झा जी, पांडेजी, मिश्रा जी फलना-ढमका जी, आरक्षण खैरात नहीं संवैधनिक अधिकार है. यह हजारों साल की वंचना की आंशिक भरपाई है. 51 फीसदी है तो आपको कंपीट करने के लिये और 4 नंबर ज्यादा पा जाने से आप ज्यादा प्रतिभाशाली नहीं हो गये. तथा कथित प्रतिभाशाली शिक्षकों तथा अारक्षण से आये शिक्षकों में तुलनात्मक अध्ययन करियेगा तो पाइयेगा कि दूसरी कोटि वाले ज्यादा संजीदगी से पढ़ाते हैं. मौका मिला है तो वे साबित करना चाहते हैं। कामचोरी में प्रथम कोटि का प्रतिशत ज्यादा है तथा जातिवादी सोच का भी. अन्य नौकरियों में तो यससी/यसटी/ओबीसी जनरल कैटेगरी चुने जाने से 49% से ऊपर भी जा सकते हैं. दिवि में सब कटेगरी के अलग-विज्ञापन अाते हैं तथा अलग इंटरविव. जनरल में इंटरविव दे सकते हैं, लेकिन चुने लगभग न के बराबर जाते हैं. यह मुझे लगता है गैरकानूनी है. मेरी चिंता आरक्षण का निष्प्रभावी होना है.विश्व बैंक को निर्देश पर बन रही नई शिक्षा नीति का मकसद, शिक्षा का पूर्ण व्यापारीकरण. पैसा फेंको-तमाशा देखो. सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण तथा सरकारी नौकरियों में ठेकेदारी प्रथा का समावेश आरक्षण को अप्रासंगिक बना रहा है. सारे सरकारी संस्थानों में चतुर्थ श्रेणी के सारे कर्मचारी ठेके पर नियुक्त किये जा रहे हैं. इसीलिये जरूरत ब्राह्मणों को गाली देने से अधिक कॉरपोरेटीकरण का विरोध है, भूमि अधिग्रहण से किसानों की बेदखली तथा नई शिक्षा नीतियों के विरुद्ध लामबंदी की जरूरत है. भूमंडलीय पूंजी का वफादार निज़ाम चुनावी विवशताओं के चलते आरक्षण के प्रावधानों से छेड़-छाड़ किये बिना उन्हें अप्रासंगिक बना देना चाहता है.
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