प्रमोद रंजन संपादित बहुजन सैद्धांतिकी की पोस्ट पर कमेंटः
मैं तो बहुत पहले से बहुजन विमर्श को वर्गीय विमर्श के रूप में रेखांकित कर रहा हूं। हर ऐतिहासिक युग में श्रमजीवी ही बहुजन रहा है, भारत में जातिव्यवस्था की जटिलता ने इसे अतिरिक्त जटिल बना दिया है। श्रमविभाजन के साथ श्रमिक विभाजन का मुद्दा पैदा कर दिया है। विचारधारा के परिप्रक्ष्य से शासक जातियां ही शासक वर्ग रही हैं। मार्क्सवाद श्रमजीवियों की मुक्ति को ही मानव मुक्ति मानता है, इसलिए मार्क्सवाद आधुनिकयुग की पहली व्यवस्थित सैद्धांतिकी है। यह बात अंबेडकर और मार्क्सवाद (फार्वर्ड प्रेस) लेख में मैंने रेखांकित करने का प्रयास किया है। अपने ब्लॉग में मैंने इसे भाग 1 के रूप में संरक्षित किया है, सोचा था इस पुस्तक के लिए आपसे किये वायदे का लेख भाग 2 होगा लेकिन बौद्धिक आवारागर्दी और अनुशासनहीनता के चलते अक्षम्य वायदा खिलाफी हो गयी और यह काम अनंतकाल के लिए टल गया। बहुजन विमर्श, जैसे कि खगेंद्र जी ने कहा है बहुजन की अवधारणा जातिवादी नहीं वर्गीय अवधारणा है तथा बुद्ध से लेकर मार्क्स तक इसके सैद्धांतिकी की निरंतरता देखी जा सकती है।
पूंजीवाद और भारतीय जाति-व्यवस्था में एक समानता है। दोनों में सबसे नीचे वाले को छोड़कर, हर किसी को अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल ही जाता है। पूंजीवाद में यह विभाजन आर्थिक है और जाति व्यवस्था में सामाजिक-सांस्कृतिक लेकिन सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक संरचनाएं आर्थिक संबंधों की ही बुनियाद पर टिकी होती हैं।
वर्ग-विभाजित समाज में सर्वजन हिताय की बात शासक वर्गों का चोचला है। जाति हमारे समाज की एक विद्रूप सच्चाई है, विद्रूपता को समाप्त करने की लड़ाई के लिए उसका संज्ञान लेना लजरूरी है।
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