Ashish Sinha वैसे तो मेरे मित्र ने यह बात व्यंजना में ही कहा कि मोदी की हर सभा के साथ 10 सीटें घटती जायेंगी तथा आपकी जिज्ञासा कि तब तो भाजपा का सूपड़ा साफ हो जायेगा जायज है. लेकिन व्यंजना का अविधा में रूपांतरण नामुमकिन नहीं है. यह जनता है कुछ भी कर सकती है. मोदी-मनमोहन जैसों को प्रधान मंत्री बना सकती है, गैरराजनीतिक राजनीति के शगूफेबाज केजरीवाल को मुख्य मंत्री बना सकती है, तो कुछ भी कर सकती है. संसद मे हाहाकार मचाने के लगभग तुरंत बाद मोदी की दर्जनों गली-नुक्कड़ सभाओं के बावजूद, 3 सीटें आ सकीं. जनता हालात से परेशान है. गीता उसका न्यायालयी ग्रंथ है, उसने पढ़ा नहीं यह अलग बात है. जिसने वस्तुनिष्ठता के साथ पढ़ा है वह जानता है कि गीता अकर्मण्यता तथा अंध-अनुनय की सीख देती है तथा चमात्कार में आस्था पैदा करती है. यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति ..................... श्रृजाम्यहम् युगे युगे. वह अवतार की आशा करता है.चमात्कार का भरोसा रखता है. हताशा में लफ्फाजी को देववाणी मान लेता है तथा ठगा जाता है. चुनावी जनतंत्र विकल्प सीमित करता है. पक्ष-विपक्ष पूंजी के समान सेवक हैं. जिनका काम सामाजिक चेतना के जनवादी करण का था वे जनता से दूर होते गये, कुछ चुनावी दलदल में फंस कर, कुछ व्यापक जनसमर्थन-सहानुभूति के बिना सशस्त्र क्रांति के भ्रम में फंस कर. जनता उपलब्ध कॉरपेटी विकल्पों को अदल-बदल कर आजमाती रहती है. सामाजिक चेतना जब (कब का पता नहीं, कलबुर्गी की हत्या के प्रतिरोध में 500 लोग जुटते हैं, आसाराम की रिहाई के लिए 5000) जनवादी करण होगा, जनता चुनावी जनतंत्र का पूंजीवादी रहस्य समझ जाएगी, चमत्कार से मोहभंग होगा और जनवादी जनचेतना पूंजीवादी युगचेतना को चुनौती देगी. तब छिड़ेगी, असली, अंतिम जंग-ए-आज़ादी.
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