पूरे 50 साल पहले, हिंदुत्व मार्का दक्षिणपंथ से मार्क्सवादी वामपंथ में संक्रमणकाल में गोदान पढ़ा था, एक ही निरंतरता में पढ़ गया था। इस बार राजपाल एंड संस के स्टाल पर विष्णु नागर (Vishnu Nagar) जी द्वारा संपादित परसाई जी के साक्षात्कारों के संकलन 'परसाई का मन' के विमोचन में तो लेट-लतीफी के चलते समय से नहीं पहुंच सका, इसके साथ अन्य किताबों में गोदान भी खरीद लिया था। पढ़ना शुरू किया तो लगा पहली बार पढ़ रहा हूं। कालजयी रचनाओं को जितनी बार भी पढ़ा जाय, हर बार पहली बार ही लगता है। 2016 में गोर्की का मदर पढ़ते हुए ऐसी ही अनुभूति हुई थी तथा जेएनयू आंदोलन पर लेख की शुरुआत उसी के उद्धरण से किया था। 1974 में गोदान मुझे वर्णाश्रमी सामंती व्यवस्था में किसानी समस्या के साथ स्त्री समस्या पर एक मुकम्मल उपन्यास लगा था। उस समय झुनिया के डायलाग स्त्रीवादी दावेदारी के पूर्वकथ्य लगे थे। फिर से पढ़कर लिखूंगा।
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