Friday, September 11, 2015

ये शहर इलाहाबाद

ये शहर इलाहाबाद
कभी मेरा भी अजीज़ शहर होता था  
इसके घाट, गली-कूचों से था खास रिश्ता सा 
निरंतर बदलाव है मगर प्रकृति का साश्वत दस्तूर
होता भी है किशोर मन में नए की कल्पना सुरूर 
बदलता रहा मैं अंदाज़-ए-आवारगी में
बनते रहे अजीज और नये नये शहर 
चलता रहा भटकता भी रहा
मुकाम-दर-मुकाम मंजिल-दर-मंजिल
हक़ीकत की तलाश और उसे बदलने के प्रयास में
दिल तो कचोटता ही है छूटती है जब कोई जगह
जिया हो जहां ज़िंदगी के अनंत हसीन लम्हे
 तैर जाती हैं आंखों में तमाम यादें तमाम बातें
जीवंत हो उठती हैं दृष्य-दर-दृष्य 
श्याम बेनेगल की किसी फिल्म की रील की तरह
जैसे शांत पोखर में हलचल पैदा कर दी हो किसी ने
फेंककर एक छोटा सा कंकड़ 
शहर छूटने का थोड़ा मलाल जरूर था
मन में मगर 
नई जगह के नए ज़ोख़िमों की कल्पना का सुरूर था
अब भी अज़ीज है ये शहर इलाहाबाद
है जिसमें जरूर कोई खास बात
जब भी इस शहर में जाता-आता
कभी नहीं खुद को अजनबी पाता
लगते नहीं कभी अजनबी शहर के तेवर औ जज़्बात
बदली है साजोसज्जा बदले हैं भूगोल और इतिहास  
बदला नहीं शहर का मगर सामंती मिजाज़ 
नाटक वही है बस बदल गये हैं कुछ किरदार 
होता नहीं एक ही किसी शहर का मिजाज़
निकलती है उसी में से ही विद्रोह की भी आग
आओ डालकर घी इसमें फैलाएं इंकिलाबी ज्वाला
दुनिया का मेहनतकश हो जिसका रखवाला
आओ  मिजाज इस शहर का बदल दें
दुनिया में इसको इक मिशाल बना दें,
(पहली 2 पंक्तियां ही लिखना चाहता था बाकी ऐसे ही लिखा गयीं)
(ईमिः 12.09.2015)

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