"साम्यवाद किस प्रकार की समानता की अवधारणा है?" वाजिब सवाल है, लेकिन साम्यवाद तो अभी बहुत दूर की बात है। हमारे यहां तो अभी पूंजीवाद ही ठीक से नहीं आया है। हमारा विशिष्ट वर्णाश्रमी सामंतवाद खत्म नहीं हुआ तथा क्रोनी (कृपापात्र)व पूंदीवाद ने उससे आर-पार की लड़ाई की बजाय उसे अपना साझीदार बना लिया है। यूरोप में नवजागरण और प्रबोधन (Enlightenment) क्रांतियों ने जन्मजात सामाजिक विभाजन समाप्त कर दिया था। यहां उस तरह की नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियां हुईं नहीं तथा पूंजीवाद औपनिवेशिक रास्ते से विकसित हुआ। इसीलिए यहां आज जरूरत सामाजिक-आर्थिक क्रांतियों के गठजोड़ की है। जयभीम-लालसलाम नारे को ठोस राजनैतिक आकार देने की है। अभी साम्यवादी नहीं, पूंजीवादी (औपचारिक) समानता हासिल करने का चरण है। खैर समानता की पहली शर्त है, हर तरह के भेदभाव से मुक्ति। यही सवाल 1880-81 में मार्क्स से किसी ने पूछा था कि साम्यवाद की रूपरेखा क्या होगी, मार्क्स ने जवाब दिया था कि भविष्य की प्रणाली की रूपरेखा भविष्य की पीढ़ियां खुद बना लेंगी। भविष्य की क्रांतियों के कार्यक्रम में उलझने का मतलब वर्तमान संघर्षों से मुंह मोड़ना है। सामंतवादी उत्पादन प्रणाली की जगह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली ने लिया। सामंती युग में पूंजीवादी भविष्य के बारे में लोग ऐसे ही सवाल पूछते थे, राजा के बिना जीवन की कल्पना ही अकल्पनीय थी। 1648 की क्रांति में इंग्लैंड के राजा का सिर कलम कर दिया गया था लेकिन 12 साल में ही वहां के लोगों को राजा की जरूरत इतनी सिद्दत से महसूस हुई कि राजवंश के राजकुमार को फ्रांस से आयातित किया गया। साम्यवाद पूंजीवाद के खात्मे के बाद का अगला चरण है जिसके कार्यक्रमों की रूपरेखा भविष्य की पीढ़ियां बनाएंगी। साम्यवाद एक वर्गविहीन व्यवस्था होगी और राज्य चूंकि वर्गवर्चस्व का औजार है इसलिए वह अनावश्यक हो जाएगा। साम्यवादी उत्पादन पद्धति का आधारभूत सिद्धांत होगा -- सामर्थ्य के अनुसार हर किसी का योगदान और जरूरत के अनुसार हर किसी को भुगतान। जब तक कुछ साकार नहीं होता तब तक वह यूटोपिया जान पड़ता है। सामंती युग में जनता द्वारा निर्वाचित शासन की बात यूटोपिया मानी जाती थी।
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