16-17 फरवरी इलाहाबाद प्रवास के दौरान फेस बुक के 2 मित्रों (छात्रों को छोड़कर) प्रोफेसर हेरंब चतुर्वेदी और रानिश जैन से वास्तविक दुनियां मे मिलकर अत्यंत प्रसन्नता हुई, उससे भी अधिक प्रसन्नता सेमिनार में मेरी बातें सुनकर अगले दिन कई छात्रों ने मार्क्सवाद पर एक क्लास लेने का आग्रह किया और आधे घंटे में एमए और बीए के लगभग 2 दर्जन स्टूडेंट्स 4 बजे विवि अतिथिगृह पहुंच गये. और बिना मेरे थके और विद्यार्थियों के बिना पके चाय के साथ 7 बजे तक सहभागी क्लास हुई. मित्र कमल कृष्ण राय मे मिलते हुए 9.30 बजे प्रयागराज पकड़ना था. बिदा होते हुए मैं और "मेरे" स्टूडेंट्स दोनों को शायद इस गाने की याद आ रही थी कि अभी तो दिल भरा नहीं. सभी प्रतिभाशाली और जिज्ञासु, सीखने और इतिहास के गतिविज्ञान में अपनी भूमिका तलाशने को उत्सुक. हरविंदर के पास मोटर साइकिल थी उसने कमल के घर छोड़ दिया. य़ह इन बच्चों का उन शिक्षकों को करारा जबाब है जो रोते रहते हैं कि स्टूडेंट्स क्लास ही नहीं करना चाहते. यह अवसर प्रदान करने के लिए मैं "लोक मत, लोकहित और लोकतंत्र" सेमिनार के आयोजक -- युवा संवाद --का अतिरिक्त आभारी रहूंगा.
आनंद जी, आज की तारीख में कौन विवि पतनोन्मुख नहीं है? वहां भी बाकी जगहों की ही तरह शिक्षाविरोधी भ्रष्ट कुलपति नियुक्त होते रहे हैं. इसकी शुरुआत 1974-75 में राम सहाय नामक एक फासिस्य किस्म के नौकरशाह की नियुक्ति से हो गयी थी. कहां के प्रोफेसर शिक्षकों की नियुक्तियों को बाप की जागीर नहीं समझते? अभी मैं एक सेमिनार में गया था तो पता चला कि वहां कुछ "प्रयागराज " प्रोफेसर हैं जो दिल्ली में रहते हैं और यदा कदा प्रयाग राज से सबह आते हैं और शाम को चले जाते हैं. अभागे हैं. हमारे यहां भी कई अभागे हैं जो बहुत कम क्लास लेते हैं. ऐसे लोगों के बारे में सोचना पड़ता है कि इनका क्लास लेना विद्यार्थियों के हित में है या अहित मेें.
आशुतोष जी किसी को भी उस जगह से लगाव बना रहता हो जहां उसने जहां किशोरावस्था से युवावस्था मे पर्वेश किया हो लेकिन अंध-प्रशस्ति आत्मघाती होती है. छात्रों ने ही प्रयागराज प्रोफेसरों के बारे में बताया. बहुत से प्रोफेसर पढ़ाते नहीं और छात्र राजनीति लंपटता का पर्याय बन गयी है, छाज्ञशंघ संघर्ष के मंच से दलाली का अखाड़ा बन गया है, छात्र जागृत और आंदोलित न हुए तो स्थितियां बदतर होंगी.
आनंद जी, आज की तारीख में कौन विवि पतनोन्मुख नहीं है? वहां भी बाकी जगहों की ही तरह शिक्षाविरोधी भ्रष्ट कुलपति नियुक्त होते रहे हैं. इसकी शुरुआत 1974-75 में राम सहाय नामक एक फासिस्य किस्म के नौकरशाह की नियुक्ति से हो गयी थी. कहां के प्रोफेसर शिक्षकों की नियुक्तियों को बाप की जागीर नहीं समझते? अभी मैं एक सेमिनार में गया था तो पता चला कि वहां कुछ "प्रयागराज " प्रोफेसर हैं जो दिल्ली में रहते हैं और यदा कदा प्रयाग राज से सबह आते हैं और शाम को चले जाते हैं. अभागे हैं. हमारे यहां भी कई अभागे हैं जो बहुत कम क्लास लेते हैं. ऐसे लोगों के बारे में सोचना पड़ता है कि इनका क्लास लेना विद्यार्थियों के हित में है या अहित मेें.
आशुतोष जी किसी को भी उस जगह से लगाव बना रहता हो जहां उसने जहां किशोरावस्था से युवावस्था मे पर्वेश किया हो लेकिन अंध-प्रशस्ति आत्मघाती होती है. छात्रों ने ही प्रयागराज प्रोफेसरों के बारे में बताया. बहुत से प्रोफेसर पढ़ाते नहीं और छात्र राजनीति लंपटता का पर्याय बन गयी है, छाज्ञशंघ संघर्ष के मंच से दलाली का अखाड़ा बन गया है, छात्र जागृत और आंदोलित न हुए तो स्थितियां बदतर होंगी.
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