Kanupriya अवैज्ञानिकता के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष के वास्तविक तथा आभासी दुनिया के सभी उपलब्ध मंचों का प्रयोग लगातार करते रहना है यह सोचकर कि न करके भी क्या करलेंगे. बात में दम है तो देर-सबेर असर होगा ही. कई बार प्रभाव इसना सूक्ष्म होता है कि आसानी से नहीं दिखता. करीब 1 दशक पहले हॉस्टल का वार्डन बना, कानूनी-गैरकानूनी मिलाकर करीब 2 दशक हॉस्टल में रहा हूं, उसमें से 1 दशक से ज्यादा जेयनयू में. मैंने अपने अनुभवों के आधार पर कई नये प्रयोग करना शुरू किया. मेरे पूर्वर्ती वार्डन ने कहा कि गधे को रगड़कर घोड़ा नहीं बनाया जा सकता. मैंने कहा कि मेरा काम है रगड़ना, क्या पता कोई बन ही जाय. खैर बच्चों को गधा कहने पर मैंने उनकी लंबी क्लास ले ली. सभी बच्चे बेहतर इंसान बनकर निकले. विचारों का असर तो पडता ही है, इसीलिए तो आस्था आधारित अवैज्ञानिक सामाजिक चेतना के रक्षक बौखलाहट में विचारक की हत्या कर देते हैं, जानते नहीं कि विचार मरते नहीं, फैलते हैं तथा इतिहास रचते हैं.
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