Wednesday, September 30, 2015

मोदी विमर्श 48

दादरी नृसंस हत्या कांड के सिलसिले में  Cheshta Saxena​ की  धार्मिकता को कोसने वाली 1 पोस्ट पर किसी ने किसी ने धर्म के विरुद्ध आह्वान को खतरनाक बताते हुए लिखा कि मनुष्य स्वभाव से हिंसक होता है तथा भयानक कम्युनिस्ट रक्तपात के खतरे से आगाह किया. कुछ लोगों के सर पर कम्युनिस्ट भूत इस कदर सवार रहता है कि किसी भी बात पर कम्युनिस्ट-कम्युनिस्ट अभुआने लगते हैं. मैंने उनसे कहाः
पांडेजी अापका ज्ञान अफवाहजन्य है. मनुष्य प्रकृति से हत्यारा नहीं होता, समाजीकरण से सोच बनती है. कम्युनिस्टों की हिंसा के आंकड़े आपने किस श्रोत से इकट्ठा किया. मैं थूकता हूं ऐसी धार्मिकता पर जो मनुष्य को नरभक्षी बना दे तथा उनके आकाओं पर जो लाशों की तिजारत की सियासत करते हैं. मोदी जी जिन्हें मेक इन इंडिया के लिये न्योता दे रहे हैं उनका मुख्य भोजन ही गोमांस है. नरभक्षी को जब मनुष्य की मांस का चस्का लग जाता है तो मारे जाने तक मानता नहीं. शर्म आनी चाहिए ऐसी धार्मिकता पर जिसमें दो इंसानों की जान की कीमत किसी कल्पित गाय की जान से कम हो. यह तो जंगलराज से भी बदतर है कि 100 लोग किसी को अपराधी कराऱ कर मार डालें. भीड़ की बहादुरी नीच किस्म की कायराना हरकत होती है. यह यूपी में 2017 के चुनाव की तैयारी की  शुरुआत है। मुजफ्फरनगर की तैयारी सांप्रदायिक हमले के काफी पहले शुरू हो गयी थी. मालुम नहीं कब तक उगती रहेगी दंगों की खाद से मतदान की फसल.

Tuesday, September 29, 2015

उसे कहते हैं बिटिया

जो कष्टदायक हद तक प्यार करे
उसे कहते हैं बिटिया
बात बात पर तकरार करे जो
उसे कहते हैं बिटिया
चाय बनाने से इंकार  करे जो
बोले मैं तो हूं बिटिया 
बेटा कहने पर भौंह चढ़ाये
बोले मैं हूं बिटिया
फर्राटे से फटफटी* चलाये
उसे कहते हैं बिटिया
शोहदों को दो चपत लगाये
उसे कहते हैं बिटिया
मर्दवाद की शामत लाये
उसे कहते हैं बिटिया
मां-बाप को राह दिखाये
उसे कहते हैं बिटिया
ब्याह करके जो बहुत रुलाये
उसे कहते हैं बिटिया
मर्दवाद का जो बैंड बजाये
उसे कहते हैं बिटिया
असंभव को संभव जो कर दे
उसे कहते हैं बिटिया
(हा हा बहुत दिनों बाद तुकबंदी में कमेंट लिखा गया.......  मेरी तो 2 हैं)
(ईमिः 28.09.2015)
*फटफटी -- मोटरसाइकिल

Monday, September 28, 2015

हे विदुषी बालिके

हे विदुषी बालिके, B|
तुम शब्द-शिल्प की धनी हो
संवाद में मगर कुछ अनमनी हो
सही ही नहीं सौ टके की है तुम्हारी यह बात 
 गज़लगोई  ने ही कराई थी पहली मुलाकात
कविता को कैसी भी हो कहकर करना निरस्त 
है आलोचना का तुम्हारा काव्मयय अंदाज़
नहीं जानता छंद व लय के द्वंद्व का राज़
पद्य में कह देता हूं कभी अंतःमन की बात
हों गर दिल में इंसाफ के बेचैन ज़ज़्बात
और मन के हक़ीकी विचार  साफ 
खुद-ब-खुद साथ हो लेती है भाषा-शैली की विसात
जैसी भी हो अद्भुत है कविता से संयोग-वियोग की बात
(हा हा यह तो  कविता हो गय़ी)
(ईमिः29.09.2015)

मार्क्सवाद 19

प्लेटो अादर्शवादी था तथा दृष्य जगत को अदृष्य विचार-जगत की परछाई मानता था. विचार सत्य जगत छाया. वैयक्तिक प्रेम असली प्रेम नहीं है, वास्तविकता प्रेम का विचार है. विचार वस्तु क जनक हैं. यह एक ऐतिहासिक असत्य है. अाध्यात्मवादियों की ही तरह आदर्शवादी भी, गोलमटोल तर्कों के माध्यम से सत्य को किसी अदृष्य, अप्रमाणित दुनिया में स्थापित कर दुनियावी हकीकत की विद्रूपताओं को छिपाने का उपक्रम करते हैं. ऐतिहासिक रूप से वस्तु विचार की पूर्ववर्ती है तथा वस्तु विचार की जननी है. न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से सेबों का गिरना नहीं शुरू हुआ,उनको गिरता देख न्यूटन के दिाग में कारण जानने का विचार है. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार सत्य वस्तु तथा विचार की द्वंद्वात्मक एकीकरण है.

Friday, September 25, 2015

मार्क्सवाद 18

अंतिम बात (सवाल) से शुरु करता हूं.  अपने जनपक्षीय चरित्र तथा लक्ष्य के चलते  वामपंथ कभी फासीवादी नहीं होता.  फासीवाद धुरदक्षिणपंथ की तार्किक परिणति है. कार्ल प़़ॉपर जैसे धुर कम्युनिस्ट विरोधी भी कम्युनिस्ट राज्य को फासिस्ट नहीं बोल सके, अधिनायकवाद पर रुक गये. सही है कि अंततः संघी फासीवाद के सहायक बने, भारत के कई समाजवादियों की तरह  मुसोलिनी ने भी अपने राजनीति की शुरुआत समाजवादी पार्टी के सदस्य के रूप में की. लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध की युद्धोंमादी राष्ट्रभक्ति की सामाजिक चेतना ने मुसोलिनी तथा उसकी फासिस्ट पार्टी को सत्ता के सैन्यकरण तथा नागरिक जीवन में दखलदाजी का अवसर प्रदान किया. उसके निशाने पर सर्वोपरि वामपंथी थे. फासीवादी अदालत ने मुसोलिनी के दिमाग को 20 साल न काम करने देने का फैसला दिया था. दिमाग तो नहीं बंद कर सके जेल नोटबुक ने मार्क्सवाद में नया अध्याय जोड़ दिया, दिमाग को  तो वे नहीं कैद कर पाये, जेल में शारीरिक प्रताड़ना से जीवन जरूर कम हो गया. जिनका फलूदा निकल चुका है, तुम्हारे अनसार, उनके बारे में इतना कहूंगा की हार जीत परिस्थितिजन्य है, महत्वपूर्ण है संघर्ष की गुणवत्ता. सुकरात पर मुकदमा चलाने वाले का नाम कम ही लोग जानते हैं. वर्गविहीन समाज की कल्पना उच्च मध्यवर्ग के वर्ग हित में था, यह मैं नहीं जानता था. जहां तक मेरी जानकारी है एंगेल्स के विरोधी भी अारोप लगाते थे कि वह मजदूरों के साथ ही रहते-सोते थे. जहां तक चार्टिस्ट आंदोलन की मेरी सीमित जानकारी है, यह व्यापक आंदोलन कामगरों की इंसानी अस्मिता को लेकर था, जिसका मुख्य बिंदु मताधिकार था. कम्युनिस्ट लीग के सहयोग से, 1838 में, आंदोलन को मदद करने के मकसद से लंदन असोसिएसन ऑफ वर्किंगमेन का गठन हुआ था, जिसने 1851 में कम्युनिस्टों तथा अराजकतावादियों द्वारा गठित इंटरनेसनल असोसिएसन ऑफ वर्किंगमेंन ( फर्स्ट इंटरनेसनल) की बुनियाद का काम किया. 1848 में आंदोलन शिथिल पड़ा दमन से, कम्युनिस्टों के  असहयोग से नहीं. मार्क्स ने लिखा है कि लोगों के मुद्दों से अलग किसी कम्युनिस्ट का कोई मुद्दा नहीं होता. कोई भी आंदोलन बेकार नहीं जाता. 1867 में शहरी निम्नवर्गों तथा 1918 में सभी पुरुषों व 1929 में सार्वभौमिक अधिकार की मंजूरी में इन आंदोलनों का भी योगदान है. स्वहित-सार्वजनिक हित की बात मैंने व्यापक अर्थ में किया है. वैज्ञानिक-भौतिकवादी समझ इतिहास को  समग्रता में आत्मसात करने की अंतरदृष्टि प्रदान करती है इसलिये जनपक्षीय, भौतिकवादी सार्वजनिक हित में ही स्वहित खोजता है. वह जानता है कि सार्वजनिक हित में ही स्वहित सर्वाधिक सुरक्षित है. 

मर्क्सवाद 17

पक्षधरता बेईमानी तब ही होती है जब कि स्वार्थप्रेरित या स्वहितोन्मुख हो. ब्राह्णण चारवाक की ब्राह्मणवाद के विरुद्ध भौतिकवाद की पक्षधरता बेईमानी कैसे हो सकती है या उद्योगपति बाप के बेटे एंगेल्स की मजदूरों की पक्षधरता?  निष्पक्षता या तो ढोंग होती है या आत्मछलावा. विभाजक रेखा सदियों से खिची है, दमन तथा प्रतिरोध के बीच; न्याय-अन्याय के बीच; जातिवाद-जातिविरोध के बीच;  सांप्रदायिकता-धर्मनिरपेक्षता के बीच;  कट्टरपंथ-वैज्ञानिकता के बीच;  फासीवाद-जनतंत्र के बीच; मर्दवाद तथा नारी-प्रतिष्ठा के बीच;  शासक-शासित तथा शोषक-शोसित के बीच. जेपी-गांधी विचार-विनिमय की एक बात याद अाती है. 1934 में हरिजन में गांधी ने लिखा कि कुछ युवा कांग्रेसजन वर्गसंघर्ष जैसी हल्की बोतों में उलझ रहे हैं. जेपी ने लिखा कि संघर्ष तो जारी है, सवाल पक्षधरता का है.

Thursday, September 24, 2015

Marxism 10

Life of human beings has much longer history than that of money that came into existence as the standard means of exchange that grew faster with the productive advantages of the growing division of labor. With social ownership of the means of production and distribution (sounds utopia in the neo-liberal paradigm), one would take what one needs and one would do what one can. Karl Marx calls it the stage of human emancipation -- emancipation of human creativity -- the stage of communism. The money shall be rendered irrelevant. This might be Marx's too optimistic wishful thinking. But one thing is sure, the Capitalism shall end, as historically, any thing that existed has vanished. What shall be the character and model of the new system shall be determined by the character of the forces that shall lead the decisive battle against the inhumanly exploitative neo-liberal capitalism at global level. Marx had also written, in a response to a letter asking about the blueprint of the communist society, that anticipating programs of future generations amounts to sidetracking the present struggles. Let us continue contributing our bit towards building a global resistance as the oppression of the capital is global, so is its character. Capital is global, as it is no more geocentric either in terms of source or investment.

Wednesday, September 23, 2015

मार्क्सवाद 16

शालू 'मिताक्षरा' इस भूखंड मेँ भौतिकवाद की परंपराएं उतनी ही पुरानी हैं, जितनी आध्यात्मिक. यहां तक कि वैदिक धर्म यानि ब्राह्मण धर्म का पैरोकार कौटिल्य भी भौतिकवादी था, अर्थशास्त्र धर्शास्त्रीय विवेचनाओं से मुक्त है. धर्म तथा धार्मिक अंधविश्वासों का इस्तेमाल राजनैतिक उद्देश्यों के लिए करने की सलाह दी गयी है. सारा भौतिकवादी साहित्य ब्राह्मणों ने नष्ट कर दिया तथा अपने साहित्य में इनकी निंदा किया तथा माखौल उडाया. इनकी निंदा-भर्त्सनाओं ने ही वैज्ञानिक तेवर के हमारे इन पूर्वजों के विचारों से अवगत कराया. रामायण में अयोध्या कांड तथा अन्यत्र बार बार लोकायत अनुयायियों (नास्तिक ब्राह्मण), तथागतों तथा बौद्धों की संगति के खतरों के बारे में चेताया गया है. तुमने जो श्लोक उद्धृत किया है वह तो मनुस्मृति के कुतर्क का छोटा सा, नगण्य नमूना है. पूरा ग्रंथ ही किंवदंतियों. अंधविश्वासों तथा कुतर्कों का संकलन है. महाभारत में भी चारवाक (नास्तिक ब्राह्मण) के चरित्र के जरिए भौतिकवादी दर्शन का मजाक बनाया गया है, फिर भी विचार हैं कि मरते ही नहीं. चिंता की बात यह कि यही ग्रंथ तथा इनपर ब्राह्मणों का एकाधिकार हजारों साल वर्गीय तथा जेंडर वर्चस्व के प्रमुख स्रोत बने रहे तथा बात अभी खत्म नहीं हुई. "स्वेच्छा" से निम्नवर्ग तथा महिलायें मनुवादी मान्यताओं को मानते रहे. मेरे बचपन तक यह हकीकत थी, तेजी से बदल रही है . तुम उसका एक ज्वलंत उदाहरण हो. ऐसे मे ऐंतोनियो ग्राम्सी की बहुत याद आती है. उनका वर्चस्व का सिद्धांत, सभ्यता के इतिहास का साश्वत, सार्वभौमिक सिद्धांत सा लगता है. ऐसा तब तक लगता रहेगा जब तक शोषण पर टिका वर्ग समाज रहेगा. मनुवाद के प्रतिरोध का विमर्श उसी तरह मनुवादी पैराडाइम में हो रहा है जिस तरह राष्ट्रवादी विमर्श औपनिवेशिक पैराडाइम की परिधि में ही चला. जन्म के आधार पर मूल्यांकन मनुवाद (ब्राह्मणवाद) का मूलभूत सिद्धांत है. मनुवादी मानसिकता (जातिवाद) का एक ही समाधन है वर्गचेतना का प्रसार तथा वर्गीय लामबंदी. मनुवाद का एक जवाब -- इंकलाब ज़िंदाबाद.

Tuesday, September 22, 2015

उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा : ज्ञान तथा मौजूदा शिक्षा नीति
(सारांश)
कथनी-करनी का अंतर्विरोध प्रत्यक्ष या प्रकारांतर से सभ्यता के, यानि वर्गसमाज के इतिहास का साश्वत अंतरविरोध है। यह अंतर्विरोध ज्ञान की संस्थाओं द्वारा पोषित होता है. कार्ल मार्क्स ने लिखा है कि शासक वर्ग के विचार शासक विचार भी होते हैं, जो युगचेतना होती है. युगचेतना को सुव्यवस्थित रूप से प्रसारित करती हैं राज्य के वैचारिक उपकरण. शिक्षा सभ्यता के आदिकाल से ही युगचेतना यानि कि वैचारिक वर्गवर्चस्व को पोषित एवं सुदृढ़ करने का प्रभावी उपकरण रहा है. शासकवर्ग, मौजूदा संदर्भ में पूंजीपति वर्ग, महज भौतिक सामग्री का उत्पादन नहीं करता, विचारों का भी. व्यवस्था का अंतर्विरोध उसके वैचारिक उपकरण शिक्षा व्यवस्था में प्रमुखता से परिलक्षित होता है, जिसे ज्ञान की अज्ञात वस्तुनिष्ठा और शैक्षणिक अनुशासन के नाम पर दबाया-छिपाया जाता है. 1996 में डब्ल्यूटीओ द्वारा शिक्षा को व्यावसायिक सेवा के रूप में गैट में शामिल किये जाने के बाद से ही अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के माध्यम से शिक्षा को भूमंडलीय पूंजी के लिए खोलने का दबाव पड़ रहा है. पिछली सरकार भी यही करना चाहती थी और य़फवाईयूपी थोप दिया था. जिस तरह टाडा की जगह उसकी नकारात्मकताओं को परिवर्धित करके पोटा लाया गया उसी तरह य़फवाईयूपी के सारे शिक्षाविरोधी प्रावधानों को परिवर्धित करके उससे भी 2 कदम आगे मौजूदा सरकार ने सीबीसीयस थोप दिया. विश्वबैंक के निर्देश पर बनी मौजूदा शिक्षानीति इसका ज्वलंत उदाहरण है. यह सब्जबाग दिखाती है व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का, मकसद है युवाओं को तोता तथा भेंड़ एवं शिक्षकों को आज्ञाकारी चरवाहा बनाना. चुनाव आधारित क्रेडिट व्यवस्था (च्वायस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम) का घोषित उद्देश्य है विद्यार्थियों को बहुयामी वहुवैकल्पिक   विषयों से अवगत कराना तथा गतिशील बनाकर भूमंडलीय स्तर पर पहुंचाना. शिक्षाविदों के किसी विचार विमर्श के मानव संसाधन मंत्रालय तथा यूजीसी के अधिकारियों द्वारा कापी-पेस्ट पद्धति से तैयार किए गये प्रावधानों तथा पाठ्यक्रमों को ध्यान से देखने पर कथनी-करनी के अतर्विरोध की गूढ़ता साफ दिखती है. मसलन राजनीतिशास्त्र में हानर्स की डिग्री हासिल करने वाले विद्यार्थी 18 के बदले राजनीतिशास्त्र के 14 पाठ्यक्रम पढ़ेंगे. जो नहीं पढ़ेंगे उनमें भारत में उपनिवेशवाद तथा राष्ट्रवाद शामिल है. विद्यार्थी यह न जाने कि एक व्यापारिक कंपनी मुगल दरबार से व्यापार की अनुमति लेकर मुल्क में घुसी तथा किस तरह मीर जाफरों, रामनारायणों, सिंधियाओं, निजामों, पेशवाओं की मदद से 200 साल तक देश को गुलाम बनाकर लूटती रही. यह भी न जानें कि लोग लूट का तर्क समझने लगे और उसे खत्म करने के लिए जान लड़ा दिए. अगर वे औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की गूढ़ता समझ लेंगे तो हजारों कंपनियों से निवेश के सरकारी समझौतों के निहितार्त भी समझने लगेंगे. उदारवादी, औपनिवेशिक साम्राज्यवाद तथा नवउदारवादी भूमंडलीय साम्राज्यवाद में खास फर्क यह है कि अब लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सिराजुद्दौला भी मीरजाफ़र बन गये हैं.

प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लैटो की कृति रिपब्लिक तथा उनकी संस्था अकेडमी को यूरोपीय तथा अब सार्वभौमिक शिक्षा पद्धति तथा विश्वविद्यालय व्यवस्था पद्धति की बुनियाद माना जाता है. रिपब्लिक को रूसो ने शिक्षा का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ कहा था. कथनी-करनी का यह अंतरविरोध भी तब से ही है. प्लेटो शिक्षा के बारे में कहता है कि शिक्षा का काम आत्मा की आंखों को प्रकाश दिखाना है, उसकी स्वतंत्र आध्यात्मिक गतिशालता को बाधित करना नहीं. यानि शिक्षा का आत्मा के आंतरिक गुणों के निखारने का माहौल प्रदान करना है, आत्मा अपना विषय तथा उसका रास्ता खुद खोज लेगी. लेकिन शिक्षा प्रणाली की रूपरेखा की शुरुआत में कह देता है कि बच्चे मोम की तरह होते हैं, जो आकार देना चाहो दे सकते हो और आत्मा की आंखों पर सेंसरशिप की पट्टी लगा देता है. यह लेख ऐतिहासिक संदर्भ में ज्ञान की अवधारणाओं पर चर्चा के माध्यम से सीबीसीयस की विसंगतियों को उजागर करने का एक प्रयास है.

मार्क्सवाद 15

Kanupriya अवैज्ञानिकता के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष के वास्तविक तथा आभासी दुनिया के सभी उपलब्ध मंचों का प्रयोग लगातार करते रहना है यह सोचकर कि न करके भी क्या करलेंगे. बात में दम है तो देर-सबेर असर होगा ही. कई बार प्रभाव इसना सूक्ष्म होता है कि आसानी से नहीं दिखता. करीब 1 दशक पहले हॉस्टल का वार्डन बना, कानूनी-गैरकानूनी मिलाकर करीब 2 दशक हॉस्टल में रहा हूं, उसमें से 1 दशक से ज्यादा जेयनयू में. मैंने अपने अनुभवों के आधार पर कई नये प्रयोग करना शुरू किया. मेरे पूर्वर्ती वार्डन ने कहा कि गधे को रगड़कर घोड़ा नहीं बनाया जा सकता. मैंने कहा कि मेरा काम है रगड़ना, क्या पता कोई बन ही जाय. खैर बच्चों को गधा कहने पर मैंने उनकी लंबी क्लास ले ली. सभी बच्चे बेहतर इंसान बनकर निकले. विचारों का असर तो पडता ही है, इसीलिए तो आस्था आधारित अवैज्ञानिक सामाजिक चेतना के रक्षक बौखलाहट में विचारक की हत्या कर देते हैं, जानते नहीं कि विचार मरते नहीं, फैलते हैं तथा इतिहास रचते हैं.

Thursday, September 17, 2015

THE HIGHER EDUCATION




THE HIGHER EDUCATION:  The New Education Policy and the new challenges

Ish Mishra

The summary 

·         The new educational policy and proposed reforms like CBCS, RUSA, Central Universities’ Act are steps towards conformity of the WTO demands commoditization, liberalization and privatization of education on the so-called developing countries and the least developed countries. It is to be noted that the WTO representing the interests of the imperialist global capital, has included education in GATTS as tradable service that needs to open for FDI. 
·        It is being implemented without due deliberation, discussion, feedback and consensus building amongst the stakeholders which are the students and the teachers of the university.
·        It is a direct attack on the character of university education, changing it from imparting knowledge to imparting know-how. This is an attempt to reduce knowledge to technical skill. 
·         In its current form it is simply rehashing of the FYUP system which has already been rejected and was rolled back because of various defects that however continue to persist in CBCS.
·        It proposes blanket homogenization of higher education across the country thereby robbing each university of its unique character. Any choice is therefore, only an illusion.
·         In its current form it is clear that it will lead to a dramatic fluctuation in the workload and therefore, instability of employment. This will lead to increasing contract system of employment, greater job insecurity and therefore poor quality of pedagogy.
·        The course curriculum, syllabi and methodology of teaching shall be prepared and implemented on the directions of the bureaucrats undermining the well established convention of debate discussions in course committees, departmental general bodies and statutory bodies like Executive Academic Councils that shall become redundant.  
·        With homogenization and standardization based on the level of most or average that would lead to deterioration of institutions of excellence and average shall not benefit due to the lack of capacity and resources.
·        It shall ruin the autonomy of the university as the intellectual center to generate innovative and revolutionary ideas.
·        It will transform the education into training that can take care of present problems but shall impede the development of imagery and insight, the intellectual material for future problems.
·         In its current form it is likely to lead to ‘mobility’ of teachers by way of punishment transfers rather than mobility of students by ‘choice’.
·        It will prove to be the last nail in the coffin of the University system envisioned to created fearless citizens equipped with the ideas and commitment to the creation of a just society.

Introduction

“The University Grants Commission (UGC) has initiated several measures to bring equity, efficiency and excellence in the Higher Education System of country. The important measures taken to enhance academic standards and quality in higher education include innovation and improvements in curriculum, teaching-learning process, examination and evaluation systems, besides governance and other matters.”[i]  

The above declaration of UGC like many pronouncements of the state establishments need not be taken at face value, as it is smoke screen, the reflection of the idea of the epoch, the dichotomous dualism of theory and practice.  In fact this has been the eternal contradiction of the history of the civilization itself that began with the beginning of the class division of the society into haves and have-nots. Capitalism being the most advanced class society and hence the contradiction of the praxis too is highly refined.  As Rousseau has aptly said that civility introduces duality one wants to look what one is not, as it has more to conceal than reveal. This duality is reflected in all the institutions of the system, including those of higher education. It never says what it does and never does what it says. The bourgeoisie came to power with the slogans of equality, fraternity but being based on the principles of individual profit maximization, as propounded by its most trusted organic intellectual, Adam Smith[ii], its very existence depends upon the opposite principles. It promises the sky and plunders the earth. The capitalism being the most advanced class system with the values of formal equality meant to perpetuate the existing real inequalities. The ideas of the ruling classes are the ruling ideas also, as Karl Marx has rightly said. The capitalism not only produces commodity but manufactures ideas also. He calls it the idea of the age[iii] -- the epochal ideology. It has been lucidly explained by Antonio Gramsci in his theory of hegemony[iv]. The unpleasant realities of this immanently innate contradiction of the system are euphemized and “managed” by the ideological apparatuses of the state – education in general and higher education in particular being the most important ones. The New Education Policy involving the Central University Act and CBCS kind of teaching program, if one analytically looks into the circulars and the notifications of UGC, MHRD and Delhi University, it becomes very clear that in the name of improving the standards of higher education, the government seeks to carry forward the WTO agenda of eventually total commercialization, commoditization and privatization of higher education, turning universities into shops, teachers into sales persons and students into clients[v]. This paper seeks to look into various aspects of proposed and/or imposed new education policy and its wider repercussions for the society in general and academics, entrusted (theoretically) to prepare fearless thinking citizens, capable of and courageous enough to stand against injustices, in particular. On the contrary notwithstanding the change in the government, as the protagonists of NDA and UPA compete in their loyalty to globalization agencies, there have been desperate attempts to introduce reforms as envisioned by the WTO to reduce the education to a tradable commodity and teachers the sales men and women to equip youth with skill and information to serve the system on the terms of the global capital. The last two-and-half a decades have witnessed mushrooming of private universities and colleges, owned mostly by builders and Real estate magnates, as like real estate, education is another most favorite sector of investment. In the opinion of the eminent Sociologist, Prof Satish Deshpande, if successfully imposed, the new education policy shall prove to be the last nail in the coffin of the higher education[vi]. Delhi University teachers and students have been continuously protesting demanding the withdrawal of the CBCS and the proposed draconian Central University Act. In Delhi University, Delhi University Teachers Association (DUTA) and various students’ organizations have been protesting against and demanding the withdrawal of the Choice Based Credit System (CBCS) as the program has led to academic degradation and "stultification of creativity" wherever it has been implemented[vii].  Few students’ groups conducted referendum among the University and the college students and 92% of them rejected it[viii].  I shall briefly deal with the changing perceptions of knowledge in a historical perspective; the motives of WTO in coercing the so-called developing countries to implement its designs; various aspects of the new policy and their repercussions for teachers, students and the pedagogy as a whole and conclude with the need of nationwide united struggle to save the higher education from the draconian policies.

The Knowledge: The Claim and the reality

Historically, the “knowledge” and its acquisition through education have been the prerogative of the elite of the society. Plato’s Republic is considered to be the foundational text of western political philosophy is also a foundational text of the education and his Academy[ix] as the precursor of the modern university system, which faces the serious danger of disintegration from its corpora takeover.  It has been rightly termed by Rousseau, as the “finest treatises on education ever written”[x]. Education occupies almost half of the text. Plato asserted that the knowledge is the virtue. Knowledge is comprehension of the Idea, the idea of Good and very few people are blessed with the ability to do so. What is good cannot be defined, can be dialectically known by the knowledgeable[xi].  Going into analysis of his definition of knowledge to be acquired through education is not subject of concern of this paper; it seeks to point out the continuity of contradiction of stated and indented goals of education. Plato begins with the assertion that the mind is not passive but ever active and gets attracted to its subjects on its own and that the teacher must not intervene in or impede the spiritual activity. The children have internal qualities, the education need not instill anything externally but just create conducive conditions for their exploration. The mind has eyes the task of education is just to make the things sightable. This means the education must provide the exposure to discover and refine one’s innate qualities. But immediately takes a diametrically opposite turn at the very outset of charting out the education scheme. With strict censorship and state regulated course structure and strict discipline puts   blinker on the eyes of the mind as the children are like wax, one can give it the shape one wants to[xii].  

Stated goal of the modern education system is all round development of the students by providing the favorable conditions, exposures and the guidance to realize and channelize their creative energies but before even they are 5, the parents and teachers start transforming them into obedient parrots. Instead of reminding them that humans began to distinguish themselves by application of mind and provoke them into unceasing application of mind but the education instead blunts it. It does not seek to impart knowledge but to equip students with information and skill necessary to maintain the statuesque. But the flight of the mind can be impeded but not stopped. The autonomy and freedom of higher education provided some scope of scientific knowledge and hence the ruling classes want to put a brake to it. Hence is the new education policy. The continuity of sets of innovative, thinking and rebelling individuals is not due to but despite education. The annual system provided better scope for politicization discourses and debates. Now the new policy aimed at absolute commercialization is an attempt to further scuttle the knowledge process. It must be opposed tooth and nail before it inserts the last nail in the higher education.


WTO and Education reforms

The countries of the world are classified by WTO as Developed, Developing and Least Developed. Economic inequalities among countries referred to as ‘developed’ and ‘developing’ are a product of the imperialist exploitation of the latter by the former. WTO was constituted to protect the interests of the developed countries at the cost of the developing world. Developing countries like India joined WTO for the benefit of its corporate houses and promising subsequent ‘trickle down’ benefits for the people. In the last two decades, WTO agreements have aggravated the class and social inequalities (caste, ethnic, gender, disability-related, linguistic) in all countries. Now with inclusion of education in GATS since 1995, if India signs and it will as it is willing to; the field of education will met the same fate.  Three Integrated Multilateral Agreements: General Agreement on Trade and Tariff (GATT-1994) which includes Agreement on Agriculture, Trade-Related Intellectual Property Rights (TRIPS) and General Agreement on Trade in Services (GATS), together constitute the main body of WTO. Education, reduced to one of the tradable services, is brought under GATS. Ironically, the trade in education is governed by GATS Council (Council for Trade in Services) in the same way as recreation clubs and night pubs, under the same set of rules but with some variations due to domestic regulations of member-nations! The ‘offers’ and ultimately the ‘commitments’ in ‘Market Access’ are to be given by a member country in Mode-wise and Sector-wise format for the operation of GATS in the country[xiii].
GATS categorize   ‘Education Service’ into 5 sub sectors – Primary, Secondary, Higher, Adult and Other Education. The Indian government submitted ‘offers’ in Higher Education Sub-Sector. GATS also recognizes four modes of trade in all services. In higher education, they would work as Cross Border Supply, where the students receive correspondence education from a foreign supplier and pay the service charges, Consumption Abroad where the students go to a foreign land to receive education and pay service charges, Commercial Presence, where the foreign providers can establish universities and colleges here, provide service and collect service charges, and Presence of Natural Person, where the foreign teachers come to India to render service in institutions and collect service charges[xiv].Foreign universities are coming to India under global trade agreement to make profits. it is not mandatory that only well-established, good-quality foreign universities come here and provide comparable education and research facilities. Any provider can establish a new sub-standard university in the country of origin and then establish a branch here. Actually, a survey report published by World Bank in 2000 on foreign educational providers states that “well-known universities of developed countries established low-standard branches in backward countries”[xv]. The Indian students would be customers, foreign individuals get remuneration and foreign corporate houses earn profits. the greatest misfortune would be the reduction of education to a tradable service, a trade controlled by the global corporate forces[xvi]. The worst thing is that the agreement would be, in essence, irrevocable!
The Specific features of the new education policy
Few of the specific features of the CBCS and proposed Central Universities Act are: homogenization at the cost of the particularities of the variation; Incorporation; Statist; centralization. The proposed changes shall not only affect all the aspects of the higher education only but would have serious implications on the society as a whole and its intellectual culture. It is to be noted that there was no debate on the shortcomings of the system being replaced by new one, nor is demanded by teachers, students or parents, rather they have been opposing it. It is been imposed from above by the government to fulfill its obligation to the corporate oligarchy of global capital represented by WTO that seeks to stop the formation and flow of the ideas on the one hand and make the education a profitable business for the corporate on the other hand. It would make education a costly affair and the poor shall swell the reserve army of uneducated work force. It shall effectively make reservation redundant as far as the poor of the country is concerned.
It is to be noted that course contents and methodologies of teaching shall not be decided after prolonged discussion and debates among the educationists, as has been the practice but by the clerks and bureaucrats of the UGC and the MHRD. Hurriedly prepared programs and immediate implementation show desperation of the government as in case of desperation of dispossession of peasantry by land ordinances and raises serious doubts on the intentions of the government. It seeks standardization of not only curriculum but also the syllabi. The idea of the mobility of the students and choices are just a deception as the students do not get admission in desired courses not because of lack of uniformity but lack of seats and facilities. With the courses and policies being the prerogative of the bureaucracy, the role of teachers shall be reduced to messengers of the government instead of that of knowledge providers. The students’ mobility is a deception but CUTA will introduce transfer of the “erring” teachers as a threat to “correct” them[xvii].   
One of the matters of the concern is dilution of the courses and omission of some papers critical of corporate interests. For example Honors course in Political Science has 14 in place of 20 papers.   The omitted papers include   colonialism and nationalism in India. The students should not know the fact that one trading company sought Mogul emperors’ permission to trade in India and continued plundering and oppressing the country for 200 years otherwise they might suspect the intention of the government that is inviting so many giant companies for “making in India” and might take inspiration from the nationalist movement.
What is more disturbing is the near indifference of the people, particularly the stake holder – the students and teachers, though the real stake holder is the society itself. A section of middle class is under the illusion of its being job oriented and would be means to social mobility. Most of the teachers and students are convinced that the new policies are disastrous for the university system, yet there seems to be fear to fight whereas fearlessness is task of education, theoretically. We the teachers and the students are not realizing that security lies in unity and struggle not in fear and submission. Before that semester system was imposed, though with the formality of due process but the FYUP (Four year undergraduate program) in Delhi University under UPA regime was forced on the students in violation of the established norms and convention of debate and discussions by various teachers’ bodies, General Body meetings of department teachers, feedback from the colleges etc. in the same manner with the similar hurry and desperation.   Courses were prepared by at random cut-paste method from the semester system that too was imposed despite protests by teachers and the students of Delhi University. That has been rolled back by NDA government under the pressure of resistance by students and teachers, was not outcome of any protracted discourse and debate among the stakeholders, i.e. teachers and the students but of whims of an authoritarian vice chancellor[xviii]. The CUTA and CBCS in place of FYUP is like replacing TADA with POTA or POTA with UAPA[xix].   
We are passing through the darkest days of the academic history of independent India. Macaulay had said in the British parliament in 1833 while advocating the introduction of English education in India that successful implementation of our education will enable the British to rule over India without physical presence[xx].   How right he was! If you want to subordinate a people, pervert their education. Let us rise and stop this menace.
Ish Mishra
17 B, University Road,
Delhi University
Delhi 110007
September, 2015  




[i]  Preamble of UGC circular
[ii] Wealth of nations, Historical progress is inadvertent consequence of the profit making activities by individuals.
[iii] German Ideology
[iv] The Prison Notebook
[v] GATS 1996, 2005
[vi] JANSATTAA, 07 May 2015
[vii]  A note on protests
[viii] NEWS PAPERS and a note 
[ix] Note
[x] Rousseau
[xi] Republic
[xii] Ibid
[xiii] hastakshep
[xiv] ibid
[xv] WB REPORT
[xvi] Note
[xvii] Note
[xviii] Dinesh
[xix] Note
[xx] Note 

Tuesday, September 15, 2015

मार्क्सवाद 14

झा जी, पांडेजी, मिश्रा जी फलना-ढमका जी, आरक्षण खैरात नहीं संवैधनिक अधिकार है. यह हजारों साल की वंचना की आंशिक भरपाई है. 51 फीसदी है तो आपको कंपीट करने के लिये और 4 नंबर ज्यादा पा जाने से आप ज्यादा प्रतिभाशाली नहीं हो गये. तथा कथित प्रतिभाशाली शिक्षकों तथा अारक्षण से आये शिक्षकों में तुलनात्मक अध्ययन करियेगा तो पाइयेगा कि दूसरी कोटि वाले ज्यादा संजीदगी से पढ़ाते हैं. मौका मिला है तो वे साबित करना चाहते हैं। कामचोरी में प्रथम कोटि का प्रतिशत ज्यादा है तथा जातिवादी सोच का भी. अन्य नौकरियों में तो यससी/यसटी/ओबीसी जनरल कैटेगरी चुने जाने से 49% से ऊपर भी जा सकते हैं. दिवि में सब कटेगरी के अलग-विज्ञापन अाते हैं तथा अलग इंटरविव. जनरल में इंटरविव दे सकते हैं, लेकिन चुने लगभग न के बराबर जाते हैं. यह मुझे लगता है गैरकानूनी है. मेरी चिंता आरक्षण का निष्प्रभावी होना है.विश्व बैंक को निर्देश पर बन रही नई शिक्षा नीति का मकसद, शिक्षा का पूर्ण व्यापारीकरण. पैसा फेंको-तमाशा देखो. सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण तथा सरकारी नौकरियों में ठेकेदारी प्रथा का समावेश आरक्षण को अप्रासंगिक बना रहा है. सारे सरकारी संस्थानों में चतुर्थ श्रेणी के सारे कर्मचारी ठेके पर नियुक्त किये जा रहे हैं. इसीलिये जरूरत ब्राह्मणों को गाली देने से अधिक कॉरपोरेटीकरण का विरोध है, भूमि अधिग्रहण से किसानों की बेदखली तथा नई शिक्षा नीतियों के विरुद्ध लामबंदी की जरूरत है. भूमंडलीय पूंजी का वफादार निज़ाम चुनावी विवशताओं के चलते आरक्षण के प्रावधानों से छेड़-छाड़ किये बिना उन्हें अप्रासंगिक बना देना चाहता है.

Sunday, September 13, 2015

प्रो. कलबुर्गी की शहादत



प्रो. कलबुर्गी की शहादत: कट्टरपंथ की बौखलाहट
ईश मिश्र
30 अगस्त को धारवाड़ में प्रोफेसर मल्लेशप्पा मदिवलप्पा कलबुर्गी की हिंदू तालिबानों द्वारा कायराना हत्या, अंध-आस्था तथा विवेक के द्वंद्व की अनादिकाल काल से चली आ रही प्रक्रिया की ताजी कड़ी है. विवेकजन्य तर्कशीलता से अंध-आस्था आहत महसूस करती है तथा आस्था के रखवाले बौखलाहट में विचारक की हत्या कर देते हैं, वे जानते नहीं कि विचार मरते नहीं फैलते हैं तथा इतिहास को दिशा देते हैं. हंपी विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके, लेखक, कवि, शोधकर्त्ता कलबुर्गी की ख्याति प्रांतीय-राष् से अंतरराष्ट्रींतरराष्ट्रीय हो गयी. दुनिया के तमाम शहरों में प्रतिरोध मार्च तथा प्रतिरोध सभाएं आयोजित हुईं. कन्नड़ के कवि तथा नाटकर कार, जवाहरलाल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, यचयस शिवप्रकाश के अनुसार, प्रो. कलबुर्गी, पूर्वाग्रहों से मुक्त, खुले दिमाग के, एक विशाल हृदय, प्रगतिशील इंसान थे, परिणाम की परवाह किए बिना अप्रिय सत्य कहने का साहस करते थे . इसके पहले डाभोलकर तथा गोविंद पनसरे की हत्याएं भी अंध आस्था, अंधविश्वास तथा निराधार कुतार्किक सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध खुल कर बोलने-लिखने के कारण इन्ही बददिमाग हिंदुत्ववादी तालिबानों ने किया. चिंतक यूयस अनंतमूर्ति की मृत्यु पर जश्न मनाने वाले हिंदुत्ववादी तालिबानों, कलबुर्गी की हत्या के बाद एक अन्य तर्कवादी लेखक को चिन्हित कर उन्ही की परिणति की धमकी दी है. सरकारें न तो अभी तक डोभालकर के हत्यारों को पकड़ पाई है न गोविंद पनसरे के हत्यारों को. कलबुर्गी के हत्यारों के पकड़े जाने की उम्मीद कम है. लेकिन क्या कलबुर्गी को गोली मारने वाला ही कलबुर्गी का असली हत्यारा है? कलबुर्गी की हत्या इसलिए नहीं की गयी कि उनसे किसी की निजी दुश्मनी थी या उनकी किसीसे निजी दुश्मनी थी. उनकी दुश्मनी प्रतिगामी सामाजाजिक मूल्य-मान्यताओं, 12वीं शताब्दी के दर्शनिक बासव की शिक्षा की गलत व्याख्या से थी. ल्लेखनीय है कि बासव का दर्सन प्रो. कलबुर्गी के शोध का प्रमुख विषय रहा है. इसीलिए धार्मिक अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों का सहारा लेकर लोगों की धार्मिक भावनाओं के शोषण की सियासत करने वाली हिंदुत्ववादी ताकतों की आंख की किरकिरी बने हुए थे. उन्हें धमकियां भी मिलती थीं. सरकार ने सुरक्षा मुहैया कराया. उन्होने लौटा दिया था. सत्य का अन्वेषी निर्भीक होता है, न भगवान से डरता है न मौत से. उन्होने सुरक्षा लौटा दिया. दाभोलकर तथा पंसारे की शहादत का भी मुख्यतः यही कारण है. बांग्लादेश में इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा वहां के तर्कवादी ब्लॉगरों की हत्याओं के पीछे भी यही कारण हैं. वैचारिक दिवालियेपन की शिकार, अंर्निहित तनाशाही प्रवृत्तियों वाले दल तथा समूह जो लोगों की धार्मिक, जातीय, नस्लीय, राष्ट्रीय भावनाओं के शोषण से जनविरोधी राजनीति को अंजाम देते हैं,  वे  विचारों से खुद को बेनकाब़ होते देख, घबराकर, बौखलाहट में विचारक की हत्या कर देते हैं. लेकिन विचार मरते नहीं, फैलते हैं. अमर रहेंगे कलबुर्गी अपने विचारों में, चार्वाक, सुकरात, गैलेलिओ की तरह.

28 नवंबर 1938 को जन्मे जाने माने साहित्यकार और शोधकर्ता, हम्पी के कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रोफेसर कल्बुर्गी ने अपने लंबे शैक्षणिक जीवन में 103 किताबें और 400 से अधिक शोध आलेख लिखे. साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, प्रो. कलबुर्गी की पुरातत्वविज्ञान तथा पुराने अभिलेखों में विशेष रुचि थी. दर-असल इन ताकतों का मकसद पोंगापंथ तथा धर्मांधता के विरोधी, विवेकशील बुद्धिजीविओं को डराना है. लेकिन कलबुर्गी की शहादत के प्रतिरोध में देश के कोने कोने में हुए प्रतिरोध कार्यक्रम इस बात के गवाह हैं के सत्य के पक्षधर डरते नहीं. अपनी रचनाओं में मूर्तिपूजा के निरंतर विरोध के चलते वे निरंतर हिन्दू कट्टरपंथी संगठनों के निशाने पर थे. 1989 में उनकी लिखी एक पुस्तक में लिंगायत मत के संस्थापक संत बसवेश्वर (जिन्होंने स्वयं अंधश्रद्धाजाति-प्रथासाम्प्रदायिक और लैंगिक भेद-भाव के विरुद्ध 12वीं सदी में ही युद्ध छेड़ा था) के जीवन-प्रसंग से सम्बंधित दो अध्यायों को उन्हें कट्टरपंथियों के दबाव में वापस लेना पड़ा था. इस घटना पर व्यथित होकर उन्होंने इंडिया टूडे  को दिये इंटरविव में कहा था, मैंने अपने परिवार की सुरक्षा के लिए यह कियालेकिन इसी दिन मेरी बौद्धिक मृत्यु हो गयी. कलबुर्गी खुद लिंगायत थे तथा वचन (दार्शनिक बासव की शिक्षा का साहित्य) के जाने माने विद्वान लेकिन ग्रंथों की उनकी व्याख्या लिंगायतवादियों को नागवार लगी.    

2014 में कर्नाटक में अंधश्रद्धा विरोधी विधेयक’ पर बहस में प्रो कलबुर्गी के मूर्ति-पूजा विरोधी विचारों से क्रुद्ध विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल से उन्हें धमकियां मिलने लगी थीं. अनंतमूर्ति पर जब हमले हो रहे थे तब भी कल्बुर्गी उन लेखकों में शामिल थे जिन्होंने मुखर होकर उनका पक्ष लिया. कुछ समय तक उन्हें पुलिस सुरक्षा भी सरकार ने उपलब्ध कराई थी. लेकिन लगातार धमकियों के बावजूद यह सुरक्षा हटा ली गई और इसके तुरत बाद पिछले रविवार को सुबह सुबह उनके घर के दरवाजे पर दो युवकों ने उनके सर में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी. ज़ाहिर हैदेश में एक तरफ दुनिया भर से पूंजी आ रही हैनई नई तकनीक आ रही हैहर चीज़ डिजिटल हुई जा रही हैवहीं दूसरी तरफ असहिष्णुता बढ़ती चली जा रही है और तर्क तथा विज्ञान के प्रति अवज्ञा इस स्तर की है कि वैचारिक असहमति का जवाब लिखकर देने की जगह गोली से दिया जा रहा है. 1962 के फ्रांस के प्रसिद्ध छात्र आंदोलन को याद कीजिये जब वहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति के सामने आंदोलनों में बेहद सक्रिय सार्त्र की गिरफ्तारी का प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने कहा, “नहींसार्त्र फ्रांस की चेतना हैउसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता.’’ इसके उलट आज हमारे देश में जब सबसे उन्नत मेधाओं की चुन चुन के हत्या हो रही है. अच्छे दिनों की अगली कडियों के और भयानक होने के ये संकेत हैं. आवाम को लंबे संघर्ष के लिए तैयार रहना है.


कलबुर्गी लिंगायतों के धार्मिक कर्मकांडों तथा रूढियों के साथ साथ लिंगायतमठ के भी विरुद्ध थे जिस पर वे वासव की विचाऱधारा को विकृत करने का आरोप लगाते थे. इसके अलावा कलबुर्गी अखिल भारतीय वीरशैव सभा जैसे संगठनों की, वैदिक परंपरा से अलग मूल के आधार पर, हिंदू धर्म से अलग अल्पसंख्यक समूह के रूप में मान्यता की मांग के भी समर्थक थे. लंबे समय से लिंगायतों के निशाने पर रहे कलबुर्गी यूआर अनंतमूर्ति का समर्थन करने के बाद से हिंदुत्ववादी कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गये. गौर तलब है कि अनंतमूर्ति द्वारा बचपन में आत्मा की मूर्ति पर पेशाब करने की स्वीकारोक्ति के बाद से ही उन्हें संघपरिवार से धमकियां मिलने लगीं थी तथा उनकी मृत्यु पर संघपरिवारियों ने मिठाई बांट कर जश्न मनाया था. आश्चर्य होता है कि क्या हम विवेकशील युग में जी रहे हैं. प्रो कलबुर्गी की हत्या एक व्य्क्ति ही हत्या नहीं यह शैक्षणिक तथा विचारों की स्वतंत्रता तथा अभिव्यक्ति के अधिकार पर हमलों का सिलसिला है जिसके रुकने के नहीं बढ़ने के आसार नज़र आ रहे हैं. दक्षिणपंथी हमले बढ़ रहे हैं, दुनिया की जनवादी ताकतों को एकजुट होकर सामना करने की जरूरत भी बढ़ गयी है.     

Saturday, September 12, 2015

मार्क्सवाद 13

रामायण , महाभारत, मनुस्मृति में जिन्हें नास्तिक कह कर बहिष्कार की बात की गई है ये उनमें से ही हैं जिन्हे वेद पढ़ने का अधिकार था -- चारवाक लोकायत परंपरा के भौतिकवादी. चारवाक ने कहा था तीनों वेदों (चौथे की रचना तब तक नहीं हुई थी) के रचइता भांड़, धूर्त तथा निशाचर थे. जिन्हें वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था वे बिना पढ़े वैदिक व्यवस्था का पालन करते रहे जैसे हम सब बिना समझे ही सुनकर सत्यनारायण की कथा का पुण्य पा लेते हैं. इसे ग्राम्सी के वर्चस्व के सिद्धांत से बेहतर समझा जा सकता है. सामाजिक विकास के उस चरण में सामाजिक चेतना का स्तर ऐसा नहीं था कि वैकल्पिक वेद रचते, जिसकी शुरुआत कबीर ने किया तथा फुले-अंबेडकर उस प्रक्रिया की प्रोन्नत कड़ियां हैं.

बंद करो अब देखना हाथों की रेखाएं

बंद करो अब देखना हाथों की रेखाएं और आसमान के तारे
टांको लाल फरारे में प्यार के कुछ सुंदर लाल सितारे
तोड़कर मैं और तुम की सीमाएं और वर्जनाएं बनो एक हम
महसूसो पारस्परिकता अनूठा सुख और अदम्य दम
बंदकर देखना पीछे बढ़ो आगे लिए हाथों में हाथ
होगी मंजिल कदमों में चलेंगे ग़र साथ साथ
(बस ऐसे ही-- प्रातकालीन बौद्धिक आवारगी)
(ईमिः 12.09.2015)

जेंडर विमर्श 2

Kanupriya समाज लार टपकाने की आज़ादी नहीं देता बल्कि संस्कृति तैयार करता है जो सेक्सुअलिटी की विकृत समझ पैदा करती है . जनतांत्रिक संस्कृति तथा सेक्सुअलिटी की पारस्परिकता की समझ से लार टपकाने वाली मर्दवादी संस्कृति पर रोक लगाई जा सकती है. सार्वजनिक स्थानों पर स्त्रियों की मुखर उपस्थिति में वृद्धि से इस प्रवृत्ति में कमी आती दिखती है. बदलाव मात्रात्मक ही है, गुणात्मक नहीं, वह तब होगा जब विचारधारा के रूप में मर्दवाद का मरशिया पढ़ा जायेगा.

नारी विमर्श 5

Kanupriya​ सही कह रही हैं. स्त्री देखते लार टपकाने की पुरुषों की प्वृत्ति कुंठाजन्य है.  कई बार व्यक्ति अपनी स्वार्थी योजनाओं का खुद शिकार हो जाता है तथा स्वार्थ की जहालत में आत्मघाती बन जाता है. जहालत के अधेपन में  अपनी क्षति का अंदाज भी नहीं लगा पाता. मेरी सुविचारित राय में सेक्सजन्य कुंठा तथा यौनिक हिंसा का मूल कारण सेक्स तथा परिवार के बारे में स्थापित, प्रतिगामी  (मर्दवादी) अवधारणाएं तथा तथोचित मान्यताएं हैं. सभी जीवों में सामान्य रूप से नैसर्गिक  गुण की तरह विद्यमान संभोग तथा प्रजनन की प्रवृत्ति को मनुष्यों ने  रहस्यमय बनाकर उसके इर्द-गिर्द तमाम ऊल-जलूल मिथ और मिस्टिसिज्म खड़ा करके सेक्स जैसी सामान्य पारस्परिक बात का हौवा खड़ा कर दिया.  सेक्स की मर्दवादी अवधारणा त. सेक्स संबंधी सारी निषिद्धियों तथा वर्जनाओं का मकसद, मेरी समझ से, स्त्री की सेक्सुअटी पर नियंत्रण के माध्यम से व्यक्तित्व पर नियंत्रण है. मर्दों की कुंठा इसका अनचाहा उपपरिणाम है. हमें एक ऐसी संस्कृति रचनी है जिसमें हर कोई स्त्री-पुरुष होने से पहले इंसान है, एक समान आजादी के अधिकार की समानता के साथ. 

Friday, September 11, 2015

ये शहर इलाहाबाद

ये शहर इलाहाबाद
कभी मेरा भी अजीज़ शहर होता था  
इसके घाट, गली-कूचों से था खास रिश्ता सा 
निरंतर बदलाव है मगर प्रकृति का साश्वत दस्तूर
होता भी है किशोर मन में नए की कल्पना सुरूर 
बदलता रहा मैं अंदाज़-ए-आवारगी में
बनते रहे अजीज और नये नये शहर 
चलता रहा भटकता भी रहा
मुकाम-दर-मुकाम मंजिल-दर-मंजिल
हक़ीकत की तलाश और उसे बदलने के प्रयास में
दिल तो कचोटता ही है छूटती है जब कोई जगह
जिया हो जहां ज़िंदगी के अनंत हसीन लम्हे
 तैर जाती हैं आंखों में तमाम यादें तमाम बातें
जीवंत हो उठती हैं दृष्य-दर-दृष्य 
श्याम बेनेगल की किसी फिल्म की रील की तरह
जैसे शांत पोखर में हलचल पैदा कर दी हो किसी ने
फेंककर एक छोटा सा कंकड़ 
शहर छूटने का थोड़ा मलाल जरूर था
मन में मगर 
नई जगह के नए ज़ोख़िमों की कल्पना का सुरूर था
अब भी अज़ीज है ये शहर इलाहाबाद
है जिसमें जरूर कोई खास बात
जब भी इस शहर में जाता-आता
कभी नहीं खुद को अजनबी पाता
लगते नहीं कभी अजनबी शहर के तेवर औ जज़्बात
बदली है साजोसज्जा बदले हैं भूगोल और इतिहास  
बदला नहीं शहर का मगर सामंती मिजाज़ 
नाटक वही है बस बदल गये हैं कुछ किरदार 
होता नहीं एक ही किसी शहर का मिजाज़
निकलती है उसी में से ही विद्रोह की भी आग
आओ डालकर घी इसमें फैलाएं इंकिलाबी ज्वाला
दुनिया का मेहनतकश हो जिसका रखवाला
आओ  मिजाज इस शहर का बदल दें
दुनिया में इसको इक मिशाल बना दें,
(पहली 2 पंक्तियां ही लिखना चाहता था बाकी ऐसे ही लिखा गयीं)
(ईमिः 12.09.2015)

क्षणिकाएं 52 (731-740)

731
न हिंदू धर्म खतरे में न ही इस्लाम खतरे में
न गीता है खतरे में न ही कुरान खतरे में
न भगवान खतरे में न ही अल्लाह खतरे में
इनके खतरों से है अमन-ओ-चैन खतरे में
(ईमिः21.07.2015)
732
हमें लड़ना ही है साथी क्योंकि लड़ने की जरूरतें बढ़ती जा रही हैं
हमें लड़ना है कलम की आज़ादी के लिए
हमें लड़ना है पाश की शहादत की हिफ़ाजत के लिए
हमें लड़ना है कलबुर्गी की विरासत को बढ़ाने के लिए
कलम से भयभीत कायर कट्टरपंथ को ये बताने के लिए
कि तोड़ोगे जब भी मेरा कलम और मुखर होगा तुम्हें और डराने के लिए
हमें लड़ना है न डरकर डर को डराने के लिए
लड़ना ही है समता के सुख का जश्न मनाने के लिए
(जन्मने की प्रतीक्षासूची में एक और अजन्मी कविता का इजाफा)
(ईमिः 11.09.2015)
733
हम मुल्क के दानिशमंद हैं
पाबंद नियम-कानून के
पैबंद नये निज़ाम के
दुश्मन नैतिकता के खोखले पैगाम के
हम सोने की कुर्सी के हक़दार
संस्कृति के हम पहरेदार
कथनी-करनी का साश्वत अलगाव
मजबूत करता उनका सैद्धांतिक लगाव
हम विमर्श में दक्ष हैं
बोलना हो चाहे पक्ष मे चाहे पक्ष विपक्ष हो
पक्ष-विपक्ष माया है वफा के आराध्य के समक्ष
जिनकी खायेंगे गुण भी तो उन्हीं का गायेंगे
बदलता है जैसे ही परवरदिगार
बदल जाता है हमारे दिल का उद्गार
प्रभु तो व्यापारी हैं हम हैं महज शिल्पकार
बाजार की मांग पर हम गढ़ते विचार
शिल्पकार से बन गये व्यापारी
दोगलापन तो व्यवस्था का अभिन्न अंग है
हम तो बस निर्धारित आचरण के पाबंद हैं
(एक अजन्मी कविता की भूमिका)
(ईमिः24.07.2015)
734
युवा साथी, शालू 'मिताक्षरा'​ की घास काटती औरत पर एक सुंदर कविता पर तुकबंदी में यह कमेंट लिखा गया.

पैनी हो रही है तुम्हारे लेखनी की धार
लाती रहो इसमें निखार लगातार
शब्दो से गढी घास काटती औरत की यह तस्वीर
करती निराला की पत्थर तोड़ती नायिका सी तकरीर
होगी तेज जिस दिन धार खुरपे की
बुनियाद हिल जायेगी शोषण के किले की
बनेगा उसका पल्लू इंक़िलाबी परचम
जुमलों की लफ्फाजी हो जायेगी बेदम
होगा तब खुरपा और कलम का  संगम
बनेगा जो  उमड़ती नई धारा का उद्गम
करेगी यह औरत नाइंसाफी पर निर्णायक वार
साथ होगा खुरपे के जब कलम का उद्गार
बनेगी जब इस भावी संगम की पेंटिंग
कम कर देगी दि'विंची के मोनालिजा की रेटिग
( तुम्हारी इस रचना ने तुकबंदी से मेरा सन्यास तुडवा दिया, वैसे भी किसी चीज से स्थायी सन्यास नहीं लेना चाहिये)
(ईमिः 15.08.2015)
735
मिली थी जो आज़ादी बांटकर इतिहास
भूमंडलीकरण में खो गया उसका भी आभास
थोड़ा अलग हैै पुराने से नया साम्राज्यवाद
लॉर्ड क्लाइव है इसका कॉरपोरेटी राष्ट्रवाद
वैसे भी जरूरत नहीं अब किसी क्लाइव की
मीर जाफर बन गये राष्ट्रवाद के सिपाही
करेगा इंसाफ की बात ग़र भूतपूर्व सैनिक
लाठी-गोली से तोड़ी जाती उनकी सनक
मांगेगा भड़ाना का दलित अगर पुनर्वास
करेगा नहीं राष्ट्रवाद बर्दाश्त ये बकवास
सिखाया था अंग्रेजों ने बांटो राज करो का मंत्र
चारचांद लगा रहा उस पर राष्ट्रवाद का तंत्र
करेगा कश्मीरी या नागा ग़र आज़ादी की बात
होगा घायल मुल्क का राष्ट्रवादी जज्बात
देता है राष्ट्र तब सेना को विशेष अधिकार
मारने को आज़ादीवादी नहीं वारंट की दरकार
कर सकते हैं सैनिक किसी का बलात्कार
होता नहीं विद्रोही का कोई मानवाधिकार
है कोई आतंकवादी यदि असीमानंद
दिलायेगी सरकार उसको जमानत
करेगी तीस्ता ग़र हत्या-बलात्कार की मुख़ालफ़त
झेलनी ही पड़ेगी उसको सीबीआई की आफ़त
फाड़ता है बजरंगी जब गर्भवती का अंताशय
सलाम करते हैं उसे राष्ट्रवाद के पर्याय महाशय
करती है कत्ल औरत-बच्चे माया कोदनानी
बन जाती है महिला-बाल कल्याण की रानी
महिमा है राष्ट्रवाद की असीम और अपरंपार
महानता की है जिसके नहीं कोई आर-पार
हे जनमनगण अधिनायक भारत भाग्यविधाता
हो गये 68 साल मगर तेरा जादू पकड़ न आता
(ईमिः 15.08.2015)
736
एक अधूरी कविता

देवराज इंद्र नहीं पढ़ते इतिहास
नहीं है उनको नारी प्रज्ञा के प्रवाह की गति का अहसास
कि नहीं है नारी अब नारद के व्याख्यानों की अहिल्या
आखेट कर ले जिसका इंद्र सा कोई बहुरूपिया बहेलिया
बनती नहीं वह किसी मर्दवादी शाप से पत्थर
गौतमों की जमात को तर्क से करती है निरुत्तर
विवेक से करती है छल-फरेब तार तार
ज़ुल्फ के जलवे नहीं कलम होता है हथियार
नहीं चलाती वंकिम नयनों से छायावादी तीर
शब्दों से बनाती है धारदार दानिशी शमसीर
ललकारती है वह आज के देव-देवराजों को
मर्दवाद के सारे मानिंद सरताजों को
नारी चेतना का निकला है ये जो कारवाने जुनून
नष्ट करे देगा पति-परमेश्वरता के दंभ का शुकून
देगी समाज को समता के सुख की शिक्षा
अधिकार है आजादी न कि कोई भिक्षा
निकला है जो नारी चेतना का रथ
रुकेगा नहीं कठिन कितना भी पथ
सर्जक है सृष्टि की करेगी हिफाज़त
नहीं होगी अब खुराफात की इज़ाज़त
जुटाती ये शक्ति अमन चैन के लिए
शोषण-दमन को दफ्न करने के लिए
नहीं है ये किंवदंतियों की बेचारी नारी
बल-बुद्धि-साहस की है जीवंत पिटारी
वैसे तो शांति-सौहार्द से इसका स्वभाव लबरेज
मगर ईंट का जवाब पत्थर से देने में नहीं परहेज
नहीं है रीतकालीन कवियों की छुई-मुई कोई कल्पना
है ये अफलातून के गणराज्य की घुड़सवार वीरांगना
नहीं सुनती मनुवादी पति-परायणी बकवास
उल्टे देती मर्दवाद को निरंतर सांस्कृतिक संत्रास

(ईमिः 23.08.2015)
737
लाल किले से बोले वही बातें बंदानवाज
वही जुमले वही लफ्फाजी वही अंदाज
(ईमिः16.08.2015)
738
नहीं करते आकस्मिक वार कायरों की तरह
करते नहीं छुप कर आघात रामों की तरह
न है कोई दंभ ताकत का न ओहदे का अभिमान
मर-मिटते हम बचाने को कलम का स्वाभिमान
हमले के पहले हम करते हैं ऐलान-ए-ज़ंग-ए-आज़ादी की
मुक्ति चाहते निज का नहीं कायनात की पूरी आबादी की
छिपाके रखते नहीं आस्तीन में बघनख मिलते जब गले
सियासती जंग का रुख कितना भी बेमाफिक हो जाये भले
मकसद हमारा पाक है और साफ दुश्मन की पहचान
करते हैं इसीलिए जंग-ए-आज़ादी का मुखर ऐलान
ऐलान से ही सकते में आ जाता है कारपोरेटी दुश्मन
विचारों से डरकर बौकलाहट में करता विचारकों का हनन
जानता नहीं एक साश्वत सत्य यह कारिंदा-ए-कॉरपोरेट
मरते नहीं विचार उगते हैं धरती पर बन बीज अनेक
लगे ग़र कलम पर बंद दिमाग तालिबानी पहरा
मुल्क पर छाये ग़र ज़हालत का संकट गहरा
बढ़ जाती है ऐसे में लड़ने की जरूरत
बचाना है इतिहास को होने से बदसूरत
हम लड़ेंगे साथी बदलने को हालात
जीतेंगे चलेंगे जब लेकर हाथों में हाथ
हम लड़ेंगे क्योंकि बिना लड़े कुछ नहीं मिलता
हक़ के एक-एक इंच के लिए है लड़ना पड़ता
हम लड़ेंगे अत्याचार के सर्वनाश के लिए
हम लड़ेंगे एक शोषणविहीन समाज के लिए
हम लड़ेॆगे इंसानियत के पैगाम के लिए
हम लड़ेंगे साथी साथियों के साथ के लिए
हम लड़ेंगे
(ईमिः11.09.2015)
739
हमें लड़ना ही है साथी क्योंकि लड़ने की जरूरतें बढ़ती जा रही हैं
हमें लड़ना है कलम की आज़ादी के लिए
हमें लड़ना है पाश की शहादत की हिफ़ाजत के लिए
हमें लड़ना है कलबुर्गी की विरासत को बढ़ाने के लिए
कलम से भयभीत कायर कट्टरपंथ को ये बताने के लिए
कि तोड़ोगे जब भी मेरा कलम और मुखर होगा तुम्हें और डराने के लिए
हमें लड़ना है न डरकर डर को डराने के लिए
लड़ना ही है समता के सुख का जश्न मनाने के लिए
(जन्मने की प्रतीक्षासूची में एक और अजन्मी कविता का इजाफा)

(ईमिः 11.09.2015)
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फ़िजां पर सियासत-ए-जहालत का गहन लग गया है यारों
हवाओं पर हनुमानी तालिबानों का पहरा लग गया है यारों

(ईमिः11.09.2015)