मार्क्स की दूसरी शताब्दी तथा रूसी क्रांति की शताब्दी वर्ष के अवसर पर
समाजवाद का
इतिहास: एक सिंहावलोकन
ईश मिश्र
इतिहास
का गतिविज्ञान बहुत बार पूर्वानुमानों को ख़ारिज करते हुए अपने नियमों का स्वफूर्त
अन्वेषण करता है जिसके सबसे प्रामाणिक गवाह हैं रूसी क्रांति के दुनिया को हिला
दिने वाले दस दिन (टेन डेज़ दैट शुक द वर्ल्ड)। अमेरिका के समाजवादी पत्रकार जॉन
रीड की इस पुस्तक में वर्णित मार्च क्रांति के बाद मध्यमार्गी समाजवादी नेता
अलेक्जेंडर केरेंस्की की कार्यवाहक सरकार के दिनों की उथल-पुथल और आमजन की बेहाली पढ़ते हुए नोटबंदी के दूरगामी
कुपरिणामों की आशंका भयावह लगती थी। बैंकों और एटीम की कतारें और बैंकों और
एटीयमों की नगदीविहीनता तथा जनता की त्राहि-त्राहि जून-जुलाई 1917 में पेत्रोगार्द
की गलियों में ब्रेड; दूध; केरासिन जैसी जरूरतों के लिए भयानक सर्दी और बारिस में
सूर्योदय के पहले से ही विशाल कतारों में बारी का शाम तक इंतजार के बाद खाली हाथ
लौटते लोगों की याद दिलाती थी. इनमें ज्यादातर गोद में बच्चे लिए महिलाएं थीं। यदि अर्थतंत्र पर नोटबंदी के
दूरगामी कुप्रभावों पर अर्थशास्त्रियों की राय सही होती है तो हालात उसी तरह बदतर
होते जाएंगे और असंतोष वैसे ही बढ़ता जाएगा जैसा उस समय रूस में हुआ था. लेकिन इस
असंतोष को राजनैतिक विद्रोह में तब्दील कर क्रांतिकारी दिशा देने वाला बोलसेविक दल
जैसा समाजवादी सिद्धांतों और रणनीति से लैस कोई संगठन फिलहाल नहीं दिखता जो निर्णायक
दस दिनों में दुनिया हिला दे। यहां मकसद कॉरपोटी लूट के चलते नोटबंदी के संकट से
निपटने के लिए थोपी नोटबंदी से मचे हाहाकार और प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका की
पृष्ठभूमि में धनिकों, व्यापारियों और महाजनों (बैंकरों) की लूट, जमाखोरी तथा रोजमर्रा की जरूरतों की तसकरी से मचे हाहाकार की
तुलना करना नहीं है, बल्कि महज अपनी पीड़ा साझा करना है कि काश इस और आगामी
जनाक्रोश को क्रांतिकारी अंजाम देने वाला कोई क्रांतिकारी संगठन होता। लेकिन
इतिहास की भावी गति का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता. मार्च 1917 में कौन जानता
था कि आरयसयलडी (रसियन सोसलिस्ट डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी) का अल्पमत धड़ा, बोलसेविक दल दस महीनों में जनसमर्थन से इतना सशक्त हो जाएगा कि
दस दिनों में दुनिया की राजनीति और राजनैतिक विमर्श में तहलका मचा देगा। रूसी
क्रांति ने हासिए पर टिके, मार्क्सवाद और समाजवाद को अंतरराष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में
ला कर साम्राज्यवादी खेमें में तहलका मचा दिया। इस लेख का मकसद महान नवंबर क्रांति
के शताब्दी अवसर पर समाजवादी आंदोलनों और विचारों पर एक विहंगम दृटिपात है। नवंबर
क्रांति दुनिया में कामगर आंदोलनों/संगठनों तथा उपनिवेश विरोधी दोलनों का प्रेरणा
श्रोत बन गया।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
वैसे तो
समतामूलक सामूहिक जीवन शैली के व्यापक अर्थों में समाजवाद का इतिहास उतना ही
पुराना है जितना निजी संपत्ति के आगाज के साथ शुरू हुई मानव सभ्यता का। लेकिन निजी
स्वामित्व और श्रम के साधनों से वंचित ‘स्वतंत्र’ श्रम पर आधारित नवोदित पूंजीवाद की वैकल्पिक व्यवस्था और
सिद्धांत के रूप में समाजवाद की अवधारणा के विकास का इतिहास फ्रांसीसी और अमेरिकी
क्रांतियों के बाद का है, यद्यपि वैचारिक बीजारोपण सहभागी जनतंत्र और सामूहिक संप्रभुता
के सिद्धांत के प्रवर्तक 18वीं शताब्दी के दार्शनिक रूसो ने किया। फ्रांसीसी
क्रांति के बाद समाजवाद विमर्श और प्रयोग का विषय बना। पूंजीवादी औद्योगिक क्रांति
और व्यक्तिवादी दर्शन इंग्लैंड में फल-फूल रहे थे और पूंजीवाद तथा व्यक्तिवाद के
वैकल्पिक समाजवादी आंदोलन और सामूहिकतावादी दर्शन फ्रांस में। फ्रेडरिक एंगेल्स
जिसे वायवी(यूटोपियन) समाजवाद की संज्ञा देते हैं। औद्योगिक समाज में पूंजीवाद के
विकल्प के रूप में, समाजवाद के सिद्धांत का श्रेय कार्ल मार्क्स को जाता है। 1917
में रूस में बॉलसेविक क्रांति और संयुक्त समाजवादी सोवियत संघ (सोवियत संघ) की स्थापना
के बाद समाजवाद विश्व भर में राजनैतिक प्रयोगों और विमर्श के केंद्र में आ गया।
सोवियत संघ के पतन के बाद भी समाजवाद राजनैतिक सरोकार और विमर्श का विषय बना हुआ
है.
पाश्चात्य
अर्थों में सभ्यता का उदय समाज में वर्गविभाजन के साथ शुरू हुई तथा असमान
सामाजिक-आर्थिक संबंधों की सुरक्षा में राज्य और कानून बनाए गए. समानता और
सामूहिकता आदिम कबीलों की अंतर्निहित जीवन शैली थी. तकनीकी विकास के चलते भरण-पोषण
की अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त (सरप्लस) उत्पादन की अर्थ व्यवस्था में तब्दीली और
निजी संपत्ति के आगाज के साथ समाज असमान
वर्गों में बंट गया. यूरोपीय सभ्यता (ज्यादातर सभ्यताओं) का आगाज सर्वाधिक क्रूर
शोषण पर आधारित दास प्रथा और उसके दार्शनिक वैधता के सिद्धांतो से हुआ। जहां
प्राचीन यूनान के अरस्तू जैसे कुलीन दार्शनिक वर्ग शासन और दासता जैसी परंपराओं को
वैध तथा स्वाभाविक मानते थे वहीं ऐंटीफोन और डेमोक्रेटस जैसे दार्शनिक दासता समेत
तमाम असमानताओं को अप्राकृतिक। ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा लगभग ढाई हजार पहले ऐंटीफोन की उक्ति, ‘स्वतंत्रता हर व्यक्ति का जन्म सिद्ध प्राकृति अधिकार है’ की पुनरावृत्ति लगता है। तीसरी सदी ईशा पूर्व एथेंस में
प्रकृतिवाद के प्रवर्तक समझे जाने वाले स्टोइकवादी व्यक्तियों की स्वाभाविक
बौद्धिक/आध्यात्मिक समानता और प्रकृति के साथ सामंजस्य का सिद्धांत दिया था. यहां मकसद समाजवाद के ज्यादातर इतिहासकारों की
तरह, अमेरिकी और फ्रांसीसी
क्रांति के बाद शुरू आधुनिक समाजवाद के विमर्श को प्लेटो (4थी शदी ईशा पूर्व) या
थॉमस मूर ( 16वीं शदी) के सामूहिकतावादी सिंद्धांतो से जोड़ना नहीं है. ऐसा करने
से औद्योगिक समाज की विशिष्ट समस्याओं से
विषयांतर का खतरा है। यहां मकसद सिर्फ यह इंगित करना है कि एक अर्थ में, समाजवाद और जनतंत्र की भावनाएं उतनी ही पुरानी हैं जितना मानव
समाज।
व्यक्तिवाद
और आत्मकेंदित व्यक्ति की अवधारणा पूंजीवाद की विशिष्टता है जिससे पहले लोग
पारस्परिक सहयोग और सहभागिता से समुदायों में रहते थे। आत्मकेंद्रित व्यक्तिवाद की
मिथ्या अवधारणा पूंजीवाद की विशिष्ट विशेषता है, जिसे सैद्धांतिक जामा पहनाया उदारवादी चिंतकों ने। पूंजीवाद की
नई असामानताओं और मजदूरों की परतंत्रता पर परदा डालने के लिए, वे “समान और स्वतंत्र” तथा स्वायत्त व्यक्तियों की संकल्पना का सहारा लिया। रूसो ने व्यक्ति की इस मिथ्या अवधारणा का खंडन
उस वक्त किया जब पूंजीवीद अपने बाल-काल में था। फ्रांसीसी क्रांति के जनक माने
जाने दर्शनिक, रूसो ने उदारवादी मिथ्या को ध्वस्त करते हुए साबित किया कि
व्यक्ति का अस्तित्व स्वायत्त नहीं बल्कि एक सामाजिक इकाई के रूप में है। कोई एक
स्वायत्त व्यक्ति के रूप में गुलाम या मालिक नहीं होता बल्कि उसकी यह स्थिति समाज
में और समाज के जरिए कुछ खास सामाजिक संबंधों के तहत होती है, जिसे लगभग 100 साल बाद, कार्ल मार्क्स उत्पादन के सामाजिक संबंध के रूप में परिभाषित
करते हैं। पहले उदारवादी चिंतक, इंगलैंड के थॉमस हॉब्स एक सर्वशक्तिमान शासक की आवश्यकता साबित
करने के लिए व्यक्तिवाद का प्रतिपादन करते हैं कि समाज समान और स्वतंत्र
व्यक्तियों का समुच्चय है और फिर व्यक्ति की तर्कशील; अहंकारी; स्वार्थी; झगड़ालू तथा मरते दम तक संचय में मशगूल अवधारणा गढ़कर साबित
करते हैं कि स्वतंत्र मनुष्य स्वभावतः आपस में लड़ मरते हैं। व्यक्तियों की
स्वतंत्रता और समानता बरदान के बजाय अभिशाप है। इसलिए ‘सुख-चैन’ से जीवन व्यापन के लिए लोगों को चाहिए कि स्वैच्छक पास्परिक
अनुबंध के तहत सभी अधिकार और शक्तियां एक शक्तिशाली शासक को समर्पित कर दें। गौरतलब
है कि यूरोप में नवजागरण और प्रबोधन काल के दौरान सत्ता की बैधता के श्रोत के रूप
में ईश्वर गायब हो चुका था। लगभग 100 साल बाद, संपत्ति को सब बुराइयों की जड़ मानने वाले रूसो ने इस मान्यता
का खंडन किया। लोग स्भावतः झगड़ालू नहीं होते वे चीजों को लेकर लड़ते हैं।उदीयमान
पूंजीवादी राष्ट-राज्य की वैधता के श्रोत के रूप में उदारवाद ने नए समाज में नए
राज्य की वैधता के श्रोत के रूप में सामाजिक अनुबंध का अन्वेषण किया, जिसे रूसो गुलामी का अनुबंध कहते हैं। यह भी गौरतलब है कि
नवजागरण के दौरान नायकों की एक नई प्रजाति जन्म ले रही थी, संपत्ति के नायक। यह नायक डेढ़ सौ सालों में परिधि से चलकर
केंद्र में स्थापित हो गया। पूंजीवाद के पहले सर्वमान्य प्रवक्ता और संपत्ति के
असीम अधिकार के सिद्धांतकार, जॉन लॉक बिना किसी लाग-लपेट के कहते हैं कि शासन एक गंभीर मसला
है, इसकी जिम्मेदारी उसी को सौंपी जा सकती है जो अपार संपत्ति
अर्जित कर अपनी काविलियत साबित कर चुका हो। यहां उदारवाद की विवेचना की गुंजाइश
नहीं है। लेकिन चूंकि विचारधारा के रूप में समाजवाद का उदय और विकास उदारवाद के
निषेध के रूप में हुआ, जिसने विकास की जनोंमुख समाजवादी अर्थव्यवस्था को मुनाफे के
सिद्धांत पर आधारित पूंजीवाद के विकल्प के रूप में पेश किया, इसलिए एक विहंगम दृष्टिपात प्रासंगिक लगी।
इंगलैंड में
औद्योगिक क्रांति की शुरुआत प्रयलंकारी दुष्परिणामों के साथ हुई। कारीगर और शिल्प
उद्योग से जुड़े लाखों लोग तथा लगभग सारे के सारे स्वतंत्र, छोटे किसान बेघर-बेदर हो गए। प्रतिरोध अशक्त था और ऩई उत्पादन
पद्धति में उत्पादन की नई तकनीकों के उफान के बीच उच्च वर्गों के सभी तपके
बाजार-अर्थतंत्र में अंध आस्था के साथ इस बात पर एकमत थे कि नई व्यवस्था फिलहाल तो
ज्यादातर को विपन्न बना रही है लेकिन अंततः सभी संपन्न हो जाएंगे। उसी तर्ज पर आज
नोटबंदी के समर्थक लोगों की अनचाही दयनीयता को भविष्य का निवेश बता रहे हैं।18वीं
शताब्दी में अंग्रजी उपनिवेश आयरलैंड में महामारी में लाखों मौतों को नसाऊ सीनियर
और रॉबर्ट माल्थ्यूज जैसे उदारवादी अर्थशास्त्री जनसंख्या नियंत्रण के सिद्धांत का
परिणाम बता रहे थे। 19वीं शताब्दी में असह्य काम के हालात, दयनीय मजदूरी और झुग्गी झोपड़ियों की जिंदगी जीते मजदूरों में
असंतोष और प्रतिरोध पैदा होना शुरू हुआ और 19वीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में
शुरुआती समाजवादी मजदूरों के प्रतिरोध के प्रवक्ता बन गए और परिणाम स्वरूप
इंग्लैंड में पहली प्रभावशाली ड्रेडयूनियन का गठन हुआ।
नवोदित
आत्मनियंत्रित पूंजीवादी अर्थतंत्र में श्रम एक सर्जनात्मक मानव कर्म से
खरीद-फरोख्त की सामग्री में तब्दील हो गया। शहरों में लेबर चौराहों की मौजूदगी इसी
का परिचायक है। इतिहास को निजी मुनाफाखोरी का अनचाहा (इनऐडवर्टेंट) परिणाम मानने
वाले जाने-माने उदारवादी अर्थशास्त्री, ऐडम स्मिथ सामाज को बाजार बताते हैं जिसमें हर व्यक्ति
व्यापारी है, जिसके पास बेचने को कुछ और नहीं है, उसके पास अपनी चमड़ी है। उनके अनुसार, बाजार यदि राज्य के हस्तक्षेप से ‘स्वतंत्र’ हो तो वह अपने ‘अदृश्य होथों’ से अपना विकास करने में, सक्षम है। स्मिथ के अदृश्य हाथ, मार्क्स और एंगेल्स को दिख गए और उन्होने आधुनिक राष्ट्र-राज्य
को पूंजीपतियों के सामान्य हितों के प्रबंधन की कार्यकारिणी समिति बताया। मजदूर
श्रमशक्ति मालिक (खरीददार) सुपुर्द कर एक नई पराधीनता का शिकार बन गया। श्रम के
साधन से स्वतंत्रता के साथ कानूनी रूप से दोतरफा स्वतंत्र हो गया वह बाजार की
शर्तों पर श्रम बेचने को स्वतंत्र था तथा ऐसा न कर आत्महत्या करने के लिए. 1844 में प्रकाशित फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक कंडीसन ऑफ वर्किंग
क्लास इन इंग्लैंड में औद्योगिक मजदूरों की बदहाली का वर्णन दिल दहला देता है.
शोषण और ज़ुल्म बढ़ता है तो असंतोष और प्रतिरोध भी पैदा होता है। मेहनतकश की
मुक्ति का मतलब पूंजीवाद के अंत में ही है, ऐसे विचार जोर पकड़ने लगे। यही उदीयमान समाजवादी आंदोलनों का
मूलमंत्र बन गया।
19वीं सदी के
समाजवादी आंदोलनों और विचारों की चर्चा 18वीं सदी के विद्रोही दार्शनिक रूसो की
विरासत के बिना अधूरी रह जाएगी। निजी संपत्ति के चलते सामाजिक असमानता को सब
बुराइयों की जड़ बताने वाले असमानता के उदय और विकास में वर्णित रूसो के विचार
उत्पादन पद्धति पर आधारित मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत का
पूर्वानुमान कराते हैं। सहभागी जनतंत्र में साझी इच्छा(जनरल विल) का रूसो का
सिद्धांत सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत के लिए एक आदिम रुमानी मॉडल पेश करता
है। रूसो सब बुराइयों की जिम्मेजारी निजी
संपत्ति के अन्वेषक के दरवाजे पर रखते हैं और मार्क्स कहते हैं कि उत्पादन के
साधनों का निजी स्वामित्व मजदूरों की दुर्दशा का कारण है। रूसो ने कानून को जनता
के विरुद्ध दूसरा फरेब बताया और जैसा ऊपर कहा गया है, मार्क्स ने राज्य को पूंजीपति वर्ग के सामान्य मामलों की
कार्यकारी समिति की संज्ञा दी। फ्रांसीसी क्रांति का जैकोबिनिज्म का चरण सिद्धांत
और काफी हद तक व्यवहार में भी रूसोवादी था। क्रांति के बाद स्थापित गणतंत्र का
नेतृत्व ज्यादातर रूसो के अनुनायियों का था। रूसो के सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या
की यहां गुंजाइश नहीं है, बस इतना कि वे सामूहिक संप्रभुता के सिद्धांत के प्रवर्तक हैं।
सत्ता की वैधता के श्रोत के रूप में ईश्वर के मंच से बाहर हो जाने के बाद उदारवादी
चिंतकों ने सत्ता की वैधता का श्रोत ‘जनता’ की अमूर्त अवधारणा में स्थापित कर दिया जिसका आम इंसान के अर्थ
में वास्तविक जनता से कुछ लेना देना नहीं है। रूसो ने लोगों में सत्ता के उद्गम की
उदारवादी मान्यता से सहमति जताते हुए कहा कि सत्ता का उद्गम यदि जनता है तो वह उसी
के पास रहनी चाहिए। उन्होने शासक-शासित की विभाजन रेखा को मिटा दिया। रूसो की
व्याख्या तो तथ्यपरक है लेकिन उनका समाधान वायवी (यूटोपियन), पूर्व आधुनिक समतामूलक ग्रामीण समाजों में काम कर सकता है, जिसमें ग्राम सभा की तर्ज पर लोग समय-समय पर मिल कर कानून
बनाएं, लागू करें और पालन करें। औद्योगिक समाज में वैज्ञानिक, समाजवादी सिद्धांत के लिए इतिहास को मार्क्स-एंगेल्स का इंतजार
करना पड़ा। “किसी को भी जनरल विल (सामूहिक इच्छा) के उल्संघन की इजाजत नहीं
होगी, दूसरे शब्दों में हर किसी को आजाद होने को लिए बाध्य किया
जाएगा”। गुलामी अधिकार नहीं हो सकता. इस वाक्य में सर्वहारा की
तानाशाही की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। रूसो मॉंटेस्क्यू, वोल्तेयर, दिदरो आदि अपने समकालीन बौद्धिक हस्तियों से इस मामले में अलग
थे कि उन्होने एक नई चिंतन प्रक्रिया का उद्घाटन किया जिसके तहत समाजवाद उदारवाद
से अलग पहचान बना सका।
समाजवाद का
पहला जिक्र कोआपरेटिव मैगजीन (नवंबर 1827) में मिलता है उसी साल राबर्ट ओवेन
अमेरिका में सहकारी उत्पादन और सामुदायिक जीवन का प्रयोग अमेरिका में कर रहे
थे।समाजवाद की ही तरह साम्यवाद (कम्युनिज्म) का विचार भी इंग्लैंड में नहीं फ्रांस
की धरती पर ही जन्मा। यह पूंजीवादी संस्थानों को समाप्त कर सत्ता पर मजदूरों के
अधिकार की स्थापना का सिद्धांत था। यह बिल्कुल फ्रांसीसी मामला था। धीरे-धीरे इसका
प्रसार पेरिस के जर्मन और अन्य देशों के प्रवासी मजदूरों में होने लगा। फ्रांस में
समाजवाद उन लोगों का विचार और आंदोलन था जो पूंजीवाद को खत्म किए बिना उसमें सुधार
के जरिए असमानता खत्म करना चाहते थे। फ्रेडरिक एंगेल्स ने इनके समाजवाद को वायवयी
समाजवाद कहा तथा कम्युनिस्ट साम्यवाद को वैज्ञानिक, जिसका घोषणापत्र लिखने में वे मार्क्स के सहयोगी थे। संसदीय
रास्ते समाजवाद पैरोकार इंग्लैंड में फेबियन समाजवादी और जर्मनी में कार्ल
कौत्स्की द्वारा उद्घाटित सामाजिक जनतमंत्र (सोसल डेमोक्रेसी) यूटोपियन समाजवाद के
वैचारिक वारिस हैं. य़ूटोपियन समाजवादियों में सेंट साइमन, राबर्ट ओवेन, चार्ल्स फूरियर और ऑगस्ट कॉम्टे प्रमुख थे।
फ्रांस
में 1848 की क्रांति और मजदूरों के जनसंहार से उसके दमन के बाद किसानों के समर्थन
से लुई बोनापार्ट सत्ता में आया और सत्ता पर एकाधिकार जमाकर संसद को अप्रासंगिक
बना दिया। उस समय पूंजीवाद विरोधी दो प्रमुख धाराएं थीं. एक, अराजकतावादी धारा जिसके प्रमुख विचारकों में फ्रांस के प्रूदो
और रूस के बकूनिन तथा क्रोपोत्किन प्रमुख थे. दूसरी कम्युनिस्ट, मार्क्स और एंगेल्स जिसके प्रमुख विचारक और नेता थे।
अराकतावादी दर्शन प्रूदों के एक उद्दरण से समझा जा सकता है –“मेरे ऊपर शासन के लिए जो भी हाथ रखता है वह अत्याचारी और
लुटेरा है, उसे मैं अपना दुश्मन घोषित करता हूं”। अराजकतावाद राज्य को समाप्त करने का हिमायती था साम्यवाद उन
हालात का जिन पर राज्यट टिका है, वह अपने आप बिखर जाएगा। उसी तरह जैसे मार्क्सवाद धर्म को नहीं
समाप्त करना चाहता बल्कि उन हालात का जो धर्म की जरूरत पैदा करते हैं, धर्म अपने आप अप्रासंगिक हो जाएगा। 1840 के दशक में यूरोप में कई शहरों में कम्युनिस्ट लीग नाम से एक
संगठन अपनी पहचान बना रहा था, 1948 में मार्क्स और एंगेल्स ने जिसका घोषणापत्र लिखा। 1864 में साम्यवादियों और अराजकतावादियों ने मिलकर कामगरों का
अंतर्राष्ट्रीय संगठन(इंटरनेसनल एसोसिएसन ऑफ वर्किंग मेन) का गठन किया, जिसे फर्स्ट इंटरनेसनल नाम से भी जाना जाता है। 1871 में पेरिस
कम्यून के दमन के बाद राहत और पुनर्वास में इंटरनेसनल के सदस्यों की प्रमुख भूमिका
थी। 1876 में कम्युनिस्टों और अराकतावादियों में किसानों के मुद्दे पर मतभेद के
चलते फर्स्ट इंटरनेसनल बिखर गया। पेरिस कम्यून की भी चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं
है। यह एक शहर के मजदूरों का विद्रोह था और इसका वमहत्व यह यह कि यह रूसो की जनरल
विल के सामूहिक पहला प्रयोग था और रूसी आंदोलन तक सर्वहारा की तानाशाही का एक
मात्र मॉडल।कम्यून के ज्यादातर नेता मजदूर वर्ग से थे या उनके मान्य प्रतिनिधि।
मजिस्ट्रेट लोगों के चुने प्रतिनिधि थे जो एक आम कामगार के बराबर वेतन पाते थे।
कम्यून 3 महीने में कुचल दिया गया लेकिन रूसो के इस कथन को सत्यापित किया कि
क्रांति वांछनीय ही नहीं, ठोस संभावना है।
1883 में
मार्क्स के निधन के बाद उनके विचारों का प्रसार तेजी से होने लगा तथा हर जगह
मार्क्सवादी समूहों का उद्भव होने लगा। मार्क्स की अंत्येष्टि में कम लोगों की
उपस्थिति को इंगित करते हुए एंगेल्स का कथन कि एक दिन पूरी दुनिया मार्क्स के पक्ष
या विपक्ष में खड़ी होगी, सत्य प्रतीत होने लगा। 1889 में पेरिस में फर्स्ट इंटरनेसनल को
पुनर्जीवन देने के प्रयास में सोसलिस्ट और लेबर पार्टियों का संगठन गठित किया गया
जिसकी बुनियाद पर सोसलिस्ट इंटरनेसनल बना जिसे सेकंड इंटरनेसनल नाम से भी जाना
जाता है। इसके प्रमुख कामों में हैं: 1889 की 1 मई को मजदूर दिवस के रूप में घोषित
करना और मानाना; 8 घंटे काम का अभियान और 1910 में अंतरराष्टीय महिला दिवस की
घोषणा। एंगेल्स, प्लेखानोव और 1905 से लेनिन इसके गणमान्य सदस्यों में थे।
युद्ध की संभावनाओं को देखते हुए युद्धविरोधी अभियान सेकंड इंटरनेसनल का प्रमुख
अभियान था। लेनिन ने इसे साम्राज्यवादी युद्ध करार देते हुए सब देशों के मजदूरों
का आह्वान किया कि वे अपनी बंदूकें अपने ही शासकों पर तान दें। लेकिन रूसी सदस्यों
को छोड़कर सब राष्ट्रोंमाद में बह गए और अपनी अपनी सरकारों की जंगखोरी के सुर में
सुर मिलाने लगे और 1916 में सेकंड इंटरनेसनल बिखर गया। लेनिन की बात रूसी मजदूरों
ने मानी और नवंबर 1917 में अपनी बंदूकें शासकों पर तान कर 10 दिनों में दुनिया हिला
दी। रूसी क्रांति के बाद कम्युनिस्ट इंटरनेसनल(कॉमिंटर्न) का गठन हुआ जिसे थर्ड
इंटरनेसनल के नाम से जाना जाता है। भारतीय क्रांतिकारी मानवेंद्रनाथ रॉय इसकी
दूसरी कांग्रेस में मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में शिरकत
की और लेनिन ने उन्हे औपनिवेशिक सवालों पर नीति निर्धारण समिति में रखा। रॉय ने
1922 में ताशकंद में प्रवासी भारतीयों को लेकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन
किया जिसका पहला सम्मेलन 1925 में कानपुर में हुआ। औपनिवेशिक सरकार इतनी चौकन्नी
हो गई कि सम्मेलन में शिरकत करने वालों की धर-पकड़ शुरू कर दिया। उनपर चला मुकदमा
कानपुर षड्यंत्र मामला नाम से जाना जाता है।
मार्क्सवाद और वर्ग संघर्ष
मार्क्स एक क्रांतिकारी बुद्धिजीवी थे जो पूंजीवादी विकास के
शोषण-दमनकारी व्यवस्था को बदलना चाहते थे जिसके लिए पूंजीवाद के गतिविज्ञान के
नियमों की वैज्ञानिक समझ जरूरी थी। इसकेलिए उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवादी उपादान का
अन्वेषण किया। यहां ऐतिहासिक या द्वंद्वात्मक पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं
है। लेकिन चूंकि रूसी क्रांति के बाद मार्क्सवाद और वर्ग संघर्ष क्रांतिकारी सोच
के पर्याय बन गए इसलिए कुछ प्रमुख अवधारणाओं और निष्कर्षों पर चर्चा जरूरी
है। मार्क्स का अनुमान था कि क्रांति
विकसित पूंजीवादी देशों सो शुरू होगी जहां पूंजीवाद विकास चरम पर होगा तथा
पूंजीवादी अंतर्विरोध परिपक्वता के चरण में होगा। क्रांतिकारी परिवर्तन में दो
कारक होते हैं, आंतरिक और वाह्य। पूंजीवादी अंतरविरोधों की परिपक्वता यानि
पूंजीवाद का संकट आंतरिक कारक है तथा सत्ता पर काबिज़ होने को वर्गचेतना से लैस
सर्वहारा का संगठन। दर्शन की दरिद्रता (पॉवर्टी ऑफ फिलॉस्फी) में मार्क्स लिखते
हैं, “आर्थिक हालात ने देश लोगों को मजदूर बना दिया। पूंजी के आग़ाज
ने इस जनसूह के लिए एक सी स्थियां तथा साझे की हित को जन्म दिया। इस तरह यह जनसमूह
पहले से ही पूंजी के विरुद्ध अपने आप में एक वर्ग है, लेकिन अपने लिए नहीं। संघर्ष के दौरान, जिसके कुछ ही चरणों की चर्चा की है, यह समूह संगठित होकर अपने लिए वर्ग बन
जाता है. जिन हितों की यह रक्षा करता है वे वर्ग हित हैं। लेकिन वर्ग के विरुद्ध
संघर्ष राजनैतिक संघर्ष है”।
ऐतिहासिक भौतिकवाद वह इतिहास को समझने का वह
वैचारिक दृष्टिकोण है जो “सभी प्रमुख ऐतिहासिक परिघटनाओं का कारण और निर्देशक शक्तियों की
उत्पत्ति समाज के आर्थिक विकास में; उत्पादन पद्धति में परिवर्तनों और विनिमय
और परिणाम स्वरूप विभिन्न वर्गों में समाज का विभाजन और वर्ग संघर्ष में निरूपित
करता है”
(फ्रेडरिक एंगेल्स,समाजवाद: वायवी और वैज्ञानिक). ऐतिहासिक भौतिकवाद दर्शन नहीं बल्कि
तथ्यपरक विज्ञान है, या यों कहें कि तथ्यपरक प्रमेयों का समुच्च है. जर्मन विचारधारा में
मार्क्स स्पष्ट करते हैं कि यह प्रणाली न तो किसी दार्शनिक विचारधारा पर आधारित है
न ही किसी स्थापित हठधर्मिता पर बल्कि परिस्थियों का पर्यवेक्षण के आधार पर
प्रमाणित सटीक विवरण पर आधारित है। दुसरे शब्दों में, यह न परिकल्पनों पर दारित है जिन्हें
तथ्य-तर्कों के आधार पर प्रमाणित किया जा सके। मार्क्स, राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक
योगदान की बहुचर्चित प्रस्तावना में लिखते हैं कि उत्पादन का सामाजिक रिश्ता, समाज की आर्थिक संरचना की बुनियाद है “जिस पर कानूनी और राजनैतिक अधिरचनाएं खड़ी
होती हैं और जिसके मुताबिक सामाजिक चेतना का एक निश्चित स्वरूप का निर्माण होता है”। दूसरी तरफ उत्पादन के सामाजिक संबंध “समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियों के विकास
के खास चरण पर निर्भर होता है जो कानूनी, राजनैतिक और बौद्धिक प्रक्रियाओं का निर्धारण
करता है”। जैसे जैसे उत्पादन शक्तियों का विकास
होता है, वे उत्पादन संबंधों के विकास में मौजूदा
उत्पादन संबंधों से टकराती हैं. “तब सामाजिक क्रांति का एक युग शुरू होता है”। यह द्वंद्व समाज को विभाजित करता है और, जैसे जैसे यह द्वंद्व लोगों की चेतना में
बैठने लगता है और लोग संघर्ष से इस द्वंद्व का “उत्पादक शक्तियों के पक्ष में समाधान करते
हैं”। इस निर्णायक के बीज पुराने समाज में ही
अंकुरित हो चुके रहते हैं। पूंजीवीदी उत्पादन प्रणाली का निर्माण सामंती उत्पादन
संबंधों के खंडहर पर हुआ. मार्क्स के अनुसार, यह अंतिम वर्ग समाज होगा और समाज में
प्रागैतिहासिक समानता स्थापित होगी.
दो पेज के दस्तावेज, थेसेस ऑन फॉयरबाक में मार्क्स कहते हैं कि सत्य वही जो तथ्यात्मक
रूप से प्रमाणित हो। “मनुष्य की चेतना भौतिक परिस्थियों का परिणाम है और बदली चेतना बदली
परिस्थितियों की”। लेकिन परिस्थितियां खुद-ब-खुद नहीं बदलतीं, उसके लिए “सचेत मानव प्रयास करना पड़ता है”। इस तरह यथार्थ भौतिक परिस्थियों और
चेतना का द्वंद्वात्मक युग्म है। ऐतिहासिक भौतिकवाद पर चर्चा यहीं समाप्त करते हुए, दो शब्द द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर।
मार्क्स अपने समय की दो स्थापित धाराओं को चुनौती देते हैं और उनको जोड़कर एक नया
सिद्धांत देते हैं। हेगेल का मानना था कि यथार्थ पूर्णतः या काफी हद तक विचारों से
निर्मित है और दृष्टिगोचर जगत विचारों के अदृश्य जगत की छाया मात्र है। मार्क्स
द्वंद्वात्मक उपादान के लिए हेगेल का आभार व्यक्त कर इसे आदर्शवाद कह कर खारिज
करते हैं। उन्होंने कहा कि हेगल ने वास्तविकता को सर के बल खड़ा किया है उसे सर के
बल खड़ा करना है. ऐतिहासिक रूप से वस्तु विचार के बिना रह सकती है लेकिन विचार
वस्तुओं से ही निकलते हैं, आलमान से नहीं। न्यूटन के गुरुतवाकर्षण के सिद्धांत से सेबों का
गिरना शुरू नहीं हुआ बल्कि सेबों का गिरना देख कर उनके दिमाग में उसका कारण जानने
का विचार आया। सेबों के गिरते देखकर ‘क्या’ सवाल का उत्तर दिया जा सकता है, ‘क्यों’ का नहीं।
वैज्ञानिक युग का भौतिकवाद विचारों को सिरे से खारिज करके कहता है भौतिकता
ही सब कुछ है, जिसे
मार्क्स मशीनी भौतिकवाद कह कर खारिज करते हैं। संपूर्ण यथार्थ वस्तु और विचार से
मिलकर बनता है। द्वद्वात्मक भौतिकवाद के नियम हैं: 1. यथार्थ वस्तु और विचार का
द्वंद्वात्मक युग्म है. 2. निरंतर क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन समयांतर में
गुणात्मक क्रांतिकारी परिवर्तन का पथ प्रशस्त करता है. 3. जिसका भी अस्तित्व है
उसका अंत निश्चित है जो पूंजावाद के बारे में भी लागू होता है।
मार्क्स-एंगेल्स कम्यनिस्ट घोषणा पत्र के
शुरू में ही लिखते हैं कि समाज का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है और कम्युनिस्ट
पार्टियों का इतिहास 200 साल से कम। कहने का मतलब यह कि वर्ग समाज में
शोषण-उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध सभी आंदोलन वर्ग संघर्ष के ही हिस्से हैं.
जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है कि मार्क्स का आकलन था कि क्रांति विकसित पूंजीवादी देश
में होगा जहां प्रचुरता का बंटवारा मुद्दा होगा। लेकिन मार्क्स ज्योतिषी नहीं थे।
मार्क्स के विकास के चरण के सिद्धांत से इतर मार्क्सवाद की विचारधारा की पहली
क्रांति रूस में हुई जहां पूंजीवाद लगभग अविकसित था और सामंती उत्पादन संबंध सजीव
थे। औद्योगीकरण के अभाव में किसानों और कारीगरों की संख्या अधिक थी और औद्योगिक
सर्वहारा की बहुत कम। किसानों की लामबंदी के लिए ‘जो जमीन को जोते बोए वह जमीन का मालिक होए’ का नारा दिया गया। यहां क्रांति के
विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है। ईयच कार की बॉल्सेविक क्रांति और जॉन रीड कि
जिन दस दिनों ने दुनिया हिला दी कालजयी कृतियां इसका सटीक लेखा-जोखा प्रदान करती
हैं। इस शताब्दी की शुरआत में लिखी गई ज़ीज़ेक की पुस्तक ऐट द गेट ऑफ रिवल्यूसन
में अप्रैल-सितंबर 1917 के दौरान लेनिन द्वारा लिखे पत्रों और पंफलेट्स का संकलन
भी काफी सूचनाप्रद है।
वर्ग-संघर्ष और
पार्टी
शासक वर्गों के पास अपना वर्चस्व और विशेषाधिकार बरकरार रखने के राज्य
के दमनकारी और प्रोपगंडा उपकरणों समेत बहुत साधन हैं और सर्वहारा साधनविहीन। फिर
सवाल उठता है इतने शक्ति-साधन संपन्न शत्रु से साधनविहीन कामगर वर्ग कैसे लड़े और
नई सामाजिक व्यवस्था कायम करे? लेकिन मार्क्स संदेश की प्रमुख बात यही है कि यह हो सकता है लेकिन
इसके लिए सजग प्रयास करना होगा। जैसा कि मार्क्स के हवाले से ऊपर कहा गया है कि यह
प्रमुखतः पूंजीवादी अंतर्विरोधों की गहनता और रानैतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक अधिसंरचनाओं पर
इसके बहुआयामी प्रभाव पर निर्भर करता है। लेकिन अंततः यह बदलाव लोगों के हस्तक्षेप
तथा कर्म से ही से ही संभव होगा। अपनी भूमिका कारगर रूप से अदा करने के लिए मजदूर
वर्ग और इसके सहयोगियों को संगठित होना पड़ेगा। ‘अपने-आप में वर्ग’ से ‘अपने लिए वर्ग’ बनने के लिए मजदूर वर्ग को अपनी पार्टी
बनानी पड़ेगी लेकिन लोगों के मुद्दों से अलग पार्टी का अपना कोई एजेंडा नहीं होगा।
मार्क्स का जोर मजदूर वर्ग की मुक्ति पर तो था ही, लेकिन यह मुक्ति उनके स्वतः प्रयास से
होनी चाहिए। मार्क्स ने 1864 में फर्स्ट इंटरनेसनल के प्राक्कथन में लिखा है, “मजदूर वर्ग की मुक्ति का संघर्ष मजदूर
वर्ग को स्वयं करना होगा”। मार्क्स के लेखन में मजदूरों के संगठन की जरूरत के ज़िक्र की
बहुतायत के बावजूद उन्होंने संगठन के स्वरूप और संरचना के बारे में कुछ नहीं कहते.
उनका मानना था कि अलग-अलग देशों के मजदूर अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार
संगठन बनाएंगे। एक बात वे जरूर बार बार कहते हैं कि मजदूरों का संगठन मजदूर वर्ग
से अलग ‘पेशेवर साजिशकर्ताओं’ के किसी पंथ की तरह नहीं होना चाहिए।
संगठन का स्वरूप जो भी हो मार्क्स का सरोकार अपनी मुक्ति के लिए मजदूर वर्ग में
वर्गचेतना का विकास है। पार्टी वर्ग की राजनैतिक अभिव्यक्ति और संघर्ष का साधन है।
मार्क्स और एंगेल्स मजदूरों की आत्म मुक्ति
की क्षमता पर आश्वस्त थे। 1879 में उन्होंने एक जर्मन सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी को
फटकारते हुए एक सर्कुलर भेजा जिसमें उन्होने पार्टी की इस समझ को खारिज किया कि
मजदूर वर्ग खुद अपनी मुक्ति का संघर्ष चलाने मे अक्षम है और उसे फिलहाल ‘पढ़े-लिखे’ और ‘संपत्तिवान’ बुर्जुआ वर्ग का नेतृत्व स्वीकार करना
चाहिए जिसके पास मजदूरों की समस्याएं समझने का अवसर होता है। उनके लिए वर्ग पहले
था पार्टी बाद में। लेनिन ज़ारकालीन रूस की विशिष्ट परिस्थियों में एक विशिष्ट
किस्म की पार्टी बनाना चाहते थे जो मजदूरों से यथासंभव संपर्क में रहे। उन्हें भय
था जो उनके बाद सही साबित हुआ कि पार्टी में यदि मजदूर वर्ग लगातार जान न फूंकता
रहे तो वह आमजन से कट कर एक नौकरशाही में तब्दील हो जाएगी। बहुत पहले से वे एक
केंद्रीकृत अधिनायकवादी शासन के विरुद्ध, ‘पेशेवर क्रांतिकारियों’ का संगठन बनाना चाहते थे जिसकी परिणति बाद
में ‘जनतांत्रिक केंद्रीयता’ (डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म’) के सिद्धांत में हुई। इस सिद्धांत के तहत
नीतिगत प्रस्ताव निचली इकाइयों विमर्श से निकले प्रस्ताव केंद्राय नेतृत्व के
विचारार्थ जाना था जो उन्हें समायोजित कर पुन: अंतिम संस्तुति के लिए निचली
इकाइयों को वापस भेजता। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी और कॉमिंटर्न के तत्वाधान
में बनी दुनिया की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों में यह सिद्धांत विकृत हो कर
अधिनायकवादी केंद्रीयता में तब्दील हो गया. कई मार्क्सवादी चिंतक इसे ऊपर से थोपी
राजनीति (पॉलिटिक्स फ्रॉम एबव) कहते हैं।
1914 के
पहले लेनिन ने कभी नहीं कहा कि वे ऐसी पार्टी बनाना चाहते थे जो उन देशों के लिए
उपयुक्त हो जहां पहले से ही ‘राजनैतिक स्वतंत्रता’ हासिल कर ली गई है। क्रांतिकारी प्रक्रिया की प्रगति के लिए संगठन और
दिशा निर्देश की परमावश्यकता पर जोर
मार्क्सवाद में लेनिन का विशिष्ट योगदान है। वे मजदूरों की निष्क्रियता को
लेकर चिंतित नहीं थे, बल्कि इसके चलते संघर्ष के राजनैतिक प्रभाव में कमी और क्रांतिकारी
उद्देश्य में भटकाव को लेकर चिंतित थे। इसीलिए पार्टी की परमावश्वयकता को विशेष
रूप से रेखांकित करते हैं जिसके दिशा निर्देश और नेतृत्व के बिना मजदूर वर्ग का
संघर्ष विसंगतियों और दिशाहीनता का शिकार हो जाएगा। गौरतलब है रूस पश्चिमी यूरोप
के विकसित पूंजीवादी देशों की तरह बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रांति या मार्क्स के
शब्दों में ‘राजनैतिक
मुक्ति’
के दौर से नहीं गुजरा था। इसीलिए जारशाही
को उखाड़ फेंक समाजवादी फतेह के लिए मजदूरों की एक अनुशासित हिरावल दस्ते के
निर्माण पर बल दिया।
इसके बावजूद
लेनिन भली भांति जानते थे कि जनता के अनभवों में घुले-खपे-जुड़े बिना पार्टी अपना क्रांतिकारी उद्देश्य नहीं पूरा कर
सकती। जब भी पार्टी में खुली बहस का मौका मिला – 1905; 1917 और उसके बाद – उन्होने पार्टी में नौकरशाही प्रवृत्ति पर
करारा प्रहार किया। क्या करना है? (व्हाट इज़ टू बी डन?) और राज्य और क्रांति में अनुशासित संगठन की जरूरत पर जोर देने के
बावजूद कामगर आवाम से पार्टी के जैविक संबंधों की बात को उन्होने हमेशा तवज्जो
दिया। 1920
में वामपक्षी साम्यवाद: एक बचकानी उहापोह
(लेफ्टविंग कम्युनिज्म: ऐन इन्फेंटाइल डिसॉर्डर) में लेनिन लिखते हैं, “इतिहास, खासकर क्रांतियों का इतिहास अपनी
अंतर्वस्तु में सर्वाधिक वर्ग चेतना से लैस, सर्वाधिक उन्नत वर्गों के हरावल दस्ते से
अधिक विविधतापूर्ण, अधिक बहुआयामी, अधिक जीवंत और अधिक निष्कपट है”। इसके बावजूद उन्होंने क्रांतिकारी
प्रक्रिया में पार्टी की अहम भूमिका को उन्होने नहीं नकारा, न ही मजदूर वर्ग के साथ इसके संबंधों को
कमतर करके आंका। वे रोज़ा लक्ज़म्बर्ग की ही तरह पार्टी की केंद्रीय समिति को
गलतियों से परे न मानने के बावजूद एक सुगठित संगठन के पक्षधर थे। ज़ारकालीन रूस की
परिस्थियों में लेनिन एक विशिष्ट तरह की पार्टी के पक्षधर थे लेकिन सर्वहारा की
तानाशाही या पार्टी (नेतृत्व) की तानाशाही के जवाब में उन्होंने कहा, “मौजूदा हालात में वर्ग का प्रतिनिधित्व
पार्टी ही कर सकती है”।
रोज़ा
लक्ज़म्बर्ग ने 1918 में रूसी क्रंति नाम शीर्षक से लिखी पुस्तिका में
रूस की खास परिस्थियों में बॉलसेविक दल की प्रशंसा करते हुए लिखा था, “बॉलसेविकों ने प्रमाणित कर दिया
है कि ऐतिहासिक संभावनाओं की सीमा में एक सच्ची क्रांतिकारी पार्टी जो भी कर सकती
है उसमें वे सक्षम हैं। उनसे किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए”। साथ ही उन्होंने आगाह किया था
कि खास परिस्थियों में अपनाई गई रणनीति को अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति के
मॉडल के रूप में नहीं पेश करना चाहिए। लेकिन जैसा कि अब इतिहास बन चुका है, सवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी
और तदनुसार कॉमिंटर्न ने उनकी सलाह दरकिनार कर रूसी क्रांति को अंतर्राष्ट्रीय
सर्वहारा मॉडल की तरह पेश किया और सर्वहारा की तानीशाही को पार्टी और पार्टी
नेतृत्व की तानाशाही में तब्दील हो गयी। कॉमिंटर्न लेनिन की भी सलाह को दरकिनार कर पार्टी में नौकरशाही को
पनपने दिया जिसकी अंतिम परिणति सोवियत संघ के पतन में हुई। चूंकि रूस में
पूंजीवादी क्रांति नहीं के अभाव में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की दुहरी
जिम्मेदारी थी, औद्योगिक
विकास और समाजवाद का निर्माण। पहली जिम्मेदारी इसने बखूबी निभाकर साबित कर दिया कि
राज्य नियंत्रित पूंजीवाद निजी मुनाफे पर आधारित पूंजीवाद से तेज आर्थिक विकास
होता है. दूसरे विश्वयुद्ध तक 15-20 सालों में ही सर्वाधिक
शक्तिशाली पूंजीवादी देश अमेरिका के समतुल्य आर्थिक और सैनिक शक्ति बन गया। पार्टी
में अलोकतांत्रिक एकाधिकारवाद और नितृत्व से असहमत क्रांति के साथियों के सफाया और
कारावास की कहानियों की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, न ही दूसरे विश्वयुद्ध के बाद
शीतयुद्ध के दौर में पूंजीवादी साम्राज्यवाद
से प्रतिस्पर्धात्मक वर्चस्व की लड़ाई में सामाजिक साम्राज्यवाद पर चर्चा
की। इन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। रंधीर सिंह की पुस्तक समाजवाद का संकट में
इसका सटीक विश्लेषण किया गया है। स्टालिन की मृत्यु के बाद पार्टी नेतृत्व ने
सोवियत संघ को सब लोगों का राज्य घोषित कर दिया।
औपनिवेशिक
सवाल और भारत
जैसा
कि ऊपर कहा जा चुका है कि रूसी क्रांति के बाद दुनिया के मजदूर वर्ग के संगठनों के
एक अंतरराष्ट्रीय मंच के रूप में 1919 में तीसरे इंटरनेसनल के रूप में कम्युनिस्ट
कम्युनस्ट इंटरनेसनल (कामिंटर्न) का गठन हुआ। कॉमिंटर्न का पहला अधिवेशन क्रांति
के बाद की समस्याओं, राज्य
मशीनरी के गठन और यूरोप में मजदूर आंदोलनों की संभावनाओं के मद्दों पर केंद्रित
था। 1920 में औपनिवेशिक सवाल प्रमुख मुद्दों में शामिल था। बंगाल की भूमिगत
क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन के युवा सदस्य मानवेंद्रनाथ रॉय जर्मनी से आने वाले जहाज से हथियार प्राप्त करने के लिए
निकले थे लेकिन हथियार तो उन्हें मिले नहीं और वे जावा, सुमात्रा, जापान होते हुए अमेरिका के
सैनफ्रांसिस्को पहुंच गये। वहां उनकी मुलाकात एवलिन से हुई जिनके जरिए वे
मार्क्सवाद से परिचित हुए और बाद में उनके साथ बैवाहिक संबंध बने। एवलिन रॉय के
साथ रूसी मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कॉंग्रेस भाग लेने गए और जैसा
उपर कहा गया है, मेक्सिकन
कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में कॉमिंटर्न की दूसरी कांग्रेस में शिरकत
की। लेनिन के नेतृत्व में गठित औपनिवेशिक मुद्दों की समिति में शामिल हुए।
औपनिवेशिक
देशों में मुख्य अंतर्विरोध उपनिवेशवाद का था और कांग्रेस के नेतृत्व में
राष्ट्रीय आंदोलन के के बारे में लेनिन की
थेसिस की वैकल्पिक थेसिस पेश की जिसे रॉय जिसे अनुपूरक थेसिस के रूप में शामिल
किया गया। यहां लेनिन-रॉय बहस पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। लेनिन की
औपनिवेशिक समस्या की समझ ज्यादा तथ्य परक थी। उनका मानना था कि उपनिवेशों के
राष्ट्रीय आंदोलन प्रगतिशील हैं और कम्युनिस्टों को अपनी अलग अस्मिता के बनाए रखते
हुए उनमें शिरकत करके उसके जनवादीकरण की कोशिस करनी चाहिए। रॉय का मानना था कि जिस
तरह यूरोप के जिन देशों में पूंजीवादी विकास से से हुआ वहां के पूंजीपति वर्ग ने
सामंतवाद को खत्म करने के बजाय उससे समझौता कर लिया था उसी तरह राष्ट्रीय आंदोलन
के नेता भी अंततः साम्राज्यवाद से समझौता कर लेंगे। और यह कि भारत का सर्वहारा
अपने दम पर उपनिवेशवाद और सामंतवाद से लड़ने में सक्षम है। गौरतलब है कि सर्वहारा
की राजनैतिक और आर्थिक मौजूदगी नगण्य थी। 1928 में कॉमिंटर्न की छठी कांग्रेस में
राष्ट्रीय आंदोलन से दूरी बनाने की रॉय की थेसिस को अपनाया लेकिन रॉय को कॉमिंटर्न
से निकाल दिया गया। लेनिन की थेसिस के अनुरूप भारत में कम्युनिस्ट पार्टी ने
वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी (डब्लूपीपी) बनाकर राष्ट्रीय राष्ट्रीय आंदोलन में
जी-जान से शिरकत की। साइमन कमीसन के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन में प्रशंसनीय भूमिका
निभाया और औद्योगिक शहरों में ट्रेड यूनियनों और गांवों में किसान संगठनों का गठन
शुरू किया। रॉय के कॉमिंटर्न से निष्कासन के साथ ही ट्रेड यूनियन आंदोलन भी दो
फाड़ हो गया। 1921 में रॉय ने प्रवासी भारतीयों के साथ ताशकंद में भारत की
कम्युनस्ट पार्टी का गठन किया था जिसका पहला अधिवेशन कानपुर में 1925 में हुआ जिससे औपनिवेशिक सरकार के कान
खड़े हो गए और देश भर में कम्युनिस्टों की धर-पकड़ शुरू हो गयी। इस मुकदमें को
कानपुर षड्यंत्र मामले के नाम से जाना जाता है। 1928 में कॉमिंटर्न का फैसला मानकर
कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय आंदोलन से अलग-थलग हो गई और डब्लूपीपी भंग हो गई तथा
कांग्रेस के वामपंथी सदस्यों को सामाजिक फासीवादी करार दिया। 1929 में औपनिवेशिक सरकार को लगा कि भारत की कम्युनिस्ट
पार्टी(सीपीआई) कॉमिंटर्न के विचारों का प्रसार करके हड़ताल और सशस्त्र विद्रोह के
जरिए सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिस कर रही है। सरकार ने सीपीआई को अवैध घोशित
करके ट्रेडयूनियन नेताओं की धरपकड़ शुरू कर दिया। 1929 से 1933 तक चले मुकदमें को
मेरठ षड्यंत्र केस के नाम से जाता था। गिरफ्तार लोगों में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ
ग्रेट ब्रिटेन(सीपीजीबी) के तीन अंग्रेज सदस्य भी थे। इन केसों की विस्तृत चर्चा
की गुंजाइश नहीं है लेकिन मार्क्स की इस बात को दरकिनार कर कि हर देश के मजदूर
अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार संगठन बनाएंगे, कॉमिंटर्न के निर्देश में
राष्ट्रीय आंदोलन से अलग होकर लोगों में विश्वनीयता खोया और सरकार ने इसे अवैध
घोषित कर दिया।
कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में मार्क्स ने लिखा
कि पूंजीवाद ने समाज को दो विरोधी खेमों—पूंजीपति और सर्वहारा खेमों में
बांट दिया क्यों कि यूरोप में नवजागरण और प्रबोधन काल(एज ऑफ एन्लाइटेनमेंट) ने
जन्मजात योग्यता को खत्म कर दिया था लेकिन भारत में जाति आधारित सामाजिक विभाजन आज
भी नहीं खत्म हुआ है। सीपीआई ने मार्क्सवाद को समाज को समझने और बदने के उपादान के
रूप में न अपनाकर मॉडल के रूपमें अपनाया। भारत के कम्युनिस्टों ने जातिवाद को
एजेंडे पर नहीं रखा जो अंबेडकर ने किया। इस मुद्दे पर बहस की गुंजाइश यहां नहीं है
वह एक अलग चर्चा का विषय है। 1934 में “मार्क्सवादी विचारधारा से
प्रभावित आचार्य नरेंद्रदेव और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस सोसलिस्ट
पार्टी की स्थापना की जिसमें अवैध कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी शामिल थे। ईयमयस
नंबूदरीपाद इसके सह सचिव थे। किसान-मजदूरों की दृष्टिकोण से 1934-42 का दौर एक तरह
से स्वर्णिम दौर था जिसमें सीयसपी के नेतृत्व में अखिल भारतीय किसान सभा और ट्रेड
यूनियन एक सशक्त ताकत बन गए। सीयसपी के युद्धविरोधी प्लेटफॉर्म को झटका देते हुए
सोवियतसंघ पर नाजी हमले से सीयपी के कम्युनिस्ट सदस्य युद्ध के समर्थक हो गए।
आजादी के बाद सीपीआई और सोसलिस्ट पार्टियां
नेहरू सरकार के साथ सहयोग और विरोध पर बहस करते रहे। कई कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट
कांग्रेस में चले गए। विचारों के प्रसार के लिए चुनाव में शिरकत करने की नीति ने
सीपीआई को चुनावी पार्टी में तब्दील कर दिया। 1960 के दशक से शुरू कम्युनिस्ट
आंदोलन में फूट और धीरे-धीरे हासिए पर चले जाने की कहानी इतिहास बन चुकी है। लगभग
डेढ़ सौ साल पहले मार्क्स ने हेगेल को उल्टा खड़ा कर दिया था, भारत के कम्युनिस्टों ने
मार्क्सवाद को उलट दिया।
मार्क्सवादी सिद्धांतो पर हुई चीन, क्यूबा, वियतनाम आदि क्रांतियों पर भी
चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है। यह लेख इस उम्मीद के साथ खत्म करता हूं कि रूसी
क्रांति के शताब्दी वर्ष में ऐसे हालात बनें कि कि चिर प्रतीक्षित एक नए इंटरनेसनल
के हालात बनें और दुनिया के हर देश में ऐसे विप्लवी दस दिन के के हालात बनें जिससे
दुनिया एक बार फिर हिल उठे।
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