बंद दरवाजे से वापस होकर रूसो दार्शनिक बन गया
बजाय करने के इंतजार दरवाजा खुलने कावह निकल पड़ा खुले आसमान के नीचे
अनजान रास्तों से
अनजान अमूर्त मंजित की तलाश में
देखने को दीवारों और दरवाजों से आगे की दुनिया
वह पड़ाव-दर-पड़ाव चलता रहा
देखा उसने दीवार-दरवाजे से आगे की दुनिया
जो घिरी थी दीगर दीवारों और दरवाजों से
रास नहीं आई उसे यह नई दुनिया
उसी तरह जैसे उसे अपना न सकी थी उसे पुरानी दुनिया
बुद्ध की तरह तलाशता रहा
दुख-दर्द और पराधीनता से मुक्त दुनिया
उसे सर्वाधिक कष्टप्रद लगती थी पराधीनता
उसने एक ऐसी दुनिया का मॉडल पेश किया
जिसमें पराधीनता शब्द छूमंतर हो जाए
जिसमें राजा-प्रजा की विभाजक रेखा मिट जाए
सब उतने ही आजाद हो जाएं
जितने वे प्रकृति के साम्राज्य थे
तब वे अकेले थे अब अपने सामूहिक राज में
जिसमें किसी को भी पराधीनता का अधिकार न हो
पराधीनता अमानवीय है इसलिए वर्जित
पराधीनता अमानवीय है इसलिए वर्जित है।
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १६ फरवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
Thanks
Deleteरूसो आज भी है शायद कहीं
ReplyDeleteव्वाहहहहहह
ReplyDeleteसब उतने ही आजाद हो जाएं
जितने वे प्रकृति के साम्राज्य थे
वजनदार सोच
आभार
सादर
शुक्रिया
Deleteरूसो एवं बुद्ध !
ReplyDeleteपराधीनता अमानवीय है इसलिए वर्जित
बहुत सुंदर चिंतनपरक सृजन।
शुक्रिया
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteशुक्रिया
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