट वह झोपड़ी और बाग-बगीचा छूटने का है। झोपड़ी और उसमें लाइब्रेरी की अनेक तस्वीरें शेयर किया हूं। मैं बहुत साफ आदमी हूं कोई पाखंडी कहे तो वह गाली से बढ़कर है।
पीयूष मिश्र मैंने कभी नहीं कहा कि गरीबी में झोपड़ी में रहता हूं, लेकिन गाली-गलौज की आदत और प्रशिक्षण हो तो उसे सब छद्म ही दिखेगा। जो सुनाता हूं वही सुनिए न अच्छा लगे तो न सुनिए। नाम देखने से दिक्कत हो तो आपके पास अदृश्य (ब्लॉक) करने का विकल्प है।
Raj K Mishra जी बिल्कुल जेएनयू से मुफ्त में पढ़ने का मौका मिल गया और संयोग से दिवि में प्रोफेसरी मिल गयी और विश्वविद्यालय की लंबी-चौड़ी कोठी में बागवानी करने और झोपड़ी बनाने की लक्जरी। नौकरी छूटने के साथ झोपड़ी की लाइब्रेरी भी छूट गयी। घर की मरम्मत पर पीएफ से कर्ज लेकर खर्चकिए गए धन में 50 हजार से अधिक झोपड़ी मेंं लग गए थे। एसी की बजाय बांस की झोपड़ी में रहना भी आलोचना का विषय बन गया।
Paritosh Singh माफ कीजिएगा आपका सवाल अब देखा आपने पढ़ाई के दौरान यूएस में जॉब की क्योंकि रुपया घर से मंगाकर डॉलर में खर्च शायद संभव न हो, मैं बीएससी दूसरे साल (1973) से ही घर से पैसे लेना बंद कर दिया तथा सिगरेट की आदत डालकर खर्च बढ़ा लिया। क्या-क्या किया सारे ब्योरे में बहुत समय लगेगा, इतना ही बता देता हूं की इलाहाबाद के बाकी 3 साल -- बीएससी फाइनल (2 साल की बीएससी होती थी) तथा 2 साल एमएससी -- अपने बल पर किया। एक अखबार (Northern India Patrika) मे कैंपस समाचार के स्ट्रिंजर (रिपोर्ट आधारित भुगतान) का काम किया, एक हिंदी अखबार 'देशदूत' के पार्ट टाइम प्रूफरीडिंग करता था। गणित का ट्यूसन पढ़ाता था। आपातकाल के बाद के कुछ दिन (3 महीने) नैनी केंद्रीय कारागर का आनंद लिया। डीआईआर से छूटा तो मीसा में वारंट था भूमिगत रहते हुए जीविकोपार्जन मुश्किल था, 1976 अगस्त में दिल्ली आ गया। इवि के एक सीनियर के साथ जेएनयू में रहने का जुगाड़ हो गया, जीविका के लिए गणित का ट्यूसन। 1977 में जेएनयू में प्रवेश लिया 1978 में फ्रांसीसी भाषा में 5 साल के एमए में छोटे भाई का प्रवेश करा दिया उसका भी खर्च मुझे ही वहन करना था (आजकल वह उद्योगपति है)। एक साल बाद घर वालों से लड़-झगड़ कर बहन का एडमिसन राजस्थान में वनस्थली विद्यापीठ में करा दिया, 3 लोगों के खर्च के लिए रिसर्च फेलोशिप के बावजूद डीपीएस में पढ़ाने भी लगा। बाद की कहानी फिर कभी। कहने का मतलब पढ़ाई करते हुए अपने साथ भाई-बहन की पढ़ाई के खर्चे का भी जुगाड़ किया, लेकिन न करना पड़ता तो वह समय पढ़ाई और ऐक्टिविज्म में खर्चता। पीयूष मिश्र झोपड़ी का शौक पाखंड क्यों? दिल्ली में झोपड़ी बनाने का बिरला अवसर ऐसे ही सौभाग्य से मिलता है। इस ग्रुप के कई लोग मेरी झोपड़ी के सुख का आनंद लिए हैं, पढ़ना-लिखना, मिलना-जुलना तो अक्सर उसके भी बाहर आम के नीचे कूलर की हवा में तथा जाड़े में अलाव की आंच में ही होता था, यह मेरे लिए लक्जरी थी, मजबूरी, गरीबी या पाखंड नहीं, रिटायर होने का सबसे अधिक कष्ट वह झोपड़ी और बाग-बगीचा छूटने का है। झोपड़ी और उसमें लाइब्रेरी की अनेक तस्वीरें शेयर किया हूं। मैं बहुत साफ आदमी हूं कोई पाखंडी कहे तो वह गाली से बढ़कर है।
पीयूष मिश्र मैंने कभी नहीं कहा कि गरीबी में झोपड़ी में रहता हूं, लेकिन गाली-गलौज की आदत और प्रशिक्षण हो तो उसे सब छद्म ही दिखेगा। जो सुनाता हूं वही सुनिए न अच्छा लगे तो न सुनिए। नाम देखने से दिक्कत हो तो आपके पास अदृश्य (ब्लॉक) करने का विकल्प है।
Raj K Mishra जी बिल्कुल जेएनयू से मुफ्त में पढ़ने का मौका मिल गया और संयोग से दिवि में प्रोफेसरी मिल गयी और विश्वविद्यालय की लंबी-चौड़ी कोठी में बागवानी करने और झोपड़ी बनाने की लक्जरी। नौकरी छूटने के साथ झोपड़ी की लाइब्रेरी भी छूट गयी। घर की मरम्मत पर पीएफ से कर्ज लेकर खर्चकिए गए धन में 50 हजार से अधिक झोपड़ी मेंं लग गए थे। एसी की बजाय बांस की झोपड़ी में रहना भी आलोचना का विषय बन गया।
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