रूसी
क्रांति की शताब्दी वर्ष के अवसर पर
समाजवाद
पर लेखमाला: (भाग 3)
सर्वहारा:
इतिहास का नया नायक
19वीं सदी में साम्यवाद बनाम
सामाजिक जनतंत्र विमर्श
ईश मिश्र
पिछले लेख में हमने
देखा कि यूटोपियन समाजवाद का सिद्धांत औद्योगिक मजदूरों की दरिद्रता और काम की
अमानवीय हालात से मुक्ति का क्रांतिकारी नहीं, सुधारवादी सिद्धांत था। 1820-40 के दौरान वायवी (यूटोपियन) समाजवादी
खासखर ओवेन के विचार, तथा-कथित रिकार्डियन समाजवादियों, के पूंजीवाद-विरोधी
विचारों में घुल मिल गया। 1830-50 के दौरान इंगलैंड में समाजवादियों के नेतृत्व
में ढुलमुल मजदूर आंदोलन चला तथा इंगलैंड में चार्टिस्ट
आंदोलन के बिखराव
के बाद, मजदूर यूनियनों के क्रमिक अराजनैतिककरण के परिणाम स्वरूप ओवेनवाद (परमार्थ और सहकारिता के सिद्धांतों पर
आधारित समाजवाद) एक पंथ बन कर रह गया। यहां तथाकथित रिकार्डियन
समाजवाद और चार्टिस्ट
आंदोलन के विस्तार
में जाने की गुंजाइश तो नहीं है लेकिन संक्षिप्त चर्चा वांछनीय है।
रिकार्डियन समाजवाद
ऊपर रिकार्डियन
समाजवाद को तथाकथित
इसलिए कहा गया है कि 1817 में प्रकाशित रिकार्डो की ऑन द प्रिंसिपल्स ऑफ
पोलिटिकल इकॉनमी एंड टैक्सेसन (राजनैतिक अर्थशास्त्र और कराधान के सिद्धांत) की
गलत समझ के चलते, कुछ अंग्रेजी विद्वानों, ने उनके संपदा (मूल्य) के श्रम सिद्धांत में समाजवाद का श्रोत खोज लिया। दर-असल ऐडम स्मिथ से
विरासत में मिला रिकार्डो का श्रम सिद्धांत संपदा (मूल्य) और बाजार भाव में
भिन्नता की तार्किक परिणति नहीं है। यह मान्यता कि किसी भौतिक वस्तु में व्यापारिक
मूल्य से अलग एक अलग मूल्य (संपदा) अंतर्निहित होता है जो वस्तु को मूल्यवान
बना देता है। वैसे तो इस सिद्धांत (श्रम के आधार पर संपत्ति का अधिकार और मूल्य
निर्धारण) की जड़ें सत्रहवीं शताब्दी के उदारवादी चिंतक जॉन लॉक के संपत्ति के
अधिकार के सिद्धांत तक जाती हैं जो श्रम को संपत्ति का सर्जक ही नहीं मूल्य
निर्धारक के रूप में चित्रित करता है। सर्वविदित है कि सभी वर्ग व्यवस्थाएं कथनी-करनी के अंतर्विरोध
के चलते दोगली प्रणालियां रही हैं. पूंजीवाद सर्वाधिक विकसित वर्ग समाज है, अतः
इसका और इसके जैविक बुद्धिजीवियों का दोगलापन भी शीर्षस्थ है। जरूरी नहीं कि
कथनी-करनी का अंतर्विरोध सोचा-समझा छल हो। ज्यादातर आत्म-छल के शिकार होते हैं,
कहते-कहते उन्हें खुद विश्वास हो जाता है कि वे जो कह रहे हैं, वही सत्य है।
उत्पादन के साधनों पर निजी अधिकार तथा उत्पादक श्रमशक्ति
के करीद-फरोख्त के सिद्धांत पर आधारित पूंजीवाद का उदय, जब अभूतपूर्व नई असमानताएं
निर्मित कर रहा था और नई दयनीय, वैतनिक-गुलामी, तब हॉब्स र लॉक जैसे उदारवादी
चिंतक व्यक्ति की नैसर्गिक समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांत गढ़ रहे थे। जब श्रम
से संपत्ति का संचय तो नहीं, लेकिन रोजी-रोटी कमाने वाले किसान; शिल्पी; कारीगर
अपनी जमीन तथा श्रम के साधन से बेदखल (मुक्त) किए जा रहे थे तब असीमित संपत्ति के
‘नैसर्गिक’ अधिकार के सिद्धांतकार जॉन लॉक श्रम को संपत्ति का श्रोत बता रहे थे और
यह भी कि धरती पर सबका साझा अधिकार है। ये बुद्धिजीवी वास्तविकता को शब्दाडंबरों
की मिथ्या-चेतना के धुएं से ढक देते हैं। उन्होंने कहा कि श्रम संपत्ति के अधिकार
का आधार है जबकि मजदूरों के श्रम-शक्ति तथा उसके उत्पाद पर पूंजीपतियों का अधिकार
है। यही रिकार्डियन समाजवाद का अधार है।
दर-असल
सत्रहवी शताब्दी के उदारवादी (पूंजीवादी) सिद्धांतकार उद्यमियों और तिजारती
व्यापारियों के असीम संपत्ति के अर्जन-संचय की हिमायत में श्रमसिद्धांत गढ़ रहे थे।
दो शताब्दी बाद समाजवादियों ने इसे उद्योगपतियों के विरुद्ध खड़ा कर दिया कि यदि
श्रम ही संपदा का श्रोत है तो उस पर श्रमिक का ही अधिकार होना चाहिए। बौखलाहट में
पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों ने पूंजी को भी संपदा के श्रोत के रूप में रेखांकित
करना शुरू कर दिया। कुछ ने तो कहा कि संपदा के निर्माण में श्रम का कोई भी योगदान
नहीं है। दरअसल सत्रहवीं शताब्दी में विलियम पेटी और जॉन लॉक से लेकर,
अठारहवी-उन्नीसवी सदी के उदारवादी राजनैतिक अर्थशास्त्रियों, डैविड ह्यूम, ऐडम
स्मिथ और रिकार्डो आदि तक किसी ने भी कामगर के श्रम को संपदा या मूल्य का श्रोत
नहीं माना। प्राकृतिक अवस्था में ही श्रम की खरीद-फरोख्त के नैसर्गिक अधिकार के
सिद्धांतकार, जॉन लॉक के अनुसार अपने श्रम के उत्पाद में श्रमिक का हिस्सा किसी
तरह जिंदा रहने भर की मजदूरी भर है, बाकी पर श्रम के खरीददार, पूंजीपति का। 100
साल बाद, ऐडम स्मिथ संपदा के उत्पादन में श्रम की भूमिका की बात तो मानते हैं और
‘उदारता’ का परिचय देते हुए दुनिया को रोटी-कपड़ा मुहैया कराने वालों की अपने श्रम
के उत्पाद में इतनी हिस्सेदारी की हिमायत करते हैं जिससे उसे भी ढंग से रोटी-कपड़ा
मिल सके। (वेल्थ ऑफ नेशन, 1776) इस तरह की भावनाएं नैतिक उद्गार हो सकती
हैं, इनमें समाजवादी अवयव ढूंढ़ना रेगिस्तान में मोती की तलाश है। रूसो के ही
समकालीन ऐडम स्मिथ निजी संपत्ति के चलते न्हीं की ही तरह, असमानता की बात तो मानते
हैं और यह भी मानते हैं कि चंद लोगों के ऐशो-आराम के लिए बहुत से लोगों को खून
पसीना एक करना पड़ता है, लेकिन इसे वे प्रगति के लिए अपरिहार्य मानते हैं और
मौजूदा भूमंडलीकरण के पैरोकारों की तरह ढाढ़स बंधाते हैं कि नई व्यवस्था अंततः सभी
के लिए फायदेमंद होगी। रिकार्डो के लेखन में स्पष्ट नहीं है कि वे श्रम को संपदा
का श्रोत मानते थे या महज मापदंड, रिकार्डियन समाजवादियों ने श्रम को ही संपदा का
श्रोत माना और यही उनके लिए समाजवादी तत्व ढूंढ़ने के लिए काफी था।
1830-48: सपनों का दौर
यूरोप के इतिहास
में 1832-48 का दौर क्रांतिकारी, राजनैतिक तथा बौद्धिक उथल-पुथल ओर आंदोलनों का
दौर था। यह समतामूलक समाज के सपनों और उम्मीदों का दौर था। यह समाजवाद पर एक नए
विमर्श की शुरुआत का भी दौर था। जैसा कि ऊपर कहा गया है, इंग्लैंड में 1830-50 के
दौर में मजदूर आंदोलन चार्टिस्ट आंदोलन में मिल सा गया। वैसे तो इस आंदोनल को
समाजवादी नहीं कहा जा सकता यह मताधिकार का आंदोलन था, लेकिन मजदूरों की एकजुटता की
मिशाल की दृष्टि से, समाजवादी संभावनाओं से भरा, एक अभूतपूर्व जनांदोलन था। 1832
में, ‘बिना प्रतिनिधित्व के कर नहीं’ नारे के साथ लंबे संघर्ष के बाद नवोदित धनी
वर्ग के मताधिकार के बाद मजदूरों की सार्वभौमिक पुरुष मताधिकार की मांग और मुखर हो गयी। 1838 में लंदन
वर्किंग मेन्स असोसिएसन (लंदन कामगर सभा) ने इंगलैंड में मताधिकार के साथ संपत्ति की शर्त का विरोध करते
हुए, संसद को 6 सूत्रीय मांगपत्र (चार्टर) सौंपा। यह मांगपत्र विलियम लवेट और
फ्रांसिस प्लेस ने सभा के अन्य सदस्यों से विचार-विमर्श के बाद तैयार किया था। प्रमुख
मांगें थीं, सार्वभौमिक पुरुष मताधिकार; गुप्त मतदान; पंचवर्षीय की बजाय वार्षिक
संसदीय चुनाव; संसदीय चुनाव के लिए संपत्ति की योग्यता का समापन तथा सांसदों का
वेतन। 1839 में लगभग 12.5 लाख मजदूरों और उनके समर्थकों के दस्तखत से जमा मांग
पत्र को संसद ने खारिज कर दिया तथा इसके प्रतिरोध का बर्बरतापूर्ण दमन। 1842 में
लगभग 30 लाख हस्ताक्षर के साथ दूसरी बार मांगपत्र पेश किया. उसका भी वही हश्र हुआ।
इस बार प्रतिरोध के दमन के साथ व्यापक पैमाने पर चार्टिस्ट नेताओं की गिरफ्तारियां
भी हुईं। 1848 में तीसरा और अंतिम मांगपत्र दाखिल किया गया और लंदन में चार्टिस्ट
नेता, द नॉर्दर्न स्टार के संपादक पीर्गस ओ’कोनॉर के नेतृत्व में विशाल जनसभा का आयोजन
हुआ। तीसरा मांगपत्र भी खारिज हो गया। अपेक्षित प्रतिरोध के मद्दे नज़र सरकार ने
सेना को सतर्क कर दिया था, लेकिन कोई विरोध प्रदर्शन हुआ ही नहीं। चार्टिस्ट
आंदोलन खत्म गया लेकिन कोई जनांदोलन बेअसर नहीं होता।
चार्टिस्ट
आंदोलन तो बिखर गया लेकिन शासकों के दिल में भविष्य की बड़े विद्रोह की संभावनाओं
का भय डाल गया। 1867 और 1884 के सुधार विधेयकों के जरिए इंगलैंड में सार्वजनिक
पुरुष मताधिकार कानून बन गया लेकिन मजदूर आंदोलन अधोगामी सामाजिक चेतना का शिकार
हो गया। चार्टिस्ट नेताओं को उम्मीद थी कि संसद से समाजवाद आयेगा, हुआ उल्टा। जैसे
बुश; क्लिंटन; ओबामा; ट्रंप आदि अमेरिकी हित में अफगानिस्तान, इराक़, लीबिया,
सीरिया जहां-तहां बमबारी करते रहे उसी तरह इंगलैड के शाषक औपनिवोशिक लूट और दमन को
इंगलैंड के हित में बताते रहे। शासक वर्गों ने मजदूरों को राष्ट्रोंमादी नशे में
धुत करने के मकसद से साम्राज्यवादी महिमामंडन का तुरुप पत्ता चला. तत्कालीन
प्रधानमंत्र डिजरायली ने इंगलैंड को ऐसे साम्राज्य के रूप में प्रचारित किया जिसका
सूरज कभी अस्त नहीं होता। भूख भूल कर राष्ट्रोंमाद के नशे में मजदूर अपने अपने
साम्राज्यवादी शासकों के समर्थक बन गए। मजदूर का भूख का सवाल राष्ट्रोंमादी गुमान
में दब गया। उसके बाद इंगलैंड में 1880 के दशक में बढ़ती बेरोजगारी और उदारवादी लेजे
फेयर शासन प्रणाली
से मोहभंग के चलते दुबारा समाजवादी सुगबुगाहट शुरू हुई। 1884 फाबियन
सोसायटी की स्थापना
से शुरू फाबियन समाजवाद नाम से प्रचलित यह आंदोलन भी, प्रबोधन आंदोलन की तरह मूलतः
बौद्धिक आंदोलन ही था. यह सशस्त्र क्रांति के जरिए समाजवाद की स्थापना की अवधारणा
के विपरीत शांतिपूर्ण, संसदीय तरीके से समाजवाद का हिमायती है। अंततः फाबियन
समाजवाद की तार्किक, राजनैतिक परिणति लेबर पार्टी के रूप में हुई जो जल्दी ही
साम्राज्यवादी राष्ट्रोंमाद में टोरी पार्टी की निकट प्रतिद्वंदी बन गयी।
बव्वॉफ को
अपना राजनैतिक गुरू मानने वाले, 1840 के दशक के फ्रांस के साम्यवादी खुद को समाजवादियों
से अलग मानते थे, लेकिन उनके लिए साम्यवाद का मतलब था संपत्ति का समान बंटवारा।
लेकिन औद्योगिक समाज में यह नारा अप्रासंगिक था क्योंकि अर्थव्यवस्था के केंद्र
में अब बड़े-बड़े कारखाने और औद्योगिक घराने थे। उत्पादन के साधनों पर सामाजिक या
सामूहिक स्वामित्व का सिद्धांत का प्रतिपादन मार्क्स तथा एंगेल्स ने 1848 में कम्युनिस्ट
घोषणापत्र में किया गया। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स का मानना है कि वस्तु और
विचार की द्वंद्वात्मक एकता में प्राथमिकता वस्तु की होती है और वस्तु से ही विचार
निकलते हैं। इसलिए तार्किक है कि उस समय समाज में कम्युनिस्ट विचार/संगठन/आंदोलन का उदय हो चुका था।
वैसे भी घोषणापत्र की शुरुआत ही होती है, “यूरोप के
सिर पर एक भूत सवार है। यूरोप के सिर पर साम्यवाद का भूत सवार है”।
साम्यवादी
समूहों और आंदोलनों की चर्चा के पहले, समाजवादी आंदोलन की दृष्टि से यूरोप में
वर्ष 1848 के महत्व की संक्षिप्त चर्चा, क्षेपक के तौर पर, अप्रासंगिक नहीं होगी। जैसाकि
ऊपर बताया जा चुका है कि बाजे-गाजे के साथ शुरू हुआ चार्टिस्ट दोलन 1848 में बिना
किसी हलचल के बिखर गया। जर्मनी में 1848 में पहला जनतांत्रिक आंदोलन शरू हुआ जो
दमन के बाद घिसटते हुए 1863 तक सामाजिक-जनतांत्रिक आंदोलन में
समाहित हो गया, जो राज्य-समाजवाद की एक लचर अवधारणा है, जिसकी संक्षिप्त चर्चा आगे
की जायेगी। 1848 में फ्रांस में दूसरी बार सफल क्रांति हुई और बुर्जुआ राजशाही की
जगह बुर्जुआ गणतंत्र की स्थापना. गौर तलब है कि इस क्रांति में सर्वहारा की सजग और
संगठित भागीदारी की अहम भूमिका थी। यह भी गौरतलब है कि 1789 की ही तरह जिस वर्ग ने
क्रांति में ज्यादा जुझारू हिस्सेदारी की उपलब्धियों में उसकी हिस्सा उतना ही कम।
पहली बार यह कारीगरों का तपका था, इस बार सर्वहारा। अपने हक़ के लिए 1848 में पहली
बार पेरिस का सर्वहारा लाल परचम के नीचे इकट्ठा हुआ और पूंजीवादी साजिश के विरुद्ध
विद्रोह का बिगुल बजाया, जिसे नवनिर्वाचित “गणतांत्रिक” सरकार के आदेश पर सेना ने
बर्बरता से कुचल दिया। सर्वहारा का “तथाकथित जनतंत्र” से मोहभंग हो गया। 1848 में
मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखा, जिसके पाठकों का दायरा काफी दिनों तक बहुत सीमित रहा। इस
साल तक रूस को छोड़कर पूरे यूरोप से सामंतवाद की लगभग विदाई हो गयी थी सामंती
राज्य की जगह पूंजीवादी राज्य सुस्थापित हो चुका था और सत्ता की वैधता की
विचारधारा के रूप में धर्म की जगह राष्ट्रवाद।
वापस घोषणापत्र
की भौतिक परिस्थितियों के संदर्भ पर विचार करते हुए पाते हैं कि 1832-1848 के दशक में, खुद को
फ्रांसीसी क्रांति के जैकोबिन क्लब के वामपंथी धड़े का वैचारिक वारिस मानने वालों
के लिए कम्युनिस्ट शब्द का प्रयोग शुरू हुआ। जैकोबिनवाद पर यहां विस्तृत चर्चा
की गुंजाइश नहीं है, मोटे तौर पर इसे फ्रांसीसी क्रांति के सशस्त्र दस्ते के रूप
में समझा जा सकता है। इस राजनैतिक
प्रवृत्ति को, लेखमाला के पहले भाग में वर्णित बब्वॉफ की इगेलिटेरियन
कॉन्सपिरेसी (समतामूलक साजिश) की
साम्यवादी परंपरा की अगली कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। बब्वॉफ के समर्थकों
में ज्यादातर कारीगर, शिल्पी, कुली तथा शहरी बेरोजगार थे. ये भी, इन्हीं तपकों में,
औद्योगिक उत्पादन पर आधारित समाज में समतामूलक व्यवस्था की बुनियाद की संभावनाएं
देखते हैं। लुई फिलिप के शासनकाल (1830-48) में अपनी गणतांत्रिक प्रतिबद्धताओं के
चलते कई जेलयात्राएं कर चुके, क्रांतिकारी, लुई अगस्त ब्लांक़ी भूमिगत सशस्त्र
संगठनों द्वारा तख्ता पलट से सत्ता पर कब्जा करके, जनपक्षीय कानूनों के जरिए
समतामूलक अर्थव्यवस्था के निर्माण के हिमायती थे। ब्लांक़ी और उनकी सांगठनिक
गतिविधियों की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है लेकिन समाजवाद के इतिहास में उनकी
भूमिका का संज्ञान लिए बिना नहीं रहा जा सकता। कानून और मेडिकल की पढ़ाई करके
उन्होंने राजनीति को अपना कार्यक्षेत्र चुना। वे 1824 से भूमिगत संगठन कार्बनी
के सक्रिय सदस्य के रूप में सभी
गणतांत्रिक षड्यंत्रों में शामिल रहे थे। मार्क्स ने जिस समय अपने पिता को लिखे पत्र में सर्वहारा के
रूप में इतिहास के नये नायक के खोज की बात लिखा लगभग उसी समय इस नए नायक का एक प्रतिनिधि
पेरिस की एक अदालत इसी रूप में अपना परिचय दे रहा था। 1836 में अदालत में जब उनसे
परिचय पूछा गया, तो उन्होंने बताया, ‘सर्वहारा’। विस्मित जज ने आपत्ति की कि यह तो
कोई समुचित पेशा नहीं था. इस पर ब्लांकी ने कहा, ‘कोई पेशा नहीं से आपका क्यो
मतलब? राजनैतिक अधिकारों से वंचित, श्रम के बल पर जीने वाले 3 करोड़ फ्रांसवासी!
सर्वहारा है’। लेकिन ब्लांकी के लिए हर पीड़ित-वंचित सर्वहारा था – गरीब किसान;
शिल्पी; कारीगर और बेरोजगार सभी।
1839 में उन्होने पेरिस में मजदूरों एक विशाल विरोध प्रदर्शन का
आयोजन किया जिसके लिए उन्हें मौत की सजा मिली, जो बाद में आजीवन कारावास में बदल
गयी। गौरतलब है कि इस विद्रोह में मार्क्स, एंगेल्स द्वारा 1946 में गठित कम्युनिस्ट
लीग का एक घटक लीग
ऑफ जस्ट की भी
भागीदारी थी। 1848 की क्रांति के वक़्त ब्लांकी को रिहा कर दिया गया
लेकिन नए गमतंत्र की नई सरकार के शासन में भी उनके रंग-ढंग वैसे ही रहे। सरकार और
उसकी नीतियों का उनका विरोध जारी रहा और उन्हें फिर लुई बोनापर्ट की गणतांत्रिक
सरकार की अदालत 1849 में 10 साल के कारावास की सजा से नवाजा गया। जेल से 1851 में
लंदन में सामाजिक जनतांत्रिकों की समिति को लिखा खत मार्क्स की भूमिका के साथ छपा
था। वे जेल से ही अपने साम्यवादी विचारों का यथासंभव प्रचार-प्रसार करते रहे। ब्लांकी
मार्क्स से समाजवादी आंदोलन में सर्वहारा की प्रमुख भूमिका के विचार से असहमत थे।
1865 में वे जेल से निकल भागने में सफल रहे तथा विदेश से विद्रोही विचारों का
प्रचार-प्रसार करते रहे और 1869 में क्षमाधान के बाद पेरिस आए। 1871 के मजदूरों
द्वारा कम्यून की स्थापना के पहले सरकार ने उन्हें धोखे से गिरफ्तार कर लिया लेकिन
मजदूरों ने, अनुपस्थिति में ही उन्हें ही कम्यून का अध्यक्ष चुना। जिसकी संक्षिप्त
चर्चा आगे की जाएगी। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके व्यक्तित्व के वर्णन का मोह
विचारों को गौड़ बना देता है। लेकिन, आगे पेरिस कम्यून और मार्क्स द्वारा उसकी समीक्षा के साथ भी ब्लांक़ी
के बारे में दुबारा दो शब्द कहना ही पड़ेगा। पेरिस कम्यून समाजवाद के इतिहास
अभिन्न और अहम हिस्सा है और ब्लांकी कम्यून के।
1940 के दशक और उसके
बाद भी क्रांतिकारी समाजवाद (साम्यवाद) के प्रतिनिधि के रूप में ब्लांकी की चर्चा
के बाद समाज के विमर्श में समानांतर सुधारवादी धारा की चर्चा छोड़ देना, विषय के
साथ अन्याय होगा। सुधारवादी समाजवादियों में दो नाम प्रमुखता से जाने जाते हैं –
लुई ब्लांक (1811-82) और प्रूदों(1809-65)। प्रूदों के बारे में फर्स्ट
इंटरनेसनल पर चर्चा के साथ उसके
अराजकतावादी धड़े के प्रतिनिधि के रूप में की जाएगी। ब्लांक की पहचान, बाद
के दिनों में, एक सींडीकेटवादी की बनी। दोनों को जनता की प्रशंसा मिली और पर्याप्त
समर्थन। उन्होंने निकट भविष्य में आसमान का वायदा नहीं किया। इस समय ब्लांकी अपने
समर्थकों के साथ सशस्त्र तख्तापलट की योजना में मशगूल थे। किसानों और मजदूरों के
हितों की एकता की प्राचीन मान्यता पर विश्वास के चलते उन्हें लगा कि एक अत्याचारी
शासक के विरुद्ध विद्रोह का कोई क्यों विरोध करेगा। लेकिन किसानों की सामाजिक चेतना के स्तर का उनका
आकलन गलत साबित हुआ और शहरी सर्वहारा के विद्रोह को चुलने के लिए झुंड-के-झुंड
सेना में भरती हो गए। गरीब द्वारा गरीब का रक्तपात ही वर्ग समाजों में सत्ता का
राशन-पानी रहा है। ब्लांकी की योजना पेरिस पर कब्जा करके सामंतों और चर्च की सत्ता
समाप्त करते हुए किसानों को साथ मिलाने की थी। लगभग 100 बाद, चीन में माओत्जेदुंग ने इसके विपरीत गांव
से शहर घेरने की रणनीति तैयार किया था। 1847-50
के बीच मार्क्स भी विकास के जनतांत्रिक चरण को लांघकर समाजवाद की संभावना की उनकी
राय से सहमत होते दिखते हैं लेकिन उसके बाद दोनों के रास्ते अलग हो लिए। ब्लांक की बात में भी ब्लांकी आ गए। लुई ब्लांक सशस्त्र विद्रोह की बजाय सुधारवादी
तरीके से समतामूलक समाज के पैरोकार थे। वे पूंजीवादी प्रतिस्पर्दा को व्यक्तित्व
के विकास का अवरोधक मानते थे। उनका मानना था कि सरकारी खर्चे से कार्यशालाओं के
आयोजन से सबको रोजगार की गारंटी दी जा सकती है। चूंकि कार्यशालाएं मजदूर खुद
आयोजित करेंगे इसलिए अंततः उत्पान प्रक्रिया पर उनका अधिकार हो जाएगा। 1848 में
क्रांति के बाद की तदर्थ सरकार के सदस्य के रूप में काम के घंटों में कमी और काम
की गारंटी के प्रवधान बनवाने में सफल रहे। लेकिन तदर्थ सरकार के कानून अगली सरकार
पर वाध्यकारी नहीं थे और बोनापार्ट के शासन में फ्रांस छोड़कर भागना पड़ा और विदेश
में वे लेखन और लेक्चर से रोजी रोटी कमाते रहे और 1871 में बदली स्थितियों में
फ्रांस वापस आए, जिस पर बाद में।
पेरिस
में कार्ल शापर के नेतृत्व में जर्मन प्रवासियों ने लीग ऑफ द जस्ट नामक
भूमिगत संगठन बनाया था, जिसकी “सामाजिक गणतंत्र” की स्थापना के लिए 1839 के
उपरोक्त क्रांतिकारी विद्रोह में सक्रिय भागीदारी थी। आंदोलन की विफलता के बाद
संगठन का केंद्र लंदन बना दिया लेकिन पेरिस और ज़ूरिख़ में भी स्थानीय इकाइयां
सक्रिय बनी रहीं। पूरे यूरोप में इंक़लाबी माहौल बन रहा था। 1846 में दो जर्मन
साथियों कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने, ब्रुसेल्स में कुछ जनपक्षीय जर्मन
प्रवासियों का एक राजनैतिक मंच बनाया, कम्युनिस्ट करेस्पांडिंग कमेटी
(कम्युनिस्ट संवाद समिति) का गठन किया जिसके लिए ड्वायच़ ब्रुसेलेर
त्शाइटुंग (ब्रुसेल्स जर्मन पत्र) नाम से एक अखबार निकालना शुरू किया। कमेटी
ने पेरिस और लंदन में रह रहे जनपक्षीय रुझान के जर्मन प्रवासियों को जोड़ कर
इन जगहों पर भी कमेटी की इकाइयां खोली गयीं जो गुटबाजी के चलते कोई भी प्रभाव
छोड़ने में असफल रहीं। देश-निकाले का दर्प झेल रहे हताश जर्मन कम्युनिस्टों ने एक
एकीकृत संगठन बनाने का निर्णय लिया। लीग ऑफ जस्ट ने 1947 में कम्यनिस्ट
करेस्पांडेंस कमेटी को एकता का प्रस्ताव दिया। 2 जून 1847 को लंदन में संपन्न
एकता सम्मेलन में एकीकृत संगठन का नाम कम्युनिस्ट लीग रखा गया। मार्क्स
आर्थिक तंगी के चलते लीग के संस्थापना अधिवेशन में नहीं शामिल हो पाए तथा
एंगेल्स पेरिस कमेटी के प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस (अधिवेशन) में शिरकत
की तथा नए संगठन को दिशा प्रदान की। यूटोपियाई समाजवादियों के मोटो, सभी मनुष्य
भाई हैं की जगह लीग का मोटो बना, दुनिया के मजदूरों एक हो. इसके
सांगठिन ढांचे का आकार-प्रकार; उद्देश्य; आचार संहिता तथा कार्यपद्धति की रूपरेखा
मार्क्स और एंगेसल्स ने तैयार किया जो दिसंबर 1847 में लंदन में ही संपन्न दूसरी
कांग्रेस ने पारित कर दिया। उसी कांग्रेस ने मार्क्स और एंगेल्स को पार्टी का
घोषणा पत्र लिखने का दायित्व सौंपा और दोनों ने कालजयी पुस्तिका, कम्युनिस्ट
घोषणापत्र रच डाला। लीग की विस्तृत चर्चा से परहेज करते हुए, यह बात कम्युनिस्ट
लीग की नियमावली की पहली धारा और कांग्रेस में एंगेल्स के भाषण के एक अंश के
उद्धरणों से खत्म करता हूं। “संगठन का उद्देश्य है: पूंजीवाद का उन्मूलन; सर्वहारा
का शासन; सर्वहारा का शासन; वर्गों के अंतर्विरोध पर टिके पूंजीवादी सामाजिक
संबंधों की समाप्ति; और निजी संपत्ति का उन्मूलन तथा वर्गविहीन समाज की स्थापना”।
एंगेल्स ने अपने भाषण के एक वाक्यांश में संगठन के ढांचे का खाका खींच दिया,
“............ अब लीग के अंतर्गत समुदाय (स्थानीय इकाई); समूह; उच्चतर समूह; एक
केंद्रीय कमेटी होगी तथा कांग्रेस और अब से इसका नाम ‘कम्युनिस्ट लीग’ है”।
1848: क्रांति का साल
यूरोप के इतिहास में
1848 का वर्ष क्रांति के वर्ष के रूप में जाना जाता
है। फ्रांस में फरवरी में सुरू हुई क्रांति की लपट सारे यूरोप में फैल गई। इसकी
चपेट में लगभग 50 देश आए लेकिन उनमें न तो कोई पारस्परिक समन्वय था न ही सहयोग।
अलग-अलग क्रांतियों की व्यापक समीक्षा की गुंजाइश तो नहीं है, जो एक अलग चर्चा का
विषय है, लेकिन निर्णायक बिंदुओं की संक्षिप्त चर्चा जरूरी है। तकनीकी विकास के
चलते समाज की आर्थिक प्रणाली बदल रही थी जिसे
बदली हुई प्रणाली के अनरूप राजनैतिक तथा वैधानिक प्रणाली की जरूरत होती है। मंहगाई
और बेरोजगारी की समस्या पूरे यूरोप में एक सी थी और एक सा था, सरकार के विरुद्ध
व्यापक जन-असंतोष। जर्मनी समेत यूरोप के तमाम देश क्रांतिकारी उथल-पुथल से गुजर
रहे थे लोकिन भूमिगत गतिविधियां बंद करने
के घोषणा के बावजूद लीग 1848 की क्रांतियों में खुलकर भाग नहीं ले सकीं। इसकी जर्मन इकाई के सदस्यों ने वर्कर्स
ब्रदरहुड (कामगर एकजुटता) नाम से संगठित हो क्रांति में अहम भूमिका निभाया।
1849-50 में उन्होने न्वाय राइश त्शाइटुंग संपादित किया जो 1850 के अंत तक
बंद हो गया। एक कुख्यात जासूस मार्क्स के घर से लीग की सदस्यता का रजिस्टर
चुराकर फ्रांस और जर्मन राज्यों की सरकारों को दे दिया जिसके आधार पर कई सदस्य
गिरफ्तार हो गये और मार्क्स भागकर लंदन चले गए। कम्युनिस्ट लीग शुरू से ही
प्रमुख नेताओं के वैचारिक मतभेद और गुटबाजी का शिकार रही, जिसे 1952 में कोलोन
कम्युनिस्ट मामले के बाद औपचारिक रूप से विघटित कर दिया गया।
फ्रांस को छोड़कर
सभी आंदोलनों की प्रमुख मांग उदारवादी व्यवस्था थी. इंगलैंड में उदारवादी,
संवैधानिक राजतंत्र का उदय तो 1688 की ‘रक्तहीन क्रांति’ के समय हो गया था और 1832
के सुधार से धनिक वर्गों को मताधिकार मिल गया। फ्रांस में 1930 की गणतंत्रवादी
क्रांति के परिणामस्वरूप पहले ही उदारवादी, संवैधानिक राजशाही अस्तित्व में आ चुकी
थी। लेकिन दोनों ही जगहों पर मताधिकार समेत तमाम फायदे धनाढ्यों और नवधनाढ्यों के
खाते में गए गरीब और मजदूर के हिस्से आई महज बदहाली। 1946 में अकाल और व्यापारियों की जमाखोरी के चलते
अभूतपूर्व मंहगाई और बेरोजगारी से आमजन में त्राहि-त्राहि मची थी। पेरिस के
नरमपंथी उदारवादी
– शिक्षित मध्यवर्ग; वकील; डॉक्टर; व्यापारी;
पूंजीपति – तपका सार्वभौमिक मताधिकार के आंदोलन के लिए बैंक्वेट कंपेन (भोज
अभियान) के आयोजनों कोष इकट्ठा कर रहे थे। इन अवसरों पर, जाने-माने लोग
क्रांति के पक्ष में ओजस्वी भाषण देते। लुई ब्लांक इस अभियान के प्रमुख नेता थे। 12
परवरी 1848 को मध्यवर्ग और मजदूर वर्गों द्वारा प्रदर्शन की आशंका से अधिकारियों
ने आयोजन पर रोक लगा दी। पेरिस के नागरिकों ने इस दमन का विरोध किया और पेरिस की
गलियों में जनसैलाब उमड़ पड़ा – मजदूर, मध्यवर्ग, छात्र, कारीगर सभी। नेसनल
गार्ड, पेरिस के मध्यवर्ग को नागरिक सुरक्षा बल, राजा लुई फिलिप की सेवा छोड़
क्रांतिकारी पक्ष में आ खड़ा हुआ। पेरिस में तैनात सेना की टुकड़ी भी
क्रांतिकारियों से आ मिली। रियायतों की राजा की पेशकश मजदूरों ने ठुकरा दिया और
राजा फिलिप चुपके से देश छोड़कर भाग गया। लोगों ने फ्रांस में 24 फरवरी को दूसरे
जनतंत्र की स्थापना की। प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार ने सूचनाओं और विचारों के
प्रसार को अभूतपुर्व गति दे दी। फ्रांस में क्रांति की सफलता की खबर सारे यूरोप
में फैल गयी और हर जगब विद्रोह के बिगुल बज उठे जिनके विश्व इतिहास में दूरगामी
प्रभाव पड़े। जैसा कि हम आगे देखेंगे कि फ्रांस, प्रसिया तथा जर्मनी समेत क्रांति
और सर्वहारा के पैरोकारों क्रांतिकारियों का निर्मम दमन हुआ, लेकिन यूरोप के सभी
देशों में उदारवादी राज्य की बुनियादें पक्की हो गयीं।
क्रांति का उत्तरकाल
जैसा कि हम ऊपर देख
चुके हैं कि 1848 और 1851 के दौरान दो बार ‘जनादेश’ प्राप्त कर बोनापार्ट ने
जनादेश भविष्य में जनादेश का प्रावधान ही खत्म कर अधिनायकवादी शासन की स्थापना की।
क्रांति की चर्चा का समापन मार्क्स द्वारा एटींथ
ब्रुमेअर ऑफ लुई बोर्नापार्ट में
घटनाक्रम के विश्लेषण से करना ठीक रहेगा। मार्क्स
फरवरी 1848 से दिसंबर 1851 को तीन कालखंडों में बांटते हैं: 24 फरवरी को लुई फिलिप
के तख्ता-पलट से 4 मई 1848 को राष्ट्रीय संविधान सभा के गठन तक – क्रांति की
भूमिका का काल। इस काल की कार्यकारी सरकार में आंदोलन में भागीदार सभी तपकों को
हिस्सेदारी मिली, कुलीन प्रतिपक्ष; गणतंत्रवादी धनिक वर्ग;
जनतांत्रिक-गणतंत्रवादी; छोटे-मोटे कारोबारी (पेटी बुर्जुआ); और सामाजिक
जनतंत्रवादी मजदूर वर्ग। “जो हुआ वही हो सकता था। फरवरी क्रांति राजनीति
में कुलीन धनिकों के वर्चस्व को खत्म कर राजनीति में नए धनिकों के प्रतिनिधित्व
में वृद्धि के द्देश्य से शुरू हुई। लेकिन जब जंग शुरू हो गयी और लोगों ने बैरीकेड
खड़ा करना शुरू किया, नेलनल गार्ड दूसरी तरफ देख रही थी और सेना ने कोई रुकावट
नहीं डाली, राजा भाग गया। गणतंत्र की घोषणा अब वक्त की बात थी। हर तपका अपने हित
में अपने ढंग से क्रांति की व्ख्या कर रहा था। एक बार हाथ में हथियार आया तो
सर्वहारा ने क्रांति पर सामाजिक गणतंत्र की मुहर लगा दी। इसमें आधुनिक क्रांति की
अंर्कथा अंतनिहित थी, एक ऐसी अंर्कथा जिसका सभी समकालीन चीजों से विरोधाभास था,
जिसे उपलब्ध सामग्री; आमजन की शिक्षा का स्तर के हालात में जिन्हें प्राप्त किया
जा सकता था। ...... जब पेरिस का सर्वहारा नए परिदृश्य में एक नई विश्वदृष्टि से
सामाजिक समस्याओं पर गंभीरता से विमर्श कर रहा था, समाज की यथास्थिति के ताकतें
एकजुट होकर नई स्थिति में नई तरकीबें तैयार करने में जुट गयीं और उन्हें
परंपरावादियों; किसानों और छोटे कारोबारियों का अभूतपूर्व समर्थन मिला जो जुलाई
राजशाही का किला ढहते ही राजनैतिक मंच पर कूद पड़े थे”।
“दूसरा काल 4 मई 1848 से 1849 मई के अंत तक का कास जो
संविधान निर्माण, पूंजीवादी (बुर्जुआ) गणतंत्र की स्थापना का काल है। राष्ट्रीय
चुनाव से निर्वाचित राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाली संसद की 4 मई 1848 की
राष्ट्रीय संसद की बैठक फरवरी के समाजवादी लफ्फाजी की प्रत्यक्ष निषेध थी और
क्रांति के बुर्जुआ चरित्र की खुली घोषणा। पेरिस का सर्वहारा इस चाल को समझ गया और
उसने 15 मई की बैठक जबरन भंग करके इसके पुनर्गठन का व्यर्थ प्रयास किया। सारी
प्रतिक्रियावादी ताकतें इसके विरुद्ध कजुट थीं। यह अब सर्वविदित है कि 15 मई के
संसद की बैठक का एक ही मकसद था – इस पूरे समय में सर्वहारा के प्रामाणिक नेता
ब्लांकी और उनके साथियों को सार्वजनिक मंचों से बार रखना।
“लुई फिलिप की
बुर्जुआ (पूंजीवादी) राजशाही की वारिश बुर्जुआ (पूंजीवादी) रिपब्लिक ही हो सकती
थी। जहां पूंजीपति वर्ग का छोटा सा हिस्सा फ्रांस पर राज करता था, अब पूरा वर्ग जनता
के नाम पर राज करेगा। पेरिस की सर्हारा की मांगें यूटोपियन और बकवास बताई
गयीं, बंद होनी चाहिए। राष्ट्रीय संसद की इस उद्घोषणा के विरुद्ध पेरिस
के सर्वहारा ने जून में बगावत कर दी। इस भीषणतम गृहयुद्ध
में विजय बुर्जुआ रिपब्लिक की हुई। उसके साथ सब थे – सेठ-महाजन; औद्योगिक
पूंजीपति; मध्य वर्ग; छोटे कारोबारी; फौज और चलते-फिरते सुरक्षा दस्तों के रूम में
संगठित लम्पट सर्वहारा; धर्मगुरु;
बुद्धिजावी और लग्रामीण जनता। सर्वहारा के साथ कोई नहीं था वह अकेला था।
विद्रोह कुचलने के बाद तीन हजार से अधिक विद्रोहियों को मौत के घाट उतार दिया गया
और पंद्रह हजार को बिना मुकदमे के देशनिकाला। इस पराजय से सर्वहारा, क्रांति के
मंच के नेपथ्य में चला गया”।
लुई बोनापार्ट भारी बहुमत से सत्ता में आने के
बाद सत्ता पर एकाधिकार जमाकर संसद को अप्रासंगिक बना दिया। सर्वहारा के ब्लांकी जैसे प्रमुख नेताओं को बंद करके अदालती
चक्करों में फंसा दिया। इंगलैंड
के चार्टिस्ट आंदोलन का हश्र हम ऊपर देख चुके हैं, 1848 महज गरज कर, बरसे बिना ही
चार्टिस्ट जनांदोलन के बादल छंट गये, यद्यपि सरकार ने बारिस रोकने के लिए पुलिस और
सेना का पुख्ता इंतजाम कर रखा था। इस तरह सार्वभौमिक पुरुष मताधिकार के बाद
इंगलैंड के मजदूरों का बड़ा हिस्सा पेट का सवाल भूल, दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य
का नागरिक होने के गौरव में फंस गया। 1848-51 के त्रासद घटनाक्रम के बाद लंबे समय
तक समाजवाद शब्द सार्वजनिक विमर्श की दुनिया से गायब रहा। मार्क्स पूंजीवादी
अर्थशास्त्र के गतिविज्ञान के नियमों की 1843 में इक़नामिक एंड फिलॉस्फिकल
मैनुस्क्रिप्ट (आर्थिक और दार्शमिक दस्तावेज) से शुरू अपने आविष्कार में जुट
गए। 1960 के दशक में दुबारा उपस्थिति दर्ज कराया तो धमाके के साथ – इतिहास में
मजदूरों के पहले अंतर्राष्ट्रीय संगठन – इंटरनेसनल असोसिएसन ऑफ वर्किंग मेन – का
गठन हुआ, जिसके बारे के में इस लेखमाला अगले खंड में बात की जाएगी। इस दौरान
क्रांति की ज्वाला शांत थी, बुझी नहीं थी। 1871 में मौका मिलते ही सर्वहारा ने
पेरिस में विद्रोह कर दिया जो कि सही मायने में सर्वहारा क्रांति थी। पेरिस कम्यून
कुचल दिया गया लेकिन सर्वहारा के तानाशाही के सिद्धांत के लिए मिशाल छोड़ गया।
पेरिस कम्यून के बारे में भी अगले लेख में चर्चा होगी।
ईश मिश्र
17 बी,
विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली
110007
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