Dinesh Pratap Rao Dixit & DS Mani Tripathi मित्र, ऊपर पोस्ट में यही स्पष्ट किया गया है कि जिस तरह जनेऊ तोड़ना 13 साल के देहाती बालक की सामाजिक चेतना के स्तर पर सोचा-समझा चुनाव था, उसी तरह नाम के पुछल्ले के तौर पर मिश्र को ढोते रहना। जिस तरह जनेऊ की न जरूरत थी न औचित्य, उसी तरह मिश्र हटाने की न जरूरत है न औचित्य। एक बार चुंगी पर किसी सवाल के जवाब में कहा था कि प्रकृति द्वंद्वात्मक है। वर्गसमाजों में हर व्यक्ति के स्व के दो भाग होते हैं -- स्व का स्वार्थबोध और स्व का न्यायबोध। स्वार्थबोध पर परमार्थ(न्याय)बोध को तरजीह देने वाला स्वार्थी से ज्यादा सुखी रहता है। शिक्षक को प्रवचन से नहीं मिशाल से पढ़ाना होता है, बाप को भी।जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से ऊपर उठने के लिए 'बाभन से इंसान बनने' के मुहावरे का ईजाद करने वाले को सबसे पहले खुद बाभन से इंसान बनकर दिखाना होगा।अपने सिद्धांत को व्यवहार में जीना पड़ता है। प्रैक्सिस ( सिद्धांत-व्यवहार की एकता) का सिद्धांत तथा आत्मालोचना का सिद्धांत मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणाएं हैं। ब्राह्मणवाद (वर्णाश्रमवाद या जातिवाद) की क्रूर विसंगतियों की समझ तथा उन्हें उजागर करना, जन्मना एक ब्राह्मण ईश मिश्र की आत्मालोचना है। जहां तक ब्राह्मणवादियों या नवब्राह्मणवादियों की गालियों का सवाल है, उन्हें मैं कॉम्लीमेंट की तरह लेता हूं, बस कभी-कभी भूल जाता हूं कि 42 साल पहले 20 साल का था, और ट्रोलों को तैश में उन्हीं की भाषा में जवाब देकर पछताता हूं। यह भी जीवन का हिस्सा है। वैसे तो इतिहास की वैज्ञानिक समझ और वैज्ञानिक सामाजिक चेतना के निर्माण का नैतिक दायित्व मिश्रों, दीक्षितों, त्रिपाठियों...... का ज्यादा है, क्योंकि उन्हें बौद्धिक संशाधनों की पारंपरिक सुलभता रही है। वंचित तपकों को जैसे ही बौद्धिक संसाधनों की सुलभता हुई, उन्होंने वैकल्पिक वेद लिखना शुरू कर दिया, शंबूकों ने तीरंदाजी भी सीख ली और एकलव्यों ने अंगूठे के बिना तीर चलाने के साथ, कलम भी उठा लिया है। एक मिश्र की ब्रह्मणवाद की आलोचना, आत्म-अपराधबोध की भी अभिव्यक्ति है। जिन लोगों ने ज्ञान का पौराणीकरण करके उसपर अएकाधिकार के जरिए समाज की बहुसंख्यक प्रतिभा की व्यर्थता के जरिए समाज में जड़ता संचार के दोषियों में हमारे पूर्वज भी हैं।
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