Sunday, October 27, 2019

लल्ला पुराण 288 (वर्गविहीन सपना)

यहां सिर्फ मंत्र की बात करूंगा, पीड़ा बहुत हद तक मनःस्थिति होती है तथा मंत्र का मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है। मैंने ऊपर कबूल किया कि बिना मंत्र जाने मैं मंत्र की प्रैक्टिस करता था। मार्क्स की सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था में सामाजिक चेतना भिन्न होगी। सुख महज जरूरत की इच्छाओं की संतुष्टि में नहीं है, सुख अपनी प्रकृति को व्यवहार का अंग बनाने में है। happiness lies not not in eat, drink and be merry, but in realization of one's happiness. जैसे बढ़िया क्लास हो जाना, एक शिक्षक का सुख है। लेकिन भोजन की गुणवत्ता कुक तो बताएगा नहीं, वह तो खाने वाला ही बताएगा। भोजन की तारीफ सुनकर कुक को सुख मिलता है। वर्गविहीन समाज ( या उसके सपने) में समानता काअद्भुत सुख सभी को एक समान सुलभ होगा। सब बराबर होंगे कोई कम या ज्यादा बराबर नहीं। भविष्य की परिकल्पना, एक सपना ही तो होता है, सपना सुंदर ही होना चाहिए और पाश ने कहा है, सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना। बाकी फिर..

मार्क्सवाद 188 (यूटोपिया)

जो जब तक घटित नहीं होता, यूटोपिया लगता है। हमारे बचपन में किसी दलित का ब्राह्मण के बराबर बैठना या किसी स्त्री का पुरुषो की बराबरी की बात यूटोपिया थी।

प्रकृति ( द्वंद्वात्मक भौतिकवाद) का नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है, पूंजीवाद अपवाद नहीं है।

मार्क्स और धर्म

अक्सर मार्क्स के धार्मिक अवधारणा के बारे में ज़िक्र कर मार्क्सवाद के विरोधी उसे धर्म अफ़ीम है तक सीमित कर देते हैं । संदर्भ से काटकर इस उद्धरण के ज़रिये धर्मपरायण जनता के समक्ष मार्क्स को कलंकित करने के उद्देश्य से वे ऐसा करते हैं । मार्क्स ने इस संदर्भ में जो कुछ कहा था वह बिल्कुल दूसरे ही रूप में है । अगर उसे समस्त संदर्भ में परखा जाय तो मार्क्स द्वारा धर्म की आलोचना के सत्य को सही सही समझा जा सकता है । प्रोफ़ेसर Ish Mishra ने अपने पोस्ट में अंग्रेज़ी में उस पूरे संदर्भ को उद्धरित कर मार्क्स के धर्म संबंधी अवधारणा के विकृतिकरण के मर्म पर प्रहार किया है । मित्रवर BM Prasad ने अपनी टिप्पणी में उस उद्धरण के हिंदी अनुवाद की ज़रूरत को रेखांकित किया था । मैंने उनसे वादा किया था कि मैं उसका हिंदी में अनुवाद प्रस्तुत कर दूंगा । कुछ अन्य व्यस्तताओं की वज़ह से देर हो गयी :
"धार्मिक पीड़ा की अभिव्यक्ति एक ही साथ वास्तविक पीड़ा की अभिव्यक्ति और उसके प्रति विद्रोह भी है । यह पीड़ित प्राणियों की आह , हृदयहीन विश्व का हृदय और आत्महीन दशा की आत्मा है । यह लोगों के लिए अफ़ीम है !
" मनुष्य के आभासित सुख के रूप में धर्म का उन्मूलन ही उसके वास्तविक सुख की प्राप्ति का तक़ाज़ा है । उनसे अपनी आभसित स्थितियों को छोड़ देने का आह्वान उन हालात को छोड़ने की आह्वान है जिसके लिए भ्रम की दरकार होती है । धर्म की आलोचना इस तरह मूल में आँसुओं की उस घाटी की आलोचना है धर्म जिसका प्रभामण्डल है ।
".......धर्म की आलोचना (वस्तुतः) मनुष्य को भ्रम से इस तरह मुक्ति दिलाएगा कि वह उस मनुष्य की तरह सोचेगा , आचरण और व्यवहार करेगा जिसने भ्रमों से मुक्ति पा ली है और अपने ज्ञान को इस तरह पुनः अर्जित कर लिया है कि वह स्वयं को वास्तविक सूर्य मानकर अपनी ही परिक्रमा शुरू कर देगा । धर्म एक आभासित सूरज है जो मनुष्य के इर्दगिर्द तब तक रहता है, जब तक वह स्वयं की परिक्रमा नहीं करता ।
"इसलिए इतिहास के दायित्व के तहत एक बार अगर इस संसार ( इहलोक) में सत्य को स्थापित करने के लिए सत्य की दूसरी दुनिया (परलोक) को नष्ट किया जा चुका है तो इतिहास की सेवा में रत दर्शन का यह फ़ौरी काम हो जाता है कि मानवीय स्व-अलगाव के पावन स्वरूपो पर से एक बार पर्दा हट चुकने के बाद स्व-अलगाव के अपावन स्वरूपों पर से भी पर्दा खींच लिया जाय ।
इस प्रकार स्वर्ग की आलोचना धरती की आलोचना में ,धर्म की आलोचना क़ानून की आलोचना में और धर्मशास्त्र की आलोचना राजनीति की आलोचना में बदल जाती है ।
"धर्म की आलोचना का आधार निम्न है : मनुष्य ने धर्म का निर्माण किया है, धर्म मनुष्य का निर्माण नहीं करता है।
"धर्म वास्तव में उस मनुष्य की स्व-चेतना और स्व-विचार है, जिन्होंने स्वयं पर विजय नहीं पाई है , और स्वयं को पहले ही कहीं विसर्जित कर दिया है।"


Saturday, October 26, 2019

मार्क्सवाद 187 (युग चेतना)

Paritosh Singh शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार भी होते हैं, जिस वर्ग का आर्थिक संसाधनों पर वर्चस्व होता है, बौद्धिक संसाधनों पर भी उसी का अधिकार होता है। पूंजीवाद उपभोक्ता सामग्री का ही उत्पादन नहीं करता. विचारों का भी जो युगचेतना का निर्माण करते हैं। युग चेतना सामाजिक चेतना को प्रभावित करती है। हमारा काम युगचेतना के विरुद्ध सामाजित चेतना का जनवादीकरण कर जनचेतना तैयार करना है, जिसकी पूर्वशर्त है -- जाति-धर्म की मिथ्या चेतनाओं से मोह भंग।

मार्क्सवाद 186 (जनबल)

यहां मार्क्सवाद की आलोचना नहीं की जाती, गाली दी जाती है। आलोचना तो तब होती जब उसकी किसी अवधारणा या मान्यता के विभिन्न विंदुओं की तथ्य-तर्कों के आधार पर समीक्षा की जाए। समाजवाद का इतिहास 150 साल पुराना है (पेरिस कम्यून, 1871) तथा धरती पर स्वर्ग उतारने के स्वप्न के साथ शुरू पूंजीवाद का इतिहास उससे दो सौ साल अधिक पुराना है, सब भोंपू लेकर चिल्लाते रहते हैं कि समाजवाद फेल हो गया, कोई नहीं पूछता कि पूंजीवाद क्यों असफल रहा? क्रांति और निर्माण लंबी प्रतिक्रिया है, पूंजीपति सर्वसाधन संपन्न है, राज्य मशानरी उसकी चाकर है, सर्वहारा के पास श्रमशक्ति के सिवा कुछ नहीं। यह श्रमशक्ति तब तक महज संख्याबल, भीड़ बनी रहती है जब तक वर्गचेतना से लैस अपने आपको जनबल में नहीं तब्दील करती। संख्याबल के जनबल की यात्रा की एक शर्त है, जाति-धर्म की मिथ्या चेतना से मोहभंग।

रूस तथा चीन में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना समाजवाद की असफलता नहीं है, पूंजीवाद के विरुद्ध समाजवादी विद्रोह और विकल्प के चरणों की समाप्ति है। समाजवाद पूंजीवाद का विकल्प है तथा पूंजी भूमंडलीय है इसलिए इसका विकल्प भी भूमंडलीय ही होगा। बाकी फिर........

लल्ला पुराण 287 (ईस्ट इंडिया कं.)

आप राजनीति के विद्यार्थी हैं तो 'सुना था' नहीं, 'पढ़ा है' कहना चाहिए। मैं तो विज्ञान का विद्यार्थी था, समाजविज्ञान में तो एमए में प्रवेश किया। परीक्षा से मुझे छात्रजीवन में ही अरुचि थी, बुढ़ापे में आप परीक्षा ले रहे हैं। फिर भी मुझे जितना मालुम था बता दिया, बाकी आप बताएं, ईस्ट इंडिया कंपनी को किन सेठों ने फाइनेंस किया? या आप की रुचि मुसलमान नामों में ही है? तो मेरीपरीक्षा क्यों ले रहे हैं? सभी जानते हैं कि बंगाल में व्यापार की इजाजत पतनशील मुगल शासकों ने दी थी बाद में दीवानी का अधिकार भी। सादर। लेकिन शूरवीरों के इस विशाल देश को मुट्ठी भर अंग्रेज 200 साल तक बलपूर्वक गुलाम बनाकर कैसे लूटते रहे?

Thursday, October 24, 2019

मार्क्सवाद 185 (धर्म)

Raj K Mishra आपकी इस बात से सहमत हूं कि भगवान की उत्पत्ति पीड़ा के भय से हुई क्योंकि पीड़ा के कारणों को वह समझ न सका। कालांतर में उसके लिए धर्म का निलय बनाया गया तथा पुरोहितों का एक वर्ग पैदा हुआ। धर्म चूंकि पीड़ा से मुक्ति की तथा प्रसन्नता की खुशफहमी देता है इसी लिए उसे मार्क्स पीड़ित की राहत; आत्माविहीन परिस्थितियों की आत्मा तथा हृदयविहीन दुनिया का हृदय; कमजोर की लाठी कहा है। धर्म (उहलोक) की आलोचना दर-असल इहलोक की ही आलोचना है। धर्म की आलोचना से व्यक्ति का किसी सर्वशक्तिशाली शक्ति सो मोहभंग होता है। इससे वह एक ऐसे इंसान के रूप में सोचने और अपने कर्मनिर्धारण करता है जिसने खुशफहमियों से किनारा कर आत्मबल हासिल कर लिया है। उसे दुनिया को समझने-बदलने के लिए किसी बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं होती। इसीलिए हम धर्म की समाप्ति की बात नहीं करते बल्कि उन परिस्थितियों की जिनके चलते खुशफहमी की जरूरत होती है। व्यक्ति को जब वास्तविक खुशी मिलती है तो खुशफहमी की जरूरत नहीं रहेगी तथा धर्म अनावश्यक हो जाएगा। इस पोस्ट को, लेखन की जड़ता टूटते ही एक लेख में विकसित करने की कोशिस करूंगा। आपकी दुख के साश्वत चरित्र से असहमत हूं। सापेक्ष सुख-दुख ऐतिहासिक हैं, इसीलिए दुख का अंत संभव है।

Marx on religion

Many people keep quoting Karl Marx, as “Religion is the opiate of the masses.” But he never used that exact phrase.The exact quotes from the essay on Hegel's Philosophy of Right, published in 1844 in "Deutsch-Französische Jahrbücher", during his stay in Paris, are:

"Religious suffering is, at one and the same time, the expression of real suffering and a protest against real suffering. Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, and the soul of soulless conditions. It is the opium of the people."

"The demand of abolition of religion as the illusory happiness of the people is the demand for their real happiness. To call on them to give up their illusions about their condition is to call on them to give up a condition that requires illusions. The criticism of religion is, therefore, in embryo, the criticism of that vale of tears of which religion is the halo."

"Criticism has plucked the imaginary flowers on the chain not in order that man shall continue to bear that chain without fantasy or consolation, but so that he shall throw off the chain and pluck the living flower. The criticism of religion disillusions man, so that he will think, act, and fashion his reality like a man who has discarded his illusions and regained his senses, so that he will move around himself as his own true Sun. Religion is only the illusory Sun which revolves around man as long as he does not revolve around himself."

"It is, therefore, the task of history, once the other-world of truth has vanished, to establish the truth of this world. It is the immediate task of philosophy, which is in the service of history, to unmask self-estrangement in its unholy forms once the holy form of human self-estrangement has been unmasked. Thus, the criticism of Heaven turns into the criticism of Earth, the criticism of religion into the criticism of law, and the criticism of theology into the criticism of politics."

"To be radical is to grasp the root of the matter. But, for man, the root is man himself. The evident proof of the radicalism of German theory, and hence of its practical energy, is that is proceeds from a resolute positive abolition of religion. The criticism of religion ends with the teaching that man is the highest essence for man – hence, with the categoric imperative to overthrow all relations in which man is a debased, enslaved, abandoned, despicable essence..."

From these passages it is clear that Karl Marx was no friend of religion, organized or otherwise but never called for abolition of religion but abolition of conditions that need illusion supplied by the religion, religion shall wither away on its own. If people get real happiness they shall not need illusion of it.

Its worth reading 7-8 pages long essay in a poetic language.

24.10.2018

Wednesday, October 23, 2019

लल्ला पुराण 287 (धर्म निरपेक्षता)

अक्सर कुछ लोग धर्मोंमाद-विरोध को सूडो या फर्जी सेकुलरिज्म के खिताब से नवाजतेरहते हैं, बताते नहीं कि जिन्यून या सही सेकुलरिज्म क्या है? क्या इस मंच पर हम सेकुलरिज्म पर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में कोई सार्थक विमर्श कर सकते हैं? इसके पहले मैंने 'वाम पंथ' पर एक सार्थक विमर्श का प्रयास किया था, अन्यान्य कारणों से प्रयास असफल रहा। मैं इस तथ्य से विमर्श की शुरुआत करता हूं कि राष्ट्रवाद की ही तरह धर्मनिरपेक्षता (सेकुलरिज्म) एक आधुनिक विचारधारा है। आधुनिक विचारधारा की जड़ें प्रचीनता में भले ढूंढ़ी जासकें लेकिन उनका निर्माण सुदूर अतीत में नहीं हो सकता। विचार या वैचारिक संरचना (विचारधारा) वस्तु या भौतिक परिस्थिति के परिणाम है। यूरोप में ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में धर्मशास्त्रीय शिकंजे से कला, संस्कृति, राजनीति और दर्शन की मुक्ति की शुरुआत नवजागरण काल में हो चुकी थी तथा प्रबोधन काल तक सत्ता की वैधता के श्रोत के रूप में ईश्वर तथा भौतिक दुनिया की व्याख्या के श्रोत के रूप में धर्मशास्त्र वितुप्त हो गए। यानि ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में धर्मनिरपेक्षता (सेकुलरिज्म) का उदय नवजागरण काल तक हो चुका था। इस (सेकुलरिज्म) शब्द का ईजाद 1851 में अंग्रेजी चिंतक जैकब होलीओक (Holyoake) ने किया। एक दर्शन के रूप में धर्मनिरपेक्षता (सेकुलरिज्म) धर्म का नाम लिए बिना जीवन की व्याख्या भौतिक सिद्धांतों पर करती है। नोट: विषयांतर से बचने की गुजारिश।

लल्ला पुराण 286 (तर्क)

प्रो. क,
मेरी हकीकत तो बहुत लोगों को पता ही है, आपकी भी हकीकत कुछ लोगों को पता है। सबकी हकीकत कुछ या बहुत लोगों को पता होती है। आपकी प्रतिक्रिया में मैं भी अप्रिय बात कह गया, मुझे पता नहीं आपको मुझसे क्या दुश्मनी है कि अनायास वैमनस्य पैदा करते हैं। मैं आप जैसे ज्ञानी, फुल प्रोफेसर से तर्क करने के काबिल कहां हूं।( मैं तो एसोसिएट से ही रिटायर हो गया) आपने मेरी मूर्खता का राज सार्वजनिक कर ही दिया है। हमारा संवाद अनायास अप्रिय हो रहा है। आपसे अपनी मूर्खता की सनद के अलावा कुछ ज्ञान भी नहीं प्राप्त हो रहा है। अशोक के सांप्रदायिकता के जनक होने की आपके सिद्धांत से सहमत नहीं हूं। किसी भी अवधारणा को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में ही समझा जा सकता है। सांप्रदायिकता (और धर्मनिरपेक्षता भी) एक आधुनिक राजनैतिक विचारधारा है जो धर्म के नाम पर उंमादी लामबंदी करता है। खैर अनायास कटुता की बजाय आइए संवाद बंद करते हैं, मैं आपके किसी निराधार आक्षेप का जवाब नहीं दूंगा।

Tuesday, October 22, 2019

Marxism 40 (representation)

Kafeel Siddiqui I represent myself, never claimed to be anyone's representative. No one can be anyone's representative except oneself. Under false consciousness, many people claim to be representative of the entire community and even the nation without ever conducting any referendum among the claimed constituency of representation. There are few who are so obsessed with their claim that as soon as they see my name start getting fits of KAUMNASHT and begin abusing Marx, Lenin and Mao. Abuse them separately but not by subverting a discourse on some other relevant topic. This leads to chaos speed-braking the motion of the group towards becoming a forum of healthy, democratic discourse.