Wednesday, January 12, 2022

शिक्षा और ज्ञान 346 (प्रकृति पूजा)

 प्रकृति पूजा का मतलब मेरी समझ से सूर्य, वायु, इंद्र (बरसात) जैसी प्राकृतिक शक्तियों की पूजा है। आइंस्टाइन भय को धर्म (दैवीयता) की उत्पत्ति का स्रोत मानते है, लेकिन मुझे लगता है कि भय के साथ दृष्टिगोचर की अनभिज्ञता भी दैवीयता की उत्पत्ति का कारण रहा होगा। मुझे लगता है जीवन को आमूल रूप से प्रभावित करने वाली शक्तियों के बारे में अनभज्ञता से उत्रपन्न श्रद्धायुक्त भय (awe) के चलते हमारे ऋगवैदिक पूर्वजों ने उन्हें दैवीय मान लिया। लगता है दैवीयता की यही अववधारणा कौटिल्यकाल तक प्रमुख रही क्योकि वहजब विजीगिषु (विजयकांक्षी राजा) को अभियानपर निकलने के पहले देवताओं का आराधना की सलाह देता है तो वैदिक प्राकृतिक देवताओं की ही बात करता है। उस समय बहुदेव पूजक प्राचीन यूनान में बलि के साथ मूर्तिपूजा प्रचलन में थी। चौथा वेद भी लगता है कौचिल्य काल के बादही संकलित किया गया क्यों की वह राजकुमारोंवकी शिक्षा के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम में वार्ता(अर्थशास्त्र), अन्विक्षकी (दर्शन), दंडनीति (राजनीतिशास्त्र) के साथ त्रयी (तीन वेद) का जिक्र करता है। लगता है वैदिक आर्यों के वंशजों में मूर्ति पूजा की प्रमुखता काफी बाद में स्थापित हुई। हमारे बचपन में गांव के प्रमुख देवता करियादेव, काली माई और डीहबाबा क्रमशः पीपल, नीम और गाव के बाहर के टीले में स्थापित थे। टीला लगता है पुरानी बसावट के खंडहर का अवशेष लगता था।

3 comments:

  1. मुझे नहीं लगता, न ही मैंने ऐसा कहा कि दोनों में बाइनरी है। बहुत से समुदाय एक साथ मूर्ति पूजक और प्रकृति पूजक दोनों थे/हैं। ऋग्वैदिक आर्य विशुद्ध प्रकृतिपूजक थे मूर्तिपूजक नहीं। प्रचीन यूनानी मूर्ति पूजक और प्रकृति पूजक दोनों थे। सही कह रहे हैं शासक वर्गों के राजनैतिक औजार की भूमिका धर्म का एक पहलू है। मार्क्स का प्रसिद्ध कथन है कि धर्म हृदयविहीन दुनिया का हृदय है और आत्माविहीन स्थितियों की आत्मा, दबे-कुचले की आह है, निराश की आशा। (जिसका कोई नहीं, उसका खुदा है यारों) धर्म पीड़ा भी है और उत्पीड़न के विरुद्ध प्रतिरोध भी। धर्म लोगों की अफीम है।

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