मैं हिंदू-मुसलमान; बाभन-अहिर, सभी को इंसान बनाने के चक्कर में रहता हूं, यहां बिना किसी मुसलमान के सब मुसलमान मुसलमान करके नफरत फैलाते हैं, ऐसा जैसे कि मुसलमान कोई मनुष्येतर प्रजाति हो, मैं केवल यही कहता हूं कि जिस तरह सब बाभन एक से नहीं होते वैसे ही सब मुसलमान एक जैसे नहीं होते। बाभन भी शरीफ हो सकता है, मुसलमान भी। बाभन भी धूर्त हो सकता है मुसलमान भी। लड़के भी शरीफ या दुष्ट हो सकते हैं लड़किया भी। सभी को दुष्टता छोड़ कर शरीफ इंसान बनने की जरूरत है। सामुदायिक नफरत फैलाना अमानवीय फासीवादी प्रवृत्ति है। दो मिश्र या दो सगे भाई एक जैसे नहीं हो सकते तो करोड़ों लोगों की कोई समरस कोटि बनाना मूर्खता के साथ अमानवीय अपराधिक कृत्य है। आपकी पोस्ट धर्म के नाम पर सरकारी जमीन कब्जा करने की धूर्तता को चिन्हित करने की बजाय मुसलमान नाम को चिन्हित करती है। प्रथम पुरुष (first person) में इस घटना का वर्णन अपने आप में गड़बड़ है क्योंकि हबहू यही घटना किसी ने 11 साल पहले शेयर किया था। नाम हो सकता है गुफरान के बदले रहमान रहा हो। इसीलिए आपसे भी आग्रह है कि हिंदू-मुसलमान के बाइनरी से नफरत फैलाने की बजाय इंसानियत का संदेश फैलाएं। आरएसएस में गुरु दक्षिणा का एक पर्व होता है। जिसमें सभी स्वयं सेवक अज्ञात राशि (बिना नाम के लिफाफे में) का दक्षिणा देते हैं। कोई अधिकारी बौद्धिक लेता (भाषण देता) है। सीधे-सादे स्वयंसेवकों के भावनात्मक शोषण के लिए एक आंखों देखी मार्मिक कहानी सुनाता है। एक बाल (या तरुण) स्वयंसेवक बहुत बीमार है, बचने के बारे में आश्वस्त नहीं है। अपनी मां से कहता है कि उसने गुरु दक्षिणा के लिए पॉकेट मनी से बचाकर गुल्लक में पैसे जमा किया है। अगर वह न बचे तो वह गुरु दक्षिणा की वह राशि गुरु दक्षिणा के अवसर पर पहुंचा दे। शब्दशः यही कहानी मैंने जौनपुर, इलाहाबाद और गाजियाबाद में अलग अलग समय सुना। इस कहानी की ही तरह सांप्रदायिक नफरत की अफवाहें भी शब्दशः फैलती हैं।
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