एक संवेदनशील, चिंतनशील इंसान होने के नाते हमें यह बात समझना चाहिए कि हमसब मूल रूप से एक समान इंसान पैदा होते हैं, विशिष्ट प्रकृति-प्रदत्त प्रतिभा की संभावनाओं के साथ। कोई कहीं; कोई कहीं और। चूंकि विशाष्ट प्रतिभाएं प्रकृत्तिदत्त है तो उसके लिए न किसी की अभ्यर्थना होनी चाहिए न जिसके पास नहीं है उसकी भर्त्सना। महत्वपूर्ण यह है कि उस प्रतिभा का समाज की बेहतरी में क्या भूमिका है। इस पर नहीं यहां कुछ कहूंगा कि किसी को पनी संभावनाओं को वास्तविकताओं में बदलने का समुचित माहौल, शिक्षा-संसाधन मिल पाते हैं किसी को नहीं। इस पर भी नहीं कि अगर हम सजग रहें तो अनवरत आत्मान्वेषण करते हैं। पूंजीवाद में श्रम के साधनों मुक्त हम अपने सर्जक श्रम किसी-न-किसी श्रमशक्ति में तब्दील कर पूंजी सत्ता की सेवा में समर्पण को हम अभिशप्त है। पूंजीवादी ढांचा ब्राह्मणवाद (जाति व्यस्था) की तरह पिरामिडल है जिसमें सबसे नीचे वाले को छोड़ कर हर किसी को अपने से नीचे देखने देखने के लिए कोई न कोई मिल जाता है। आज दोनों ने हाथ मिला लिया है। कहने
कि मकसद यह कि कहीं भी पैदा होकर, ऊंची-नीची किसी कीमत पर श्रमशक्ति सबका सम्मान- आत्म सम्मान समान होना चाहिए , सबके मानवाधिकार समान होने चाहिए, सबको प्रकृति के इस नियम का पालन करना चाहिए कि औरों के साथ वह न करें जो अपने साथ बुरा लगता। उस कश्मीरी कारीगर को बोनट में बांधकर गांव-गांव गांव घुमाने के मामले में भी यही बात लागू होती है।
29.05.2015
कि मकसद यह कि कहीं भी पैदा होकर, ऊंची-नीची किसी कीमत पर श्रमशक्ति सबका सम्मान- आत्म सम्मान समान होना चाहिए , सबके मानवाधिकार समान होने चाहिए, सबको प्रकृति के इस नियम का पालन करना चाहिए कि औरों के साथ वह न करें जो अपने साथ बुरा लगता। उस कश्मीरी कारीगर को बोनट में बांधकर गांव-गांव गांव घुमाने के मामले में भी यही बात लागू होती है।
29.05.2015
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