Sunday, May 6, 2018

शिक्षा और ज्ञान 157 (भाषा की आक्रामकता)

आनन्द संयोग कह लीजिए। कौन कहां पैदा हो गया, यह एक जीववैज्ञानिक दुर्घटना है, इसमें उसका कोई योगदान नहीं है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप कहां पैदा हो गए, महत्वपूर्ण यह है कि कहीं भी पैदा होकर कोई आप की इतिहास समझने की अंतर्दृष्टि का विकास (अविकास) विरास में मिले पूर्वाग्रह-दुराग्रहों (संस्कार) पर आधारित है या विवेकसम्मत समीक्षा पर? कई जगहों पर आक्रामक भाषा का इस्तेमाल जाबूझकर करता हूं। कल एक बहुत पुराने, बहुत अंरंग मित्र ने भी भाषा की आक्रामकता खत्म या कम करने की सलाह दी। इस पर पुनर्विचार कर रहा हूं। मामला टैक्टिक (रणनीति) और स्ट्रेड्जी (कार्यनीति) के सामंजस्य का है। कुछ और लिख रहा था, ज्यादा विवादास्पद, आपने फंसा दिया। गंभीर सवाल टाल जाना शिक्षकीय नैतिकता के खिलाफ है, मैं अपने उन चंद विद्यार्थियों को ज्यादा प्यार से याद करता हूं जिन्होंने कभी भी असहज लगने वाले सवाल पूछा। मैं उन्हें पहली ही क्बलास में बताता हूं कि किसी भी ज्ञान की कुंजी है, सवाल -- अपनी मानसिक बनावट से शुरू कर हर बात पर सवाल। जब कोई विद्यार्थी मुझ पर सवाल करता है, मुझे लगता है कि मेरे विद्यार्थी-मित्र मेरी बातें गंभीरता से लेते हैं। इसे मैं अपनी कामयाबी मानता हूं। मित्र आपने नॉस्टेल्जिया दिया। वापस भाषा की आक्रामकता पर आते हैं, मुझे लगता रहा है कि स्लो डोज की तुलना में, शॉक-ट्रीटमेंट ज्यादा कारगर हो! इस पर पुनर्विचार करूंगा। विचारों पर पनर्विचार की कोई उम्र नहीं होती। हमारा मकसद सामाजिक चेतना का जनवादीकरण, यानि ‘बाभन से इंसान बनने’ में लोगों की मदद करना, अपनी लड़ाई वे खुद लड़ लेंगे। जिसमें जरूरत है बात ज्यादा-से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना, न कि विद्वता बघारना। बाभन से इंसान बनना मैंने एक मुहावरा ईजाद किया जिसका, मललब है कि जन्म के संयोग से मिली अस्मिता की प्रवृत्ति-संस्कारों से ऊपर उठकर अपने अध्ययन-चिंतन के आधार पर, विचार-कर्मों में एक विवेक सम्मत अस्मिता का निर्माण। लेकिन लगता है लोग मुहावरे का अर्थ खोजने की बजाय निहितार्थ खोजने लगते हैं। फिलहाल, इस मुहावरे पर पुनर्विचार के लिए, इसका स्तेमाल मुल्तवी करता हूं। कई नजीरें हैं, मगर फिर कभी। काम या विचार के आधार पर किसी के व्यक्तिव का मूल्यांकन, ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है। ऐसा करने वाले जन्मना अब्राह्मण नवब्राह्मणवादी, एक दूसरे के सहोदर। दोनों, जाने-अनजाने सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के बराबर बड़े वैचारिक स्पीडब्रेकरर्स हैं, एक-दूसरे के पूरक।

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