मैं तो प्रकारांतर से सभी को यही समझाता हूं कि हम सब किसी-न-किसी अर्जित व कुदरती श्रमशक्ति से संपन्न साधारण इंसान हैं, जिन्हें पूंजीवाद ने श्रम के साधनों से आजाद कर दिया है, यानि "बाजार भाव" पर श्रमशक्ति बेचने को अभिशप्त। हम यह समझ न पाएं इसलिए शासक शासित (श्रमिक) को कृतिम अंतर्विरोधों (जाति, धर्म, भाषा..) की मिथ्याचेतना के मकड़जाल जाल में फंसाकर प्रमुख (आर्थिक) अंतर्विरोध की धार कुंद करता है। हिंदू जातिव्यवस्था की तरह पूंजीवाद के मिरामिडी ढांचे में सबसे नीचे के पांयदान को छोड़कर हर किसी को अपने से नीचे देखने को मिल जाता है। ज्यादा मजदूरी वाला मजदूर मालिक होने की खुशफहमी पाल लेता है। इन्ही परिस्थियों को अनुकूल बनाना है, कमान हमेशा युवा हाथों में रहती है।
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