हम सब चिंतनशील साधारण इंसान हैं। मैं प्रबोधनकालीन चिंतक देकार्त (Descartes) के इस विचार से असहमत हूं कि मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं (I think therefore I am.)। यह प्लेटो और हेगेल की तरह सच्चाई को सिर के बल खड़ा करता है। मैं हूं, इसीलिए सोच सकता हूं तथा सोचता हूं इसीलिए जो हूं, वह हूं। सोचना ही मनुष्य को पशुकुल से अलग करता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व होने और सोचने का द्वंद्वात्मक युग्म है लेकिन प्रथमिकता होने की है। वस्तु विचार के बिना भी रह सकती है और ऐतिहासिक रूप से विचार की उत्पत्ति वस्तु से ही हुई है। लेकिन यथार्थ की संपूर्णता दोनों के द्वंद्वात्मक युग्म से ही बनती है। सेब तो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के पहले भी गिरते थे और न्यूटन के दिमाग में सेबों के गिरने का कारण जानने का विचार उन्हें देखकर ही आया। लेकिन पहले हम केवल "क्या" का उत्तर दे सकते थे, "क्यों" और "कैसे" आदि प्रश्नों के नहीं जो न्यूटन के नियमों की जानकारी से दे सकते हैं। अतः सेब के गिरने की परिघटना का संपूर्ण सत्य उस भौतिक परिघटना और उससे निकले विचारों का द्वंद्वात्मक युग्म है। अतः मैं हूं इसलिए मैं सोचता हूं तथा मेरे होने की सामाजिक सार्थकता के लिए मेरा सोचना जरूरी है।
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