हे विदुषी बालिके, B|
तुम शब्द-शिल्प की धनी हो
संवाद में मगर कुछ अनमनी हो
सही ही नहीं सौ टके की है तुम्हारी यह बात
गज़लगोई ने ही कराई थी पहली मुलाकात
कविता को कैसी भी हो कहकर करना निरस्त
है आलोचना का तुम्हारा काव्मयय अंदाज़
नहीं जानता छंद व लय के द्वंद्व का राज़
पद्य में कह देता हूं कभी अंतःमन की बात
हों गर दिल में इंसाफ के बेचैन ज़ज़्बात
और मन के हक़ीकी विचार साफ
खुद-ब-खुद साथ हो लेती है भाषा-शैली की विसात
जैसी भी हो अद्भुत है कविता से संयोग-वियोग की बात
(हा हा यह तो कविता हो गय़ी)
(ईमिः29.09.2015)
No comments:
Post a Comment