इतिहास का
पुनर्मिथकीकरण 3
भगवतगीता के इतिहासीकरण
के निहितार्थ
ईश मिश्र
किसी भी
समाज/समुदाय/व्यक्ति पर बलपूर्वक गुलामी थोपने के बाद की दीर्घ दूरगामी बनाने के लिए, उसे इतिहास से
वंचित कर दीजिए। लेकिन गतिज ऊर्जा से परिपूर्ण मनुष्य का मस्तिष्क देर-सवेर अपना
इतिहास खोज ही लेता है। आधुनिक काल में औपनिवेशिक आक्रामकों द्वारा ‘अफ्रीका विजय’
के बाद दासता तथा दासव्यापार की पुनर्स्थापना और उसके औचित्य एवं वैधता के लिए
नस्लवाद की विचारधारा का ईजाद इसका ज्वलंत उदाहरण है। औपनिवेशिक डकैतें ने पहले
अफ्रीकी मूल के लोगों को बलपूर्वक गुलाम बनाया और असमानताओं अपने प्राचीन दार्शनिक
प्र-पितामह अरस्तू के पदचिन्हों पर चलते हुए, दासता के औचित्य में नस्लवाद की
विचारधारा का ‘अन्वेषण’ किया। देश-काल अंतर के बावजूद इसकी तुलना, ‘ब्रह्मा की
रची’ वर्णाश्रमी गुलामी से की जा सकती है, जिसकी वैधता और औचित्य के लिए मिथकों
तथा पुराणों के रथ पर सवार ब्राह्मणवाद की विचारधारा गढ़ी गयी। ऐतिहासिक तथ्यों को
मिथकीय बनाकर पुराण लिखे गए। ब्राह्मणवादी बुद्धिजीवियों ने न सिर्फ समाज के बहुजन
को इतिहास से वंचित किया बल्कि अपनी भी भविष्य की पीढ़ियों को, जो खुद भी पौराणिक कथाओं
को वास्तविक ऐतिहासिक घटनाएं मानने लगीं, जो जाने-अनजाने में आत्म-छल का शिकार
होती रहीं। इतिहास से वंचित समाज हजारों साल वर्णाश्रमी दासता का बोझ ढोता रहा और
200 साल औपनिवेशिक। औपनिवेशिक शासक वर्गों द्वारा अपनी औपनिवेशिक जरूरतों के लिए
भारत में आधुनिक (पाश्चात्य) शिक्षा की शुरुआत तथा उसकी सार्वजनिक सुलभता की नीति
का उपपरिणामस्वरूप, ब्राह्मणवाद में शिक्षा से वंचित तपकों – स्त्री; दलित;पिढड़े
और आदिवासी – को भी शिक्षा की सुलभता का सैद्धांतिक अधिकार प्राप्त हो गया।
पौराणिक ज्ञान पर एकाधिकार के चलते ब्राह्मणवादी वर्चस्व का राज, आधुनिक,
वैज्ञानिक शिक्षा से लैस इन तपकों की समझ में आने लगा। इन्होंने ब्रह्मा के विधान
के विरुद्ध बिगुल बजा दिया और पुराणों का पाखंड खंड-खंड करना शुरू कर दिया।
ब्राह्मणवाद ने शातिराना अंदाज में हिंदुत्व की खोल ओढ़ ली। इतिहास के
पुनर्मिथकीकरण के माध्यम से इतिहास पुनर्लेखन की भारत सरकार की कवायत, ब्रह्मणवाद
की पुनर्स्थापना तथा बहुजन को इतिहास तथा ज्ञानार्जन से पुनर्वंचित करने की
सोची-समझी साजिश का हिस्सा है। शिक्षा के उच्च संस्थानों पर सरकारी और भक्तिवादी
हमलों तथा पिछले दरवाजे से ऑटोनॉमी के नाम पर, सार्जनिक शिक्षा संस्थाओं के
निजीकरण के सरकारी प्रयासों से इसे जोड़कर ही समग्रता में समझा जा सकता है।
पुराण इतिहास का
मिथकीकरण है इसलिए पुराण से इतिहास समझने के लिए, पुराणों के अमिथकीकरण की जरूरत
है। चूंकि पिछले लगभग साढ़े तीन दशकों से राम के जन्मस्थान और जन्मदिन के नाम पर
मुल्क में सांप्रदायिक नफरत और लामबंदी का उद्यम फल-फूल रहा है, इसलिए पिछले लेख
में (फॉर्वर्डप्रेस, 18 अप्रैल, 2018) रामायण के अमिथकीकरण के माध्यम से उसके
इतिहासीकरण के निहितार्थों को उजागर करने की कोशिस करता है। नरेंद्र मोदी ने
प्रधानमंत्री के रूप में अपनी विदेश-यात्राओं के दौरान मेजबान राष्ट्राध्यक्षों को
गीता भेंट करना शुरू किया तो विदेशमंत्री, सुषमा स्वराज का भक्तिभाव इस कदर जागा
कि उन्होंने इसे राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की मांग कर दिया। यह, दरअसल,
ब्राह्मणवादी कर्मकांड तथा वर्णाश्रमी श्रेणीबद्धता के विरुद्ध बौद्ध वैचारिक-सामाजिक
क्रांति के बाद ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि के पौराणिक प्रयासों
का हिस्सा है। बाबा साहब अंबेडकर ने गीता पर अपने लेख (अधूरे), ‘प्रतिक्रांति
की दर्शनिक पुष्टि: कृष्ण और उनकी गीता’[1] में
शीर्षक की सार्थकता तथ्य-तर्कों तथा दृष्टांतों से स्थापित किया है। डॉ अंबेडकर ने
उक्त लेख में गीता पर विविध विमर्श तथा गीता के श्लोकों के दृष्टांतों एवं उनके
अंतर्विरोधों तथा विसंगतियों के माध्यम से दर्शाया है कि गीता न तो बाइबिल या
कुरान की तरह कोई धार्मिक ग्रंथ है, न ही दार्शनिक। इस बारे में उक्त निबंध से एक
लंबा उद्धरण अप्रासंगिक नहीं होगा।
“गीता में जो कुछ कहा गया है, उसके बारे में इतने
भिन्न-भिन्न मतों का होना केवल आश्चर्य की बात नहीं हैं। कोई भी व्यक्ति यह पूछ
सकता है कि विद्वानों में इतना मतभेद क्यों है? इस प्रश्न के
उत्तर में मेरा निवेदन है कि विद्वानों ने ऐसे लक्ष्य की खोज की है, जो मिथ्या है। वे इस अनुमान पर भगवद्गीता के संदेश की खोज करते हैं कि
कुरान, बाइबिल अथवा धम्मपद के समान भगवतगीता भी किसी धार्मिक
सिद्धांत का प्रतिपादन करती है। मेरे मतानुसार यह अनुमान ही मिथ्या है। भगवद्गीता
कोई ईश्वरीय वाणी नहीं है, इसलिए उसमें कोई संदेश नहीं है और
इसमें किसी संदेश की खोज करना व्यर्थ है। निस्संदेह यह प्रश्न पूछा जा सकता है :
यदि भगवद्गीता कोई ईश्वरीय वाणी नहीं है, तो फिर यह क्या है?
मेरा उत्तर है कि भगवद्गीता न तो धर्म ग्रंथ है और नही यह दर्शन का
ग्रंथ है। भगवद्गीता ने दार्शनिक आधार पर धर्म के कतिपय सिद्धांतों की पुष्टि की
है।”[2]
धार्मिक
ग्रंथ के रूप में गीता की मान्यता का श्रोत कोई सनातन संस्था या न्यायिक परंपरा
नहीं है, बल्कि प्रकारांतर से, अंग्रेजी न्यायप्रणाली है। इंगलैंड में बाइबिल को
धर्मग्रंथ माना जाता रहा है और यह भी कि धर्मग्रंथ की शपथ खाकर कोई झूठ नहीं
बोलता। वास्तविकता का अलग होना, अलग बात है। इसीलिए वहां की अदीलतों में,
शिकायतकर्ता; आरोपी तथा गवाहों द्वारा संविधान की बजाय बाइबिल की कसम खाकर बयान
दर्ज कराने की परंपरा रही है। यह न्याय प्रणाली भारत में लगू करने में इस्लाम के
अनुयायियों के मामले में कोई दिक्कत नहीं हुई, क्योंकि बाइबिल की ही तरह कुरान को
भी धर्मग्रंथ माना जाता है। लेकिन हिंदुओं के पास ऐसा कोई एक धार्मिक ग्रंथ ही
नहीं है, जिसे वैविध्यपूर्ण हिंदू समाज का धर्म ग्रंथ कहा जा सके। हमारे यहां सच
बोलने के लिए किसी ग्रंथ की शपथ खाने की परंपरा नहीं रही है, बल्कि किसी
इष्ट-अभीष्ट देवता या किसी प्राकृतिक शक्ति की[3]। कब और किसके परामर्श से औपनिवेशिक अदालतों में
सच बोलने के लिए गीता की शपथ दिलायी जाने लगी, अलग शोध का विषय है।
डा. अंबेडकर ने उक्त लेख में इसके अंतविरोधों और असंगतियों का विधिवत
खुलासा किया है, जिनकी व्यापक चर्चा की गुंजाइश नहीं है। इस लेख
मकसद द्वापरयुग की तथाकथित अतिप्राचीनता के ऐतिहासिक (यानि, पौराणिक) संदर्भ में
इसके नायक, स्वघोषित ईश्वर के संदेशों के सार के निहितार्थों की संक्षिप्त समीक्षा
की है।
महाभारत का द्वापर
युग
रॉयटर को दिए अपने
साक्षात्कार में, संस्कृति मंत्री, महेश शर्मा ने आस्थाजन्य इतिहासबोध का परिचय
देते हुए बताया कि “उनकी सरकार देश की पहली सरकार है, जिसने इतिहास के मौजूदा
संस्करण को चुनौती दी है”। संस्कृति मंत्री मेडिकल के छात्र रहे हैं, उनके
इतिहासबोध की अवैज्ञानिकता समझी जा सकती है, उनकी भी ‘हिंदू संस्कृति के गौरव’ के
अन्वेषण की अवधि 12000 साल पहले तक ही जाती है। सरकार द्वारा इतिहास पुनर्लेखन के
लिए गठित कमेटी के एक सदस्य, जेयनयू में संस्कृत
के प्रोफेसर, संतोष
कुमार शुक्ल इस अन्वेषण की अवधि लाखों साल पीछे, यानि पाषाण युग से भी पहले की
बताते हैं। ‘अति-प्राचीन’ महाभारत का द्वापर युग की अतिप्रचीनता भी सतयुग,
त्रेतायुग की ही भांति अनिश्चित है। ब्राह्मणवाद का इतिहासबोध ही नहीं, कालखंड
निर्धारण भी मिथकीय है, जिसके गतिविज्ञान के नियम अधोगामी हैं। सतयुग से
चलकर त्रेता, द्वापर होते हुए कलियुग तक[4]।
रामायण के त्रेता युग की ‘हजारों-लाखों साल पुरानी’, अज्ञात काल की ऐतिहासिकता[5]
की ही तरह महाभारत के द्वापर युग की प्रचानीता भी अनिश्चित है। वैदिक साहित्य;
बौद्ध साहित्य या कौटिल्य के ग्रंथों में महाभारत के पात्रों; घटनाओं या ऋष्टि के
सर्जक, पालक तथा संहारक के रूप में त्रिदेव, ब्रह्मा-विष्णु-महेश का। विष्णु ही
नहीं थे तो मानव रूप में धर्म की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए बार बार अवतरित
होने की घोषणा कैसे करते? डॉ अंबेडकर ने उक्त लेख में बौद्ध क्रांति के विरुद्ध
ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि के ग्रंथ जैमिनि की पूर्व-मीमांसा
के कई अंशों की समानता के आधार पर साबित किया है कि भगवतगीता की रचना पूर्व
मीमांसा की वर्णाश्रमी मान्यताओं तथा ब्रह्मणवादी कर्मकांडों की पुष्टि के लिए की
गयी। डॉ. अंबेडकर के शब्दों में:
“बौद्ध-काल में, जो भारत का
सबसे अधिक प्रबुद्ध और तर्कसम्मत युग था, ऐसे सिद्धांतों के
लिए कोई स्थान नहीं था, जो अविवेक, दुराग्रह,
तर्कहीन और अस्थिर धारणाओं पर आश्रित हों। जो लोग अहिंसा पर उसे एक
जीवन-शैली मानकर विश्वास करने लगे थे और जो उसे जीवन में नियम के रूप में अपना
चुके थे, उनसे इस सिद्धांत को स्वीकार करने की आशा किस
प्रकार की जा सकती थी कि हत्या करने पर क्षत्रिय को पाप इसलिए नहीं लग सकता,
क्योंकि वेदों में ऐसा करना उसका कर्तव्य बताया गया है। जिन लोगों
ने सामाजिक एकता के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था तथा जो व्यक्ति के गुणों के
आधार पर समाज का पुनर्निर्माण कर रहे थे, वे श्रेणीबद्ध करने
वाले चातुर्वर्ण्य के सिद्धांत और केवल जन्म के आधार पर व्यक्तियों के वर्गीकरण को
क्यों स्वीकार करते, क्योंकि वेदों ने ऐसा कहा है? जिन लोगों ने बुद्ध के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था कि समाज में सभी
दुःख तृष्णा के कारण हैं, अथवा जिसे संग्रह की प्रवृत्ति कहा
जाता है, वे उस धर्म को क्यों स्वीकार करते, जो लोगों को यज्ञादि कर्म (बलि) से लाभ प्राप्ति के लिए इसलिए प्रेरित
करता है कि ऐसा करना वेद-सम्मत है। इसमें कोई संदेह नहीं कि बौद्ध धर्म के तेजी से
बढ़ते प्रभाव से जैमिनी के प्रतिक्रांति सिद्धांत डगमगा उठे थे और वे चकनाचूर हो
जाते, यदि उन्हें भगवद्गीता द्वारा दिए गए प्रतिक्रांतिवादी
सिद्धांतों की दार्शनिक पुष्टि का सहारा न मिलता, जो भी किसी भी प्रकार से अकाट्य
नहीं हैं”।[6]
इसकी प्राचीनता के
विवाद में गए बिना यदि मान लिया जाये कि त्रेता और द्वापर के परशुराम एक ही चरित्र
है और कुरुक्षेत्र में महाभारत में भीषण रक्तपात के बाद द्वापर युग का अंत हो जाता
है तो क्या त्रेता और द्वापर युग अत्यंत अल्पकालीन थे? भगवतगीता की प्राचीनता के
दावे के विवाद में जाने की न तो जरूरत है, न गुंजाइश। यहां मकसद सिर्फ यह कहना है
कि पौराणिक इतिहासबोध देश-काल की सीमाओं के पार, ब्राह्मणवादी वैचारिक परिधि में,
दैवीयता से चमत्कृत, एक पितृसत्तात्मक, वर्णाश्रमी आदर्शलोक बुनता है।
भगवतगीता
के प्रमुख संदेश
1. इस ग्रंथ की प्रस्तुति ईश्वरीय वाणी के रूप में
है, जिसमें नायक स्वयं को सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर, श्रृष्टि का रचइता घोषित करता
है तथा इसे प्रमाणित करने के लिए श्रृष्टि समेटे अपना विकराल रूप दिखाता है।
रामायण के राम खुद को भगवान क्या, मर्यादा पुरुषोत्तम भी उन्हें वाल्मीकि बनाते हैं। रामचरित मानस के भी राम को
तुलसी भगवान बनाते हैं, वे खुद नहीं कहते। आधुनिक युग में उसी ढर्रे पर सांईबाबा;
रजनीश; राम रहीम सरीखे योगी, साधू-सन्यासियों ने अवश्य खुद को ईश्वर घोषित किया।
यदि इसे इतिहास मान लें और इसके नायक कृष्ण
के संवादों को ईश्वरीय वाणी मान लें तो मानना पड़ेगा कि कोई ईश्वर है जो धरती पर
जब धर्म खतरे में पड़ता है तो वह धर्म की रक्षा तथा दुष्टों के विनाश के लिए धरती
पर अवतरित होता है। सवाल उठता है, धरती उसके लिए भारत या खासकर उत्तर भारत तक ही
क्यों सिमट जाती है? वह बुद्ध की तरह लोगों को सद्-बुद्धि की शिक्षा से धर्म की
रक्षा करने की बजाय सर्वनाशी रक्तपात का रास्ता क्यों चुनता है?
2. सत्ता और संपत्ति के लिए रक्तपात को उचित ही नहीं अपरिहार्य बताने के
लिए इसमें आत्मा के अमरत्व तथा एक शरीर से दूसरे शरीर में आवागमन का सिद्धांत
प्रतिपादित किया गया है। वैसे आत्मा के अमरत्व का यह सिद्धांत प्रचीन गणितज्ञ,
पाथागोरस ने छठी शताब्दी(?) ईशापूर्व दिया था। प्लेटो के जिन दर्शनिक सिद्धांतों
पर पाईथागोरस का असर है उनमें उनका आत्मा
का सिद्धांत भी शामिल है। प्लेटो ने लिखा है कि आत्मा अजर-अमर है तथा एक शरीर से
निकलकर दूसरे शरीर में प्रवेश करती हैं। भगवतगीता में ‘भगवान’ भी यही कहते हैं। न
तो प्लैटो स्पष्ट करते हैं, न ही भगवतगीता के भगवान कि अगर आत्माएं शरीर में रहती
हैं तथा मरने के बाद दूसरी शरीर में प्रवेश कर जाती हैं तो जन्म तथा मृत्यु दर
समान होनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है। बढ़ती आबादी के लिए आत्माएं कहां से आयातित होती हैं? भगवतगीता की तरह, प्लेटो
का आत्मा का सिद्धांत रक्तपात की प्रेरणा नहीं देता। “भगवद्गीता का अध्ययन करने पर सबसे पहली बात जो हमें मिलती है, वह यह कि इसमें युद्ध को संगत ठहराया गया है।
स्वयं अर्जुन ने युद्ध तथा संपत्ति के लिए लोगों की हत्या करने का विरोध किया।
कृष्ण ने युद्ध तथा युद्ध में हत्याओं की दार्शनिक आधार पर पुष्टि की। युद्ध की यह
दार्शनिक पुष्टि भगवद्गीता के अध्याय 2 के श्लोक 2 से 28 तक दी गई है। युद्ध की दार्शनिक पुष्टि तर्क
की दो कसौटियों पर आधारित है। पहला तर्क यह है कि संसार नश्वर है तथा मनुष्य
मृत्युधर्मी है। वस्तुओं का अंत होना निश्चित है। मनुष्य की मृत्यु निश्चित है। जो
बुद्धिमान हैं, उनके लिए इस बात से क्या अंतर पड़ेगा कि
मनुष्य की स्वाभाविक मृत्यु होती है अथवा वह हिंसा के फलस्वरूप मृत्यु को प्राप्त
करता हैं? जीवन अस्वाभाविक है, इस बात
पर आंसू क्यों बहाए जाएं कि उसका अंत हो गया है? मृत्यु
अनिवार्य है, फिर इस बात पर क्यों विचार किया जाए कि मृत्यु
किस प्रकार हुई? दूसरा तर्क प्रस्तुत करते हुए युद्ध की आवश्यकता
को सिद्ध किया गया है और यह सोचना भ्रम है कि शरीर और आत्मा एक हैं। वे अलग-अलग
हैं। वे केवल स्पष्ट रूप से अलग-अलग ही नहीं, परंतु वे दोनों
अलग-अलग इसलिए हैं कि शरीर नश्वर है, जबकि आत्मा अमर और
अविनाशी है। जब मृत्यु होती है तो शरीर का अंत हो जाता है। आत्मा का कभी भी विनाश
नहीं होता और आत्मा कभी भी नहीं मरती, यहां तक कि वायु इसे
सुखा नहीं सकती, अग्नि इसे जला नहीं सकती और हथियार इसे काट
नहीं सकते। इसलिए यह कहना भूल है कि जब व्यक्ति मर जाता है, तो
उसकी आत्मा भी मर जाती है। वास्तव में स्थिति यह है कि शरीर मर जाता है। उसकी
आत्मा मृत शरीर को उसी प्रकार त्याग देती है, जैसे व्यक्ति
अपने पुराने वस्त्रों को त्याग देता है, वह नए वस्त्र धारण
करता है तथा अपना जीवन बिताता है। चूंकि आत्मा कभी भी नहीं मरती है, अतः व्यक्ति की हत्या होने से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इसलिए युद्ध और हत्या-जनित पश्चाताप अथवा संकोच नहीं होना चाहिए, यही भगवद्गीता का तर्क है”[7]।
3. भगवत गीता का एक अन्य प्रमुख सिद्धांत है, वर्णाश्रमवाद, यानि
ब्राह्मणवाद की हिमायत। डॉ. अंबेडकर के अनुसार,
एक अन्य सिद्धांत, जिसे भगवद्गीता में प्रस्तुत किया
गया है, वह चातुर्वर्ण्य की दार्शनिक पुष्टि है। निस्संदेह
भगवद्गीता में बताया गया कि चातुर्वर्ण्य ईश्वर का सृजन है और इसलिए यह अति पवित्र
है, परंतु गीता में यह इस कारण वैध नहीं बताया गया है। इसके
लिए दार्शनिक आधार प्रस्तुत किया गया है तथा उसे मनुष्य के स्वाभाविक और जन्मजात
गुणों के साथ जोड़ दिया गया है। भगवद्गीता में कहा गया है कि पुरुष के वर्ण का
निर्धारण मनमाने ढंग से नहीं हुआ है, परंतु उसका निर्धारण
मनुष्य के स्वाभाविक और जन्मजात गुणों (भगवद्गीता, 4,13) के
आधार पर किया जाता है”[8]। इस तरह भगवतगीता, जैमिनी की
पूर्वमीमांसा, रामायण, मनुस्मृति आदि पौराणिक ग्रंथों के ही क्रम में ‘ब्रह्मा’
(ब्राह्मण) के बनाए चतुर्वर्ण व्यवस्था (ब्राह्मणवाद) की वैधता का ग्रंथ है, डॉ.
अंबेडकर के शब्दों में ब्रह्मणवादी ‘प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि का’।
4. भागवत गीता का एक अन्य प्रमुख सिद्धांत है, चिंतनमुक्त कर्म।
कुरुक्षेत्र में संपत्ति के लिए परिजन-गुरुजनों की हत्या के विचार से विचलित
अर्जुन को परामर्श देते हैं कि रक्तपात के बारे में सोचना बंद कर तीरंदाजी करें,
सामने जो भी हो। इसका लब्बोलबाब यह कि अपने किए के परिणाम की चिंता किए बिना कर्म
करना चाहिए। सोचो मत आज्ञापालन करो। आरयसयस की शाखा में भी यही ज्ञान दिया जाता है[9]।
डॉ. अंबेडकर के नुसार, “भगवद्गीता
में कर्म योग का प्रतिपादन किया गया है। ............ भगवद्गीता में अनासक्ति
अर्थात् कर्म के फल की इच्छा किए बिना कर्म (भगवद्गीता, 2,47) के संपादन के सिद्धांत का
प्रतिपादन किया गया है। गीता में कर्म मार्ग (यह भगवद्गीता, 2,48 में निष्कर्ष के रूप में मिलता है) की पुष्टि यह तर्क प्रस्तुत करके की गई
है कि अगर इसके मूल में बुद्धि योग हो और कर्म के कारण किसी फल की इच्छा की भावना
न हो, तो कर्मकांड के सिद्धांत में कोई त्रुटि नहीं है।”[10]। जी रहे हैं तो कुछ-न-कुछ कर ही रहे हैं। सुविचारित, सर्जनात्मक, उपयोगी कर्म ही सार्थक
या सत्कर्म है। सारे अधिनायकवादी दार्शनिक और विचारक, विचारों की बजाय कर्म पर जोर
देते हैं। इस सिद्धांत का यह भी आशय है कि वर्णाश्रम व्यवस्था में जिसका जो
निर्धारित कर्म है, उसकी सुचिता या औचित्य पर सवाल किए बिना करता रहे। कृष्ण कहते हैं, ''मेरे साधन बनो, मेरी इच्छा का पालन करो। युद्ध-जन्य पाप और अनिष्ट की चिंता मत करो,
वही करो जैसा कि मैं कहूं। धृष्ट मत बनो।''[11]
यहां भगवतगीता के विभिन्न
पहलुओं की विस्तृत समीक्षा की गुंजाइश नहीं है, अन्य पौराणिक रचनाओं की ही तरह
इसके इतिहासीकरण का निहितार्थ है, वर्णाश्रमी मूल्यों की पुनर्स्थापना। इस लेख में
इसे ‘प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि’ के ग्रंथ के रूप में डॉ. अंबेडकर के तर्कों
की विस्तृत विवेचना की गुंजाइश नहीं है। इसका समापन उनके विचारों से सहमति से करता
हूं कि भगवतगीता समतामूलक, जनतांत्रिक बौद्ध विचारों से आतंकित ब्राह्मणवाद की
पुनर्स्थापना के प्रतिक्रांतिकारी बौद्धिक प्रक्रिया की कड़ी है। इतिहास के
पुनर्लेखन के नाम पर उसका पुनर्मिथकीकरण, उसी प्रक्रिया का पुनर्जन्म लगता है।
लेकिन इतिहास कभी खुद को दुहराता नहीं, प्रतिध्वनित होता है, यह प्रतिध्वनि भयावह
है।
11.05.2018
“
[1]
हिंदी समय, महात्मा गांधी हिंदी विवि, वर्धा, www.hindisamay.com/.../भीमराव-आंबेडकर-विमर्श-प्रति..
[2]
उपरोक्त
[3]
हमारे गांव में हमारे बचपन तक गांव की
पंचायत की अदालत में, ‘गंगा उठाकर’ बोली गयी बात सच मान ली जाती थी। आखों देखी तो
नहीं गंगा उठाकर झूठ बोलने की कई कहानियां हैं। गंगा उठाने का मतलब था नदी/जलाशय
में खड़े होकर, अंजुलि में पानी लेकर या फिर किसी लिपी-पुती जगह पर खड़े होकर,
पानी का घड़ा उठाकर ‘सत्य’ बोलना।
[4]
ईश मिश्र, इतिहास का पुनर्मिथकीकरण -2,
[5]
उपरोक्त
[7]
उपरोक्त
[8]
उपरोक्त
[9]
अनुभवजन्य
[10]
उपरोक्त
[11]
उपरोक्त में उद्धृत
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