Thursday, November 28, 2019

लल्ला पुराण 298 (गोडसे)

एक विवि के एक शिक्षक गोडसे के देशभक्त कहने के प्रज्ञा ठाकुर की आलोचना से छुब्ध हो टुकड़े-टुकड़े भजन गाने लगे, उस पर:

भारत तेरे टुकड़े की अफवाह का का भजन कब तक गाते रहेंगे? कितनी बार प्रमाणित हो चुका कि टुकड़े नारे भक्त घुसपैठियों ने लगाए थे। पुलिस 3 साल में चार्जशीट फाइल नहीं करसकी, अदालतों ने कह दिया छात्रों ने नारे नहीं लगाए थे, लेकिन एक ही अफवाह का हर बात पर भजन गाते हुए एक बार भी ध्यान नहीं आता कि शिक्षक की कुछ नैतिकताएं होती हैं। अगर गोडसे जैसा कायर हत्यारा आपके लिए देशभक्त है तो आपको अपनी सोच पर सोचना चाहिए। सिखों के जनसंहार का विरोध हम जेएनयू वालों ने किया था तथा नानाजी देशमुख जैसे संघियों ने उसका समर्थन किया था। सिखों के कत्ले आम को हमने बहस का मुद्दा बनाया था, संघी कैडर तो कत्लेआम में शामिल था। मैंने कई लेख लिखे तथा टाडा के खिलाफ हम वैसे ही लड़े थे जैसे पोटा के खिलाफ। गोडसे की भक्ति का भजन गाने के अलावा कभी कभी दिमाग का भी इस्तेमाल कर लिया करें, कभी कभी सोच लिया करें कि आप शिक्षक हैं। गोडसे की देशभक्ति के अपने विचारों पर एक बार पुनर्विचार कीजिए।

अजमेर ब्लास्ट


खबर है कि अजमेर ब्लास्ट मामले में R.S.S के भगवा आतंकी और संघ प्रचारक भावेश पटेल और एक अन्य को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी है साथ ही न्यायलय ने इन लोगों पर 10 हज़ार का जुर्माना भी किया है।
चलो ठीक है पहली बार संघ से सीधे जुड़े हुए कार्यकर्त्ता और पदाधिकारी को आतंकवाद के मामले में सजा हुई है। अब ये साबित हो गया है कि देश में हुए कई बड़े धमाकों , मकका मस्जिद , मालेगाव , समझौता एक्सप्रेस , अजमेर दरगाह ब्लास्ट समेत कई ब्लास्ट में डायरेक्ट , इंडिरेक्ट संघ परिवार के कार्यकर्त्ता और पदाधिकारी लिप्त पाये गए हैं।
पहली बार हिन्दू आतंकवाद की प्लानिंग और साज़िश का पर्दाफाश शहीद पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की जांच के बाद आया था। उन्ही की जाँच के नतीजे में साध्वी प्रज्ञा , असीमानंद , कर्नल पुरोहित , देवेंद्र पांडेय आदि का नाम सामने आया था। करकरे साहब मुंबई A.T.S के मुखिया थे और इस मामले की गहराई से जाँच कर रहे थे। कानपूर से गिरफ्तार हुए स्वामी दयानंद पांडेय और पुरोहित के लैपटॉप से काफी कुछ जानकारी हासिल हुई थी और साज़िशों का पर्दाफाश हुआ था। अभी जांच अधूरी थी और जाँच पूरी होने पर अभिनव भारत , सनातन संस्था के साथ , साथ संघ परिवार की गहरी साज़िशों का पर्दाफाश होने वाला था। कई बडी मछलियां हत्थे चढ़ने वाली थी। खुद संघ के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार का नाम आ रहा था अजमेर ब्लास्ट में।
इसी राज़ को फ़ाश होने से रोकने के लिए 26 / 11 का सहारा लिया गया और उक्त जाँच में शामिल अधिकारियौ की हत्या करा दी गयी। और करकरे , काम्टे वगैरह को रास्ते से हटा दिया गया।
भगवा आतंकवाद की जाँच कर रहे करकरे और उनकी टीम की हत्या की साज़िश पर who killed karkare नाम से मुंबई पुलिस के सेवानिरवृत अधिकारी S.M.Mushrif ने विस्तार से अपनी बात रखी है। अभी केंद्र व प्रदेश में भगवा सरकार है और सबकुछ मैनेज कर लिया गया है। मालेगाव ब्लास्ट मामले को देख रही A.T.S की वकील रोहिणी सालियान को हटा दिया गया और C.B.I ने भी लीपापोती कर दी जिसकी वजह से करनल पुरोहित , असीमानंद , साध्वी प्रज्ञा , देवेंद्र उपद्ध्याय वग़ैरह को ज़मानत पर रिहा कर दिया गया।लेकिन
अजमेर ब्लास्ट के मामले में R.S.S के भावेश पटेल आदि को सजा सुनाए जाने से हिन्दू आतंकवाद का चेहरा उजागर हुआ है और संघ की देश विरोधी ,मुस्लिम विरोधी साज़िश का पर्दाफाश हुआ है। ज्ञात हो की इन्ही मामलो में सैंकड़ों मुस्लिम युवा आतंकवाद के आरोप में जेल भेजे गए , प्रताड़ित किये गए और 10 , 12 साल बाद निर्दोष पाये गए तो रिहा किये गए। यानि किया किसी ने और भुगता किसी ने। ये इंसाफ का तकाज़ा नहीं हो सकता है। अभी भी बहुत से लड़के इंसाफ का इंतज़ार कर रहे हैं ,उन्हें जल्द से जल्द रिहा किया जाना चाहिए और वास्तविक अपराधियों और साजिशकर्ताओं को सजा दिया जाना चाहिए। इस मामले में इंद्रेश कुमार का नाम आने के बावजूद उनसे पूछताछ नहीं हुई और उनको बचाया गया जबकि उनसे भी पूछताछ होती तो कुछ और राज़ का पर्दाफाश होता और बेकसूर रिहा होते।

29.11.2017

Monday, November 25, 2019

बेतरतीब 55 (मिश्र कापुछल्ला)

यह सवाल मुझसे पिछले 4 दशकों से पूछा जा रहा है. मैं इस पर बहुत कुछ कह-लिख चुका हूं. जब भी जात-पात या ब्राह्मणवाद की विसंगतियों की बात करता हूं लोग बात को खंडित करने की बजाय यही सवाल दाग देते हैं मिश्र क्यों लिखते हैं? क्यों भाई, मिश्र होने के बावजूद ब्राह्मणवाद की आलोचना क्यों नहीं कर सकता? मैं नास्तिक हूं, ब्राह्मण से इंसान बनने का मतलब शूद्र बनना नहीं है. बन भी नहीं सकता. शूद्र होने की पीड़ा की मेरी अनुभवजन्य अनुभूति नहीं है, पर्यवेक्षणजन्य अनुभूति है, वह भी सीमा रेखा की दूसरी तरफ से. हां मैं जब और जहां यानि 1950 के दशक के उत्तरार्ध में अपने ही गांव में शूद्र पैदा होता तो पता नहीं प्राइमरी तक की पढ़ाई कर पाता कि नहीं और आप को अपने लेखन से परेशान कर पाता. मैं अपने गांव से विश्वविद्यालय जाने वाला ब्राह्मणों में भी पहला बालक था. कहां पैदा हो गया इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है, इसलिए उसे छिपाने या उस पर गर्व करने की कोई बात नहीं है. गज़ब है कि मैं जो लिखता हूं उस पर सवाल की बजाय सबकी निगाह मेरे नाम के मिश्र पर जाती है. बहुत से लोग मेरे आगे-पीछे क्रमशः पॅोफेसर और मिश्र देख कर रिक्वेस्ट भेज देते हैं. प्रोफेसरी या मिश्रपन के कोई लक्षण न देख निराश होते हैं. जन्म से ब्राह्मण होने के नाते समाज की एक वैज्ञानिक(आलोचनात्मक) सोच के साथ समाज की समझ विकसित करना तथा बदलाव की प्रक्रिया में यथा-सामर्थ्य योगदान देना और भी वांछनीय हो जाता है क्योंकि उसके पास पारंपरिक रूप से बौद्धिक संसाधनों की सुलभता रही है. मेरी समझ में नहीं आता यह शिक्षा व्यवस्था क्या ज्ञान देती है कि हम अपने जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की स्मिता से ऊपर नहीं उठ पाते? (हल्के-फुल्के अंदाज़ में) इसलिए भी नाम का मिश्र नहीं हटाता कि लोगों को पता रहे कि शिक्षा पर तिकड़म से एकाधिकार के जरिए ज्ञान को संकुचित दायरे में परिभाषित कर समाज को हजार से अधिक साल आर्थिक-बौद्धिक जड़ता में जकड़ने वालों में मेरे भी पूर्वज शामिल थे. यदि आप समाज की सर्जनात्मक ऊर्जा को प्रस्फुठित नहीं होने देंगे, समाज जड़ बनेगा. जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूल मंत्र है. कोई भी तर्कशील इससे सहमत हो सकता है क्या? तो हर तर्कशील इंसान का इस विचारधारा के विनाश का प्रयास नहीं करना चाहिए, (बावजूद मिश्र या झा होने के)? मैं किसी ब्राह्मण व्यक्ति का नहीं, ब्रह्मणवाद की विचारधारा का विरोधी हूं और इसके विनाश की प्रक्रिया में आजीवन योगदान देने को कृतसंकल्प. ईश मिश्र नाम के रूप में जस-का-तस रहेगा क्योंकि बदलने का कोई औचित्य मुझे नहीं दिखता. बहुत लंबा जवाब हो गया.
26.11.2017

Saturday, November 23, 2019

लल्ला पुराण 297 (तुष्टीकरण)

Markandey Pandey मुस्लिम तुष्टीकरम संघी शगूफा है, जब तक संघी था मैं भी यही बिना समझे यही भजन जपता रहता था। सभी पार्टियां बहुसंख्यक (हिंदू) तुष्टीकरण करती रही हैं। बाबरी मस्जि में मूर्ति संघ गोलवल्कर ने नहीं कांग्रेसी गोविंद वल्लभ पंत ने रखवाया तथा आचार्य नरेंद्रदेव के खिलाफ लंपट साधू राघवदास को खड़ा किया। बाबरी मस्जिद का ताला खुलववाकर चबूतरा निर्माण डवाणी ने नहीं राजीव गांधी ने कराया। मेरठ, मलियाना, हासिमपुरा के नरसंहार कांग्रेस ने करवाया। राजीव गांधी मूर्ख था दुश्मन के मैदान में दुश्मन के हथियार से लड़ना चाहता था। समाज के दुश्मन अपनी फिरकापरस्ती की जनद्रोही विचारधारा और कुकृत्यों को छिपाने के लिए तुष्टीकरण तुष्टीकरण अभुआते रहते हैं।

लल्ला पुराण 296 (रूसो)

स्वतंत्रता को समानता के परिप्रक्ष्य में परिभाषित करने वाले, 18वीं सदी के दार्शनिक रूसो की कालजयी कृति 'सामाजिक संविदा (सोसल कॉन्ट्रऔक्ट)' का पहला वाक्य है, 'मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है किंतु बेड़ियों में जकड़ जाता है', इसे हम भारतीय संदर्भ में अनूदित करें तो कहेंगे, 'सब पैदा तो समान इंसान होते हैं लेकिन हिंदू-मुसलमान; ब्राह्मण-दलित;........ में बंट जाते हैं। आजाद पैदा मनुष्य के पैरों में बेडियां समाज डालता है जिस पर निहित स्वार्थ फूल-माला चढ़ाते हैं। उनपर फूल माला चढ़ाने की नहीं, उन्हें तोड़ने की जरूरत होती है। चूंकि बेड़ियां समाज डालता है, इसीलिए उन्हें तोड़ने की जिम्मेदारी भी समाज की है। गुलामी यदि बलपूर्वक लादी गयी हो तो बलपूर्वक उसे उतार फेंकना न केवल लाजमी है, बल्कि वांछनीय भी। 'जो खुद को मालिक समझते हैं, वे गुलामों से भी ज्यादा गुलाम हैं'।

लल्ला पुराण 295 ( भारत पाकिस्तान जन एकता)

लंबा कमेंट, कम्यूटर की समुचित दक्षता के अभाव में मिट गया, दुबारा वही लिखना नामुमकिन होता है।हम दुबारा वही नदी नहीं पार करते, परिवर्तन ही साश्वत है, दुबारा पार करते समय नदी बदली हुई होती है 'अंततः पाकिस्तान का भारत में विलय होगा' कहने में युद्धोंमादी प्रवृत्ति अंतर्निहित है। समुचित, मानवीय वाक्य होना चाहिए, 'अंततः भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश एक होंगे'। बंगाल एक होगा, पंजाब एक होगा, कश्मीर एक होगा। सरहदों के दोनों तरफ एक ही तरह के लोग हैं, दोनों ही तरफ के विवेकशील, संवेदनशील लोग मानते हैं कि औपनिवेशिक शह पर बंटवारा अस्वाभाविक था, भूगोल बांटा जा सकता है, साझा इतिहास, साझी सभ्यता-संस्कृति नहीं। दोनों ही तरफ की फिरकापरस्त ताकतें लोगों के विरुद्ध औपनिवेशिक ताकतों के मुहरों का काम किया। दोनों ही तरफ को लोग एक ही भाषा बोलते हैं, गरीबी-भुखमरी से आजादी के एक ही तरह के नारे लगाते हैं। दोनों ही तरफ के हुक्मरान अपनी गद्दी की हिफाजत में एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं। फीस वृद्धि के विरुद्ध लाहौर की फैज यूनिवर्सिटी के छात्रों के एक प्रोटेस्ट के वायरल हुए एक वीडियो को देखकर कई भक्त जेएनयू के छात्रों को गाली देने लगे, जब पता चला कि वे हिंदुस्वेतानी नहीं पाकिस्तानी हुक्मरानों के खिलाफ डफली बजाकर नारे लगा रहे हैं तो जिंदाबाद करने लगे। 'न मेरा घर है खतरे में, न तेरा घर है खतरे में, वतन को कुछ नहीं खतरा, निजामे-ज़र है खतरे में'। (हबीब जालिब) 'दो पारपत्र उसको जो उड़कर जाए, दो पारपत्र जो उड़कर आए, पैदल को पैदल से मत मिलने दो, वरना दो सरकारों का क्या होगा'। (रघुवीर सहाय)। 2002 में अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के समय, युद्ध विरोधी प्रोटेस्ट में हम लोगों ने एक नारा दिया था, 'जंग चाहता जंगखोर, ताकि राज कर सके हरामखोर'। 9/11 के बाद अमेरिकी हुक्मरान अमेरिकी जनता की खून-पसीने की कमाई के 6 खरब (ट्रिलियन)$ युद्ध में लगाकर 5 लाख हत्याएं कर चुके हैं। जंग अपने आप में गंभीर मसला है यह कसी मसले का समाधान नहीं हो सकता है, इसमें सब हारते हैं, जीतता कोई नहीं।

Friday, November 22, 2019

बेतरतीब 54 (जेएनयू)

मैं इलाहाबाद से अगस्त 1976 में रोजी-रोटी की जुगाड के साथ भूमिगत रहने की संभावनाएं तलाशता दिल्ली आया और इलाहाबाद के सीनियर तथा जेएनयूएसयू के तत्कालीन अध्यक्ष, डीपी त्रिपाठी (वियोगी जी) से मुलाकात की उम्मीद में जेएनयू पहुंच गया। त्रिपाठी जी तो जेल में थे, उनके स्कूल के सहपाठी, मित्र, हिंदी के शोधछात्र घनश्याम मिश्र (अब दिवंगत) से मुलाकात हो गयी और उनके माध्यम से इलााबाद विवि के एक अपरिचित सीनियर रमाशंकर सिंह से। रमाशंकर जी के कमरे (323 गंगा हॉस्टल, सीताराम येचुूरी 325 में रहते थे) में रहने की जुगाड़ हो गयी। रमाशंकर सिंह कुछ दिनों के लिए गांव (सुल्तानपुर) गये और लौटे 6-7 महीने में तो बिना दाखिला लिए ही मैं सिंगल सीटेड कमरे के साथ जेएनयूआइट हो गया। उस समय 5 हॉस्टल में ही जेएनयू समाया था छठा, झेलम निर्माणाधीन था। 1977 में एक विंग तैयार हो गया और लड़कियों के डेढ़ हॉस्टल हो गए, एक गोदावरी और आधा झेलम। दूसरा विंग बना तो लड़कों को एलॉट हुआ, इस तरह वह पहला साझा हॉस्टल बना। आपातकाल के विरुद्ध प्रत्यक्ष कार्यक्रम तो नहीं होते थे लेकिन कई देशी-विदेशी फिल्में दिखाई जाती थीं जिनमें अधिनायकवाद का विरोध होता था। तमाम विषयों पर पोस्ट डिनर डिस्कसन आयोजित होते थे जिनमें प्रमुख भूमिका दिलीप उपाध्याय (दिवंगत) की होती थी। आपातकाल के बाद चुनाव के लिए जनमतसंग्रह हुआ औरअप्रैल 1977 के चुनाव में सीताराम येचुरी अध्यक्ष बने। उनकी उम्मीदवारी और चुनाव की कई कहानियां हैं जो फिर कभी। 1977 में मैंने जोएनयू में दाखिला लिया। इलाहाबाद में हम लड़के तो आधी रात को भी हॉस्टल से कटरा तथा प्रयाग स्टेसन चायबाजी करने जाते थे, लेकिन लड़कियां दिन डूबने के साथ अपने कमरों में बंद हो जाती थीं, लड़का-लड़की का साथ चलना या साथ चाय पीना गप्पबाजी का विषय बन जाता था। जेएनयू पहुंच कर जो कई सुखद आश्चर्य हुए उनमें देर रात ढाबों पर लड़के-लड़कियों का साथ-साथ अड्डेबाजी तथा कुछ लड़कियों का 'खुले-आम' सिगरेट पीना था तथा उससे भी अधिक लड़कियों का देर रात सड़कों पर अकेले बेखौफ घूमना था। 1977 में झेलम लॉन्स की पानी की टंकी पर, हिटलर पर शफदरहाशमी के निर्देशन में जननाट्य द्वारा 'राजा का बाजा' पहला नाटक अभिनीत हुआ था। आपातकाल में जेल में लगता था बाहर तो ज्वालामुखी धधक रहा होगा लेकिन बाहर सब शांत था, इस मामले में में जेएनयू भी भिन्न नहीं था। जवालामुखी अंदर ही अंदर धधक रहा था जो 1977 के चुनाव में विस्फोटक हो गया। जेएऩयू से छोटी-छोटी टीमें बनाकर हम लोग आपातकाल के खास-खास दोषियों के विरुद्ध चुनाव प्रचार करने गए, मैं कॉमरेड सुनीत चोपड़ा के नेतृत्व में बंसीलाल के खिलाफ भिवानी वाली टीम में था, उस टीम के रमेश गुप्ता 1978-79 में हरयाणा में पीसीएस हो गए। प्याज-रोटी खाकर हम गुजारा करते थे। भिवानी से आकर मैं अपने गांव गया जहां चुनाव अगले चरण में था तथा वहां जाकर (आजमगढ़) राम नरेश यादव (बाद में उप्र के मुख्यमंत्री) का 2-3 दिन प्रचार किया। Arun Dev जी नास्टेल्जियाकर यह कमेंट पोस्ट के सवाल से थोड़ा अलग हो गया, अंत में इतना ही कहूंगा कि आपातकाल के दौरान जेएनयू भी अन्य कैंपसों की ही तरह लगभग शांत ही था।