एक मित्र ने शाखा के मेरे अनुभव के एक विमर्श में कहा कि वे भाग्य शाली थे कि उनके पिताजी रामबृक्ष बेनीपुरी और राहुल सांकृत्यायन जैसे मनीषियों के संसर्ग में रहे, जिससे वे इस नफरती वृक्ष की छाया से दूर रहे, उस पर मेरा कमेंट। मौका मिला तो शाखा और बाद में एबीवीपी के अपने अनुभव विस्तार में लिखूंगा।
आप भाग्यशाली रहे कि प्रगतिशील परिवेश मिला। मैं तो कर्मकांडी ब्राह्मण परिवेश में पला-बढ़ा, पिताजी खेतिहर थे, मेरे बचपन में मेरा गांव शैक्षणिक-सांस्कृतिक रूप से बहुत पिछड़ा था। स्वतंत्रता संग्राम मेरे परदादा के बारे में लोग बताते थे कि संस्कृत और फारसी के विद्वान थे। हमारे बचपन में उनकी बहुत सी पांडुलिपियां संरक्षित थी, लेकिन लुप्त हो रही थीं। जब तक उनका महत्व समझ आता, लुप्त हो चुकी थीं। मेरे दादा जी पंचांग तथा कर्मकांड के जानकार माने जाते थे। दादाजी (बाबा) और पिताजी (बाबू) ने पढ़ाई क्या और कितनी की थी, मालुम नहीं, लेकिन दोनों की लिखावट बहुत खूबसूरत थी। बाबा की लिखावट के नमूने के लिए मैंने अपनी जन्मकुंडली संरक्षित रखा है। अभी शिफ्ट करने के बाद कहां रखी है, खोजना पड़ेगा। मेरे बचपन में छोटी-मोटी दरारें पड़ रही थीं किंतु वर्णाश्रमी सामंतवाद लगभग बरकरार था। अपने गांव से 7-8 कमी दूर के मिडिल स्कूल से 12 साल की उम्र जूनियर हाई स्कूल की बोर्ड की परीक्षा पास करने के बाद पैदल की दूरी पर कोई हाई स्कूल नहीं था और साइकिल पर पैर नहीं पहुंचता था तो हाई स्कूल की शिक्षा के लिए नजदीकी शहर जौनपुर चला गया। 10 वीं में गोमती के लगभग किनारे एक प्राइवेट हॉस्टल , कामता लॉज में रहता था। गोमती बिल्कुल किनारे, शेरशाह सूरी के बनवाए शाही पुल के नजदीक, पुल पर बने शेर और हाथी की मूर्तियों के सान्निध्य में बने भवन में स्थित पब्लिक लाइब्रेरी के उल्टी तरफ आम की एकबाग थी, अभी भी होगी। उस बाग में आरएसएस की शाखा लगती थी। लॉज में बीए के भी छात्र रहते थे। उन्हीं में बिलवाई स्टेसन के पास के गांव, प्रतापपुर के शोभनाथ सिंह भी थे, जिन्हें मैं शोभनाथ भैया कहता था। हमलोग लगभग हर शनिवार एमएल पैसेंजर से घर जाते और रविवार शाम की पैसेंजर से वापस जौनपुर आते। बिलवाई स्टेसन हमारे गांव से 7 मील दूर है। जाड़े में एकाध बार रात में उनके घर रुक जाता और अगले दिन भोर में घर जाता। शोभनाथ सिंह शाखा जाते थे। एक दिन वे मुझे खो खेलने के लिए साथ ले गए। वहां कुछ लड़के तो सामान्य कपड़ों में थे लेकिन कुछ चौड़ी बेल्ट से कसे खाकी चौड़े हाफपैंट पहने कांख में लाठी दबाए हुए थे। बाद में पता चला यह उनका गणवेश था और लाठी को दंड कहा जाता था। बालू में गड़े एक लट्ठ में मंदिरों पर फहराने वाले पताके सा पताका फहरा रहा था जिसे वे ध्वज कह रहे थे। शोभनाथ भइया ने ध्वज के सामने खड़े होकर सीने पर हाथ रखकर सिर झुकाया और 8-10 ड्रिल करते लड़कों में शामिल हो गए। जौनपुर की मशहूर, बेनाराम-देवी प्रसाद की इमरती वाली मिठाई की दुकान के मालिक बेनी साह्व के बेटा. मेरी कक्षा का सहपाठी, सुभाष गुप्ता 'आरम, विश्रम' सा ड्रिल का निर्देश दे रहा था। बाद में पता चला कि वह मुख्य शिक्षक था। मुझे भी ड्रिल में शामिल होने को कहा। पीटी की क्लास में भी ड्रिल मुझे पसंद नहीं था, यहां भी बेमन से शामिल हो गया। खो खेलने के बाद सब कतार बनाकर ध्वज के सामने सावधान की मुद्रा में संस्कृत में प्रर्थना गाने लगे, जो समझ में नहीं आया। और अंत में झंडे के सामने सुभाष के( ध्वज प्रणाम 1, 2,3) निर्देश पर, सब सीने पर हाथ रखकर व्यायम सा करने के बाद सहज होकर एक दूसरे को जी संबोधन से नमस्ते करने लगे। मुझसे सब बड़े थे लेकिन परिचय के मुझसे भी सब ईश जी कहकर नमस्ते करने लगे। यह मुझे अजीब लगा कि मिलने पर कोई दुआ सलाम नहीं वापस जाते हुए नमस्ते।
बाकी बाद में .........
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