1983 में रस्टीकेट होने के बाद भी मैं जेएनयू में ही रहता था। मेरी बेटी डेढ़ साल की हो गयी तो 1985 में मैंने सरकारी कर्मचारियों की कॉलोनी, पुष्पविहार (साकेत) में सबलेटिंग पर एक फ्लैट ले लिया। खैर तभी डीपीएस की नौकरी से भी निकाल दिया गया और उस लड़ाई में फंस गया तथा बेटी के साथ रहने की योजना फिर टल गयी। यह भूमिका इसलिए कि रस्टिकेसन के चलते फेलोशिप तो बंद थी ही, नौकरी की आमदनी भी बंद थी। गीता पर लुकास की History and Class Consciousness का पेपर बैक संस्करण आया था ले लिया। एक दिन एक क्रांतिकारी कवि (अब दिवंगत) किसी नामी हस्ती से मिलने साकेत आए थे तो रात गुजारने मेरे फ्लैट पर आ गए। किताब देखकर बोले, 'तुम इसका क्या करोगे?' मुझे उनका सवाल अजीब लगा कि गरीबी में भी कोई अपेक्षाकृत मंहगी किताब पढ़ने के लिए ही खरीदेगा। मैंने कहा कि इंटेलेक्टुअल बनने का शौक है रोज एक एक पन्ने फाड़कर कुछ कुछ करता रहूंगा। खैर अगली सुबह जाते समय वे वह किताब छिपाकर लेते ही गए। कई बार मांगा लेकिन वे लौटाना टालते रहे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment