Wednesday, January 26, 2022

ईश्वर विमर्श103 (धर्म)

 धर्म की आलोचना का शुरुआती बिंदु यह है कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने अपनी ऐतिहासिक परिस्थियों एवं संदर्भ में अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब से ईश्वर की अवधारणा का प्रतिपादन किया। इसीलिए उसका चरित्र और स्वभाव देश-काल के हिसाब से बदलता रहता है। पहले भगवान गरीब और असहाय की मदद करता था, अब उसकी जो अपनी मदद करने में सक्षम है (survival of the fittest)। ठीक उसी तरह जैसी मनुष्य की भौतिक परिस्थितियां उसकी चेतना परिणा नहीं है, बल्कि उसकी चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुईपरिस्थितियों का। लेकिन न्यूटन के गति के नियमों के अनुसार, अपने आप कुछ नहीं बदलता, बदलाव के लिए वाह्यबल की जरूरत होती है। मनुष्य की भौतिक परिस्थितियां उसके चैतन्य प्रयास से बदलती हैं। इस प्रकार इतिहास के गतिविज्ञान के नियम भौतिक पकिस्थितियों (वस्तु) और चेतना (विचार ) मिलन (मार्क्सवादी शब्दावली में, द्वद्वात्मक एकता) से निर्मित/निर्धारित होते हैं।


अपने पेड़ों की विशालता को देखकर और उससे संभावित आमदनी की बात सोचकर उन्हें लगाने वाले की या उसकी लकड़ी से होने वाले फायदे से लकड़ी के व्यापारी को होने वाली खुशियां वास्तविक खुशी होती है, खुशी की खुशफहमी नहीं। अलग-थलग पड़े व्यक्ति की यह सोच कि जिसका कोई नहीं, उसका खुदा है यारों, खुशी की खुशफहमी है। जब वास्तविक खुशी मिलती है तो खुशफहमी अनावश्यक हो जाती है।

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