सरकार की आलोचना पर सकारात्मकता का उपदेश देने वाले एक सज्जन के जवाब में संस्कारों की दुहाई देते उनके जवाब का जवाब।
तीक्ष्ण भाषा का स्वागत है, तीक्ष्णता अमर्यादा नहीं होती। कई बार मैं जानबूझकर तीक्ष्ण भाषा का प्रयोग करता हूं, जैसे पितृसत्तामकता या पुरुषवाद की जगह मर्दवाद लिखता हूं। इस शब्द का प्रयोग मैंने अपने लेखों में 1980 के दशक से शुरू किया, शुरू में संपादक इसे संपादित कर पुरुषवाद कर देते थे, लेकिन अब यह शब्द स्वीकार्य हो गया है। कई स्त्रीवादी लेखक पितृसत्तात्मकता की जगह मर्दवाद ही लिखते/लिखती हैं। जहां तक संस्कारों की बात है तो मैंने 10 साल पहले एक कविता में लिखा था, "मुझे अच्छे लगते हैं, ऐसे बच्चे, जो संस्कारों की माला जपते हुए नहीं, उन्हें तोड़ते हुए आगे बढ़ते हैंं"। संस्कारों (जन्म के परिवेश से विरासत में मिली मान्यताएं) पर सवाल करना विवेकसम्मत इंसान के रूप में बौद्धिक विकास की पूर्व शर्त है। ज्ञानार्जन प्रक्रिया में सीखने (learning) जितनी ही महत्वपूर्ण भूमिका छोड़ने (unlearning) की होती है। संस्कारगत नैतिकता (acquired morality) उन सामाजिक मूल्यों का समुच्चय है, जिन्हें हम अपने सामाजिककरण के दौरान अनजाने में ही अवचेतन में आत्मसात कर लेते हैं (the social values that we acquire independent of our conscious will)। बौद्धिक विकास के लिए जरूरी है कि हम संस्कारगत नैतिकता पर सवाल करें और अवांछनीय पाने पर उन्हें तिलांजलि देकर (unlearn करके) उनकी जगह तार्किक नैतिकता अपनाएं। मैंने किसी को दलाल नहीं कहा, मैंने एक सामान्य तथ्यात्मक वक्तव्य दिया कि जब भी कोई सरकार की जनविरोधी या कॉरपोरेटी नीतियों या कृत्यों की आलोचना करता है, कुछ लोग बिना कोई तर्क दिए नकारात्मकता से बचने और सकारात्मक होने का प्रवचन देने लगते हैं, एसे लोगों को सत्ता का एजेंट कहना अनुचित तो नहीं। जहां तक बाभन-ठाकुर या इंसान होने की बात है, तो पैदा तो सभी इंसान ही होते हैं लेकिन पैदा होते ही उनपर बाभन-ठाकुर; अहिर-कुर्मी; .......; हिंदू-मुसलमान का विरासती ढप्पा लगा दिया जाता है। बाभन से इंसान बनने का मुहावरा विरासती ठप्पे से मुक्ति पाकर वापस इंसान बनने के अर्थ में प्रयोग करता हूं। कहने का मतलब इस मुहावरे का मतलब है जन्म के संयोग से मिली अस्मिता की विरासती प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर विवेकसम्मत समतामूलक अस्मिता और संबद्ध प्रवृत्तियां अर्जित करना है। 18वी शताब्दी के दार्शनिक रूसो की कालजयी कृति "सामाजिक अनुबंध" इस वाक्य से शुरू होती है, "मनुष्य पैदा स्वतंत्र होता है, लेकिन हर तरफ से बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है"। उनके सामाजिक अनुबंध का मकसद एक ऐसे समाज का गठन है जिसमें मनुष्य बेड़ियों को तोड़कर अपनी मौलिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सके। बाभन से इंसान बनने का भी यही मतलब है -- जाति-पांत-सांप्रदायिकता की कृतिम बेड़ियों को तोड़कर वापस समान-स्वतंत्र इंसान बनना। सादर। जहां तक वर्गसंघर्ष की बात है तो वह तो अनवरत प्रक्रिया है। शोषण-दमन के विरुद्ध हर संघर्ष वर्ग संघर्ष का ही हिस्सा है।
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