Sunday, September 6, 2015

कलबुर्गी की शहादत

सुनो नगपुरिया सल्तनत के आकाओं,
तुम्हे हत्या ब्रिगेड को बढ़ाना पड़ेगा
देखते नहीं हर शहर की हर सड़क पर
निकल पड़ा है कलबुर्गियों का हुजूम
तुम एक कलबुर्गी कत्ल करते हो
तो उसके लहू का एक एक कतरा
बीज बन फैल जाता है धरती की कोंख में
उग आती है कलबुर्गियों की फसल
नहीं है तुममें इतिहास से सीखने की अकल
नहीं तो समझ जाते
कि कलबुर्गी मरते नहीं
घास की तरह फैलते हैं
लहू के कतरे उर्वरक बन जाते हैं
कर अख्तियार इंसानी शक्ल
जी उठती हैं लाशें हाथ लहराते हुए
निकल पड़ती हैं ध्वस्त करने
धर्मांधता का किला
लेकिन तुम विवेक के दुश्मन
कायर ही नहीं
इतिहास बोध से वंचित मूर्ख भी हो
नहीं तो सीखते अपने पूर्वज हिटलर की मौत से
मांद में छिपकर खुदकुशी के बाद
विलीन हो गया जो इतिहास की बजबजाती गंदी नाली में
कलबुर्गी तो मरा नहीं
विचार मरते नहीं फैलते हैं
इतिहास रचते हैं
जान लो यह नगपुरिया सल्तनत के आकाओं
धर्मांधता के साम्राज्य के राजाओं



मारोगे कितने डाभोलकर, अविजीत, पंसारे
जीवित हैं विचारों में अपने अपने सारे
सदियों से करते रहे हो कायराना हमला विवेक पर
नहीं मार पाये तुम एक भी चारवाक सुकरात या गैलेलिओ
एक भी स्पार्टकस, चे या भगत सिंह
विवेकशून्यता के चलते तुम जान नहीं पाते
कि विचार मरते नहीं फैलते हैं
ज़िंदा हैं इतिहास के पन्नों में बन प्रेरणा श्रोत
सत्य के लिए गर्दन अड़ा देने के बुलंद जज्बातों के
गगनचुंबी इंकिलाबी इरोदों के
बिला गये इतिहास के गटर में इनके सारे हत्यारे
सुनो धर्मांधता के कायर पैरोकारों
विचारों से आतंकित बजरंगी हत्यारों
होतै न पैदल दिमाग से ग़र
तुम भी समझ जाते यह साश्वत सत्य
विचार मरते नहीं फैलते हैं
गूंज उठते हैं चप्पे चप्पे में बन इंकिलाब के नारे
सुन लो नगपुरिया सल्तनत के आकाओं
कलबुर्गी मरते नहीं सुकरात बन जाते हैं
(ईमिः 07.09. 2015)


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