Wednesday, February 19, 2014

युवा चेतना और युग चेतना (युगचेतना 1)

17 बी, विश्वविद्यालय मार्ग, दिल्ली 11007
15.02.2014
युवा चेतना और युग चेतना
ईश मिश्र
मुझे 15-16 फरवरी 2014 को राजनैतिक दलों की युवा नीति और अंतः जनतंत्र विषय पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में युवा-संवाद द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में बोलने का निमंत्रण मिला. एक और यात्रा एवं अपने पुराने विश्वविद्यालय के नये छात्रों से मुलाकात तथा ईमानदारी से कहूं तो सिनेट हाल में श्रोता-दीर्घा में बैठने की बजाय मंच से बोलने के अवसर की संयुक्त लालचों में तुरंत हां बोल दिया. उम्र की 17-21 वर्ष की बौद्धिक बुनियाद की अवधि जिस जगह बीती हो उससे जुड़ी यादें जीवनी में खास अहमियत रखती हैं. और एक आवारा को यात्रा का बहाना भर चाहिए. इवि के एक शुभेक्षु प्रोफेसर ने आयोजकों की प्रतिष्ठा को संदेहास्पद बताया. लेकिन मैं कभी कभी आयोजकों की नीयत को दरकिनार कर श्रोताओं की चेतना को धयान में रखते हुए चला जाता हूं क्योंकि श्रोता किसी के बंधक नहीं होते और शब्दों का अपना असर होता है इसीलिए शासक वर्ग शब्दों से घबराकर उनका प्रवाह रोकता है. लेकिन फिर लगा कि इस विषय पर तो बोलने को कुछ सामग्री ही नहीं है. इतना ही कहा जा सकता है कि इन तथाकथित मुख्य धारा के राजनैतिक दलों के पास कोई युवा नीति तो है नहीं और गर्व से विरासतें ढोने वाले हमारे तथातकथित जनतंत्र में आंतरिक जनतंत्र की बात करना रेगिस्तान में मोती तलाशने जैसा है. ये अपने युवा संगठनों की युवा उमंगों को परिवर्तनकामी युगचेतना के हरकारे बनाने की बजाय उन्हें तोते और भेड़ की प्रतिगामी चेतना से लैस करते हैं जिनकी परिणति लंपटता और दलाली की छात्र राजनीति में होती है.  प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव निर्वाचित सांसद या विधायक नहीं बल्कि कोई सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, हाई-कमान करता है, जिसके पास जनप्रतिनिधि अपना सोचने का अधिकार गिरवी रखकर वापस पशुकुल में विलीन हो जाते हैं. विवेक और चिंतन-शक्ति की ही बदौलत उपयोगी श्रम की क्षमता से  हमारे आदिम पूर्वजों ने खुद को अन्य पशुओं से अलग करना शुरू किया था और उसी की बदौलत मानव इतिहास ने पाषाण-युग से अंतरिक्ष युग की यात्रा तय की. फिलहाल अपनी तयीं मैंने विषयांतर कर लिया और इस अवसर का इस्तेमाल युग-चेतना और युवा-चेतना के अंतरविरोधों और उनकी द्वद्वात्मक एकता पर बोलने में करूंगा. अब निकलता हूं भतीजे की सगाई समारोह में उपस्थिति दर्ज कराते हुए स्टेसन. बाकी प्रस्तुति के बाद इवि के अतिथिगृह में.

21.02.2014
बुढ़ापे की आवारागर्दी घातक होती है लेकिन कुछ जन्मजात प्रवृत्तियां मृत्यु तक साथ देती हैं. कहां तो सोचा था कि पेपर लिख कर जाऊंगा पर भूमिका से आगे बात बढ़ नहीं पायी. और सोचा था यात्रा संसमरण वहीं लिख लूंगा लेकन 18 को लौटने के बाद स पर आज रात ही बैठ पाया.

नई दिल्ली से प्रयागराज समय पर चली और कुहरे का कुछ अंदेशा नहीं था. भोर में नीद खुली तो पतो चला कि अभी कानपुर भी नहीं आया था और गाड़ी कुहरे की वजह से मंद गति से चल रही थी. लोगों ने बताया 12 बजे से पहले इलाहाबाद पहुंचने का कोई चांस नहीं था और मुझे दिस सत्र में बोलना था वह 10 बजे से था. लेकिन धैर्य से पहुंचने की प्रतीक्षा के अलावा कुछ कर भी नहीं सकता था. सभी लोग जग गये और बतियाने लगे मैं अपने प्रजेंटेसन के बारे में मनन करते हुए बातों सुन रहा था. उस कूपे में संयाग से सभी इलाहाबाद के पूर्व छात्र-छात्राएं थे. दो यूनिवर्सिटी के पर्व-क्रिकेटर जो खेल कोटे से क्रमशः बैंक और आबकारी विभाग में नौकरी करते हैं और एक की गृहणी, एक एनजीओ क्रांतिकारी, एक विवि के वाणिज्य के किसी प्रोफेसर की पत्नी (यही परिचय दिया था) और एक युवा वकील. गलती से एक इक ऐर यात्रा में एक बनाम लगभग सब बहस में उलझ गया. एनजीओ क्रांतिकारी ने मेरा परिचय पूछा और मेरी यात्रा का उद्देश्य जानने के बाद आम आदमी पार्टी पर बात करने लगे और बात भ्रष्टाचार पर आ गयी और उनमें से आबकारी विभाग वाले पूर्व क्रिकेटर ने राजनैतिक दबाव और सरकारी ससन ततततत  अफसरों की भ्रष्ट होने की मजबूरी का रोना रोने लगे और हाल में ही जमानत पर रिहा हुए, इविवि के पूर्व छात्र और आईएयस टापर किसी प्रदीप शुक्ल की चर्चा होने लगी. मैंने कहा भ्रषटाचार की कोई मजबूरी नहीं होती बल्कि भ्रष्ट चेतना शिक्षा समेत भ्रष्ट समाजीकरण का नतीजा है, और यह कि आईएयस सा प्रोफेसर की आर्थिक स्थिति के जो लोग बिकते हैं वे अभागे, दयनीय, निंदनीय और जाहिल एक साथ हैं. अभागे इस लिए कि ये मुफ्त में थैलीशाहों के ज़रखरीद बन जाते हैं क्योकि फन्हें आम जनती की गाढ़ी कमाई से इतना पैसा मिलता है जो इस जीवन में उन्हें एक आरामतलब जीवन-शैली के लिए पर्याप्त से अधिक है. ज़मीर की बिक्री की आमदनी वे वित्तीय संस्थानों में निवेश करते हैं यानि उन्हीं थैलीशाहों को वापस कर देते हैं, या फिर कालले धन के रूप में सामाजिक संपत्ति को मृत पूंजी में तब्दील कर देते हैं. दयनीय इसलिए कि इंसान जितनी भी बार गिरता है, अंशतः अपनी अंतरात्मा को कत्ल करता है. अंत में, पैसे के गुमान में, पकड़े जाने के निरंतर भय में, अंतरात्मा से मुक्त खोखली, दयनीय ज़िंदगी जीता है. निंदनीय इसलिए कि भ्रष्टाचार की सबसे तगड़ी मार सवसे समाज के निचले पायदान पर सबसे अधिक पड़ती है, गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई तेजी से बढ़ती हैं. जाहिल इस लिए कि उसको इतना भी ज्ञान नहीं है कि पूंजीवाद में संचय सिर्फ पूंजीपति ही कर सकता है, बाकी सब संचय के भ्रम में जीते हैं. तभी ऊपरी बर्थ से उतरते हुए युवा वकील ने नाराजगी के साथ कहा कि सबकी अपनी अपनी आकांकाक्षाएं होती हैं और उनके आदर्श हराश सालवे हैं जिनके पास तनी ताकत है कि अंबानी उनका बाग्यशाली गाउन निजी जहाज मे मंगवाता है. विमर् की बाकी बातें बाद में पुस्तक मेले से लौटने के बाद.   


 युग चेतना के असर में इस विमर्श मैं एक तरफ पड़ गया, बाकी सब दूसरी तरफ और आस-पास के अन्य लोग उनके सौन समर्थक. एनजीओ वाले सहयात्री पाले की विभाजन रेखा पर बैठे रहे. पूंजीवादी युग चेतना के तहत धन सामाजिक प्रतिष्ठा का निर्धारक बन गया है और ये भ्रष्ट जाहिल शर्मसार नहीं महसूस करते. युग चेतना आर्थिक विकास के खास चरण के उत्पादन के सामाजिक संबंधों के अनुकूल बनती है और शासक वर्गों के विचार शासक विचार भी होते हैं जो राज्य के विचारधारात्मक औजारों द्वारा, निष्पक्ष विचार के रूप में प्रसारित किए जाते हैं. कहा जाता है कि पूंजीपति और मजदूर के बीच आर्थिक गुलामी का अनुबंध, वर्ग संबंधों से परे दो स्वतंत्र और समान व्यक्तियों के बीच स्वैक्षिक अनुबंध है. हां, श्रम के साधनों से मुक्त श्रमिक दो अर्थों में स्तंवत्र है – बाजार भाव पर श्रम-शक्ति बेचने को और भूखों मरने को, जिसके लिए वह बिल्कुल स्वतंत्र है. यह बाजार भाव, ऐडम स्मिथ के अनुसार, बाजार के अदृश्य हाथ तय करते हैं. 

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