Friday, February 16, 2024

बेतरतीब 170 (जन्मदिन)

 मेरा दस्तावेजी जन्मदिन 3 फरवरी है और सत्य वहीं जिसका प्रमाण हो और प्रमाणित सत्य के अनुसार 3 फरवरी, 2024 को मैं 70 साल का हो गया। इस बात की याद दिलाया था स्टेट बैंक के बधाई संदेश ने। उस दिन यह बात शेयर करना इसलिए टाल गया कि आप लोग यह न सोचें कि साल के कई बार जन्मदिन की बधाई लेता रहता हूं।फेसबुक पर लिखे जन्मकुंडली के जन्मदिन 26 जून को आप पहले ही बधाइयां दे चुके हैं। लगभग 30 साल पहले एक दिन सुबह सुबह जन्मदिन की बधाई का एक फोन आया, मैं चौंक गया। हमारे कॉलेज के तत्कालीन एओ (एडमिन्स्ट्रेटिव ऑफिसर) अरोड़ा साहब का फोन था, जिन्होंने मेरी निजी फाइल से देखकर किया रहा होगा। जन्मकुंडली के जन्मदिन के अनुसार 26 जून 2015 को कुछ पुराने-नए मित्रों के साथ हमने सठियाने का उत्सव मनाया था, लेकिन प्रमाणित सत्य के अनुसार लगभग डेढ़ साल पहले ही सठिया चुका था।


इसकी कहानी यह है कि 1960 में 4 साल की उम्र में बड़े भाई (अब दिवंगत) का लटक बन कर मैं गांव के किनारे स्थित स्कूल जाने लगा। उस समय अमूमन गांव के बच्चे 5-6 साल में स्कूल जाना शुरू करते थे। 1960 इसलिए याद है कि पंडित जी श्यामपट (ब्लैकबोर्ड) पर रोज सुबह तारीख; महीना और सन् लिखते थे।

हमारे खपडै़ल स्कूल में 3 क्लास रूम थे। दरअसल एक कमरे के चारों दीवारों पर बरामदे बने थे। कमरा ऑफिस की तरह था, जिसमें शिक्षकों की कुर्सियां, बच्चों के टाट तथा रजिस्टर तथा अन्य दस्तावेज रखे जाते थे। सामने वाला बरामदा खुला था और उसका इस्तेमाल बरमदे की ही तरह होता था। बगलों और पीछे के बरामदे घिरे थे और क्लास रूम का काम करते थे।

स्कूल में 3 शिक्षक थे और 3 क्लास रूम जब कि विद्यार्थियों की कक्षाएं 6 थीं। एक-एक कमरे में दो-दो कक्षाएं लगतीं थीं। ससे सीनियर शिक्षक (हेड मास्टर) एक कमरे में कक्षा 4 और 5 के बच्चों को पढ़ाते थे; दूसरे में उनसे जूनियर शिक्षक कक्षा 2 और 3 के बच्चों को और सबसे जूनियर शिक्षक गदहिया गोल और कक्षा 1 वालों को। प्रीप्राइमरी क्लास को शुद्ध भाषा में अलिफ कहा जाता था बोलचाल की भाषा में गदहिया गोल। उस समय गांव की संवेदनशीलता कितनी निर्मम होती थी कि अनंत संभावनाओं के नवनिहालों को गधा बना देती थी।

उस समय हेड मास्टर, राम बरन, मुंशी जी थे और उनके बाद बासुदेव सिंह, बाबू साहब थे और सबसे जूनियर, सीतापाम मिश्र, पंडित जी थे। शिक्षकों का संबोधन जातिगत होता था। ब्राह्मण -पंडित जी; ठाकुर -बाबू साहब; भूमिहार-राय साहब, मुसलमान मौलवी साहब और अन्य जातियां -- मुंशी जी। पंडित जी हमारे गांव(सुलेमापुर) के ही थे; बाबू साहब नदी पार के बगल के गांव, बेगीकोल के थे जो दूसरे जिले (तब फैजाबाद अब अंबेडकरनगर) में पड़ता है और मुंशी जी दूसरी तरफ के बगल के गांव, अंड़िका के थे। मुंशी जी पतुरिया जाति के थे। उस समय उस इलाके में पढ़े-लिखे सवर्ण भी कम थे, मुंशी जी पता नहीं कैसे पढ़ गए थे। मुंशी जी बहुत ही नेक इंसान थे, वैसे उन्होंने मुझे पढ़ाया नहीं, जब मैं (1963) कक्षा 4 में पहुंचा तो वे रिटायर हो गए और बाबू साहब हेड मास्टर हो गए और कक्षा 4 और 5 को पढ़ाने लगे। मुंशी जी से मेरी आखिरी मुलाकात 1998 में एक चौराहे पर चाय के अड्डे पर हुई थी, वह कहानी फिर कभी।

भूमिका लंबी हो गयी अब कहानी पर आते हैं। गदहिया गोल में दाखिला के ाद जल्दी ही मुझे अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान हो गया। पंडित जी ने 4 साल के च्चे में क्या देखा कि उसी साल कक्षा 1 में कुदा दिया। कक्षा 2 और 3 में पूरे साल पढ़ाई की। कक्षा 4 में 3-4 महीने पढ़ा था कि स्कूल में डिप्टी साहब (एसडीआई) मुआयना करने आए। गांव के स्कल में डिप्टी साहब का आना बहुत बड़ी परिघटना होती थी। कमरे में जहां कक्षा 5 की टाट खत्म होती थी वहीं से कक्षा 4 की शुरू होती थी। मैं 4 के टाट पर सबसे आगे बैठता था। डिप्टी साहब ने कक्षा 5 वालों से अंक गणित का कोई सवाल पूछा और सब खड़े होते गए। मुझे ताज्जुब हुआ कि इतना सरल सवाल भी इन्हें नहीं आता। सब खड़े होते गए और मेरा नंबर आ गया तथा मैंने झट से सही जवाब दे दिया। डिप्टी साहब ने खुश होकर पीठ थपथपाया तो बाबू साहब कहां पीछे रहने वाले थे, उन्होंने कहा कि अभी तो 'यह 4 में पढ़ता है'। डिप्टी साहब बोल गए कि इसे 5 में कीजिए।

अगले दिन मैं 4 और 5 की टाटों के संगम की बजाय 5 की टाट पर आगे बैठ गया, सबने नापसंदगी की नजर से देखा, लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं। बाबू साहब आते ही मेरे वहां बैठने पर नाखुशी जाहिर की और वापस अपनी पुरानी जगह जाने को कहा। मेरे यह कहने पर कि अब मैं 5 में पढ़ूंगा, बोले ' भेटी भर क बाट्य, अगली साल लग्गूपुर पढ़ै जाबा तो सलारपुर के बहवा में बहि जाबा (लग्गूपुर पढ़ने जाओगे तो सलारपुर का ाहा में बह जाओगे)। मैंने कहा, 'अब चाहे बहि जाई, चाहे बुड़ि जाई, डिप्टी साहब कहि देहन त अ हम पांचै में पढ़ब' (चाहे ह जाऊं चाहे डूब जाऊं, डिप्टी साहब ने कह दिया तो अब में 5 में ही पढ़ूगा)। हमारे गांव से नजदीकी स्कल 7-8 किमी दूर लग्गूपुर में था तथा रास्ते में सलारपुर में खेतों से वर्षात के पानी के निकास का तेज बहाव का नाला (बाहा) पड़ता था।

छोटी सी कहानी भूमिका हुत लंबी हो गयी। तो कहानी यह है कि 1964 में मैंने 9 साल की उम्र में प्राइमरी पास किया और उस समय हाई स्कूल (कक्षा 10) की परीक्षा के लिए न्यूनतम आयु सीमा 15 वर्ष थी। गणना के अनुसार 1 मार्च 1969 को मुझे 15 साल का होना चाहिए। बाबू साहब को 1954 की फरवरी की जो भी तारीख (3) दिमाग में आई उसे मेरी जन्मतिथि बना दिया। टीसी लेते समय मेरे पिता जी फैल गए कि लोग तो 2-3 साल उम्र कम लिखाते हैं और वे मेरी उम्र डेढ़ साल (लगभग) बढ़ाकर लिख रहे हैं, बाबू साहब ने पिताजी को समझा दिय़ा तो वे मान गए।

जो भी मेरे प्रमाणित जन्मदिन की विलंबित बधाई देना चाहें, उनका अग्रिम आभार।

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