Friday, November 22, 2019

बेतरतीब 54 (जेएनयू)

मैं इलाहाबाद से अगस्त 1976 में रोजी-रोटी की जुगाड के साथ भूमिगत रहने की संभावनाएं तलाशता दिल्ली आया और इलाहाबाद के सीनियर तथा जेएनयूएसयू के तत्कालीन अध्यक्ष, डीपी त्रिपाठी (वियोगी जी) से मुलाकात की उम्मीद में जेएनयू पहुंच गया। त्रिपाठी जी तो जेल में थे, उनके स्कूल के सहपाठी, मित्र, हिंदी के शोधछात्र घनश्याम मिश्र (अब दिवंगत) से मुलाकात हो गयी और उनके माध्यम से इलााबाद विवि के एक अपरिचित सीनियर रमाशंकर सिंह से। रमाशंकर जी के कमरे (323 गंगा हॉस्टल, सीताराम येचुूरी 325 में रहते थे) में रहने की जुगाड़ हो गयी। रमाशंकर सिंह कुछ दिनों के लिए गांव (सुल्तानपुर) गये और लौटे 6-7 महीने में तो बिना दाखिला लिए ही मैं सिंगल सीटेड कमरे के साथ जेएनयूआइट हो गया। उस समय 5 हॉस्टल में ही जेएनयू समाया था छठा, झेलम निर्माणाधीन था। 1977 में एक विंग तैयार हो गया और लड़कियों के डेढ़ हॉस्टल हो गए, एक गोदावरी और आधा झेलम। दूसरा विंग बना तो लड़कों को एलॉट हुआ, इस तरह वह पहला साझा हॉस्टल बना। आपातकाल के विरुद्ध प्रत्यक्ष कार्यक्रम तो नहीं होते थे लेकिन कई देशी-विदेशी फिल्में दिखाई जाती थीं जिनमें अधिनायकवाद का विरोध होता था। तमाम विषयों पर पोस्ट डिनर डिस्कसन आयोजित होते थे जिनमें प्रमुख भूमिका दिलीप उपाध्याय (दिवंगत) की होती थी। आपातकाल के बाद चुनाव के लिए जनमतसंग्रह हुआ औरअप्रैल 1977 के चुनाव में सीताराम येचुरी अध्यक्ष बने। उनकी उम्मीदवारी और चुनाव की कई कहानियां हैं जो फिर कभी। 1977 में मैंने जोएनयू में दाखिला लिया। इलाहाबाद में हम लड़के तो आधी रात को भी हॉस्टल से कटरा तथा प्रयाग स्टेसन चायबाजी करने जाते थे, लेकिन लड़कियां दिन डूबने के साथ अपने कमरों में बंद हो जाती थीं, लड़का-लड़की का साथ चलना या साथ चाय पीना गप्पबाजी का विषय बन जाता था। जेएनयू पहुंच कर जो कई सुखद आश्चर्य हुए उनमें देर रात ढाबों पर लड़के-लड़कियों का साथ-साथ अड्डेबाजी तथा कुछ लड़कियों का 'खुले-आम' सिगरेट पीना था तथा उससे भी अधिक लड़कियों का देर रात सड़कों पर अकेले बेखौफ घूमना था। 1977 में झेलम लॉन्स की पानी की टंकी पर, हिटलर पर शफदरहाशमी के निर्देशन में जननाट्य द्वारा 'राजा का बाजा' पहला नाटक अभिनीत हुआ था। आपातकाल में जेल में लगता था बाहर तो ज्वालामुखी धधक रहा होगा लेकिन बाहर सब शांत था, इस मामले में में जेएनयू भी भिन्न नहीं था। जवालामुखी अंदर ही अंदर धधक रहा था जो 1977 के चुनाव में विस्फोटक हो गया। जेएऩयू से छोटी-छोटी टीमें बनाकर हम लोग आपातकाल के खास-खास दोषियों के विरुद्ध चुनाव प्रचार करने गए, मैं कॉमरेड सुनीत चोपड़ा के नेतृत्व में बंसीलाल के खिलाफ भिवानी वाली टीम में था, उस टीम के रमेश गुप्ता 1978-79 में हरयाणा में पीसीएस हो गए। प्याज-रोटी खाकर हम गुजारा करते थे। भिवानी से आकर मैं अपने गांव गया जहां चुनाव अगले चरण में था तथा वहां जाकर (आजमगढ़) राम नरेश यादव (बाद में उप्र के मुख्यमंत्री) का 2-3 दिन प्रचार किया। Arun Dev जी नास्टेल्जियाकर यह कमेंट पोस्ट के सवाल से थोड़ा अलग हो गया, अंत में इतना ही कहूंगा कि आपातकाल के दौरान जेएनयू भी अन्य कैंपसों की ही तरह लगभग शांत ही था।

No comments:

Post a Comment