मैंने बर्लिन वाल के बाद सोवियत संघ के पतन के आसार पर 1989-90 में हिंदी में एक लेख लिखा था, आपराधिक हद तक अव्यवस्थित जीवन शैली के चलते गायब हो गया। फिर से लिखने के लिए काफी शोध करना पड़ेगा।मैं संशोधनवाद की शुरुआत स्टालिन से, खासकर 1928 (कॉमिंटर्न के छठे कांग्रेस)) से मानता हूं, जब रॉय को कॉमिंटर्न से निकालकर औपनिवेशिक सवाल पर रॉय की लाइन अपनाई गयी। लेनिन ने अप्रैल थेसिस के 2 मुखर विरोधियों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी थी। पार्टी ने सामाजवादी शिक्षा की जिम्मेदारी को पार्टीलाइन लागू करने तक सीमित कर दिया। आपके साथ बैठकर लंबी बात-चीत करूंगा। स्टालिन ने नीचे के नेतृत्व में केवल अनुयायियों को प्रोमोट किया। असहमति की गुंजाइश नहीं थी। सामाजवाद और जनतंत्र को परस्पर पूरक की बजाय परस्पर विरोधी बना दिया गया। जनतांत्रिक केंद्रीयता सीपीएसयू के ढर्रे पर दुनिया की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों में अधिनायकवादी केंद्रीयता बन गयी। जरा सोचिए, झारखंडेय राय या सरयू पांडेय का संसदीय संख्याबल यदि पार्टी लाइन के भक्तिभाव से हांके जाने की बजाय समाजवादी शिक्षा से जनबल बन सका होता तो वह संख्याबल भाजपा के संख्याबल में कैसे तब्दील हो जाता? बिहार के लेनिनग्राद में गिरिराज जैसा प्रतिक्रियावादी इतने बहुमत से कैसे जीतता जबकि कन्हैया के साथ पूरे देश का वाम खड़ा था? मैं अभी थका हूं, बस कुछ सवाल उठा रहा हूं, जिनपर गंभीर विमर्श की जरूरत है।
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