Saturday, February 1, 2014

प्लेटो और मार्क्स

एक प्रिय फेसबुक दोस्त ने मेरी एक पोस्ट पर कमेंट किया कि प्लेटो आज होता तो मार्क्स से बड़ा साम्यवादी होता, उस पर मेरा कमेंटः

प्लेटो अगर आधुनिक काल में   होता तो क्या मार्क्स से बड़ा साम्यवादी होता, उचित सवाल नहीं है क्योंकि चेतना का स्तर सामाजिक विकास के चरण के समानुपाती होता है और चैतन्य मानव प्रयास विकास के चरण को आगे बढ़ाता है. क्या होता, क्या न होता, यह तो कयास का विषय है, हम उसके ही बारे में बात कर सकते हैं, जो हुआ. अफलातून(प्लेटो) के आदर्श राज्य का नायक (प्रोटागनिस्ट) दार्शनिक राजा है और मार्क्स के वर्ग-विहीन समाज का नायक सर्वहारा -- मेहनतकश-- है. प्लेटो का दार्शनिक राजा द्वारा नियंत्रित, साम्यवाद समाज के एक छोटे से अनुत्पादक अल्पमत(शासक वर्ग) के लिये है. उत्पादक बहुमत -- किसान, शिल्पी, कारीगर, व्यापारी, मजदूर,.....  इस व्यवस्था से बाहर है, यूनानी सभ्यता की रीढ़, गुलामों की तो वह बात ही नहीं करता, शायद इसे नियति की स्वयंसिद्धि मान लेता है. गौरतलब है कि प्लेटो के नगर राज्य, एथेंस में, उस समय प्रत्यक्ष जनतांत्रिक शासन व्यवस्था थी जिसकी जगह प्लेटो ने आदर्श राज्य का विकल्प पेश किया. मार्क्स का नायक, उत्पादक, सर्वहारा -- मेहनतकश-- वर्ग है. मार्क्स उस वक़्त लिख रहे थे जब एक नई गुलामी --पूंजी की गुलामी -- जड़ें जमा रही थीं. श्रमिक श्रम के साधनों से आजाद कर दिया गया था जिन पर पूंजीपतियों ने कब्जा जमा लिया था. मार्क्स के वर्ग-विहीन समाज का साम्यवाद, आमजन के लिए है क्योंकि उसमें कोई खासजन होगा ही नहीं. हर कोई अपनी सर्जनात्मक क्षमता के अनुसार, उत्पादन प्रक्रिया में योगदान कर सकेगा/गी और हर किसी को आवश्यकतानुसार वस्तुएं प्राप्त कर सकेगा, क्योंकि दयनीयता का कारण अभाव नहीं पूंजीवादी लालच है, अन्यथा, सभी की जरूरतों के लिए धरती पर अपार संपदा है. 

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