Kanupriya सही कह रही हैं. स्त्री देखते लार टपकाने की पुरुषों की प्वृत्ति कुंठाजन्य है. कई बार व्यक्ति अपनी स्वार्थी योजनाओं का खुद शिकार हो जाता है तथा स्वार्थ की जहालत में आत्मघाती बन जाता है. जहालत के अधेपन में अपनी क्षति का अंदाज भी नहीं लगा पाता. मेरी सुविचारित राय में सेक्सजन्य कुंठा तथा यौनिक हिंसा का मूल कारण सेक्स तथा परिवार के बारे में स्थापित, प्रतिगामी (मर्दवादी) अवधारणाएं तथा तथोचित मान्यताएं हैं. सभी जीवों में सामान्य रूप से नैसर्गिक गुण की तरह विद्यमान संभोग तथा प्रजनन की प्रवृत्ति को मनुष्यों ने रहस्यमय बनाकर उसके इर्द-गिर्द तमाम ऊल-जलूल मिथ और मिस्टिसिज्म खड़ा करके सेक्स जैसी सामान्य पारस्परिक बात का हौवा खड़ा कर दिया. सेक्स की मर्दवादी अवधारणा त. सेक्स संबंधी सारी निषिद्धियों तथा वर्जनाओं का मकसद, मेरी समझ से, स्त्री की सेक्सुअटी पर नियंत्रण के माध्यम से व्यक्तित्व पर नियंत्रण है. मर्दों की कुंठा इसका अनचाहा उपपरिणाम है. हमें एक ऐसी संस्कृति रचनी है जिसमें हर कोई स्त्री-पुरुष होने से पहले इंसान है, एक समान आजादी के अधिकार की समानता के साथ.
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