भारतीय रेल के इतिहास में, मेरे ख्याल से, एकमात्र ऐसा वाकया हुआ हो कि रेल के किराए बिना किसी की मांग के अपने-आप घटे हों और सुवविधाएं बढ़ी हों. जिन्हें जनता पार्टी की सरकार के दिन याद हों तो प्लेटफॉर्म का टिकट 1 रूपए से घटकर 50 पैसे हुए थे, थर्ड क्लास कंपार्टमेंट का उन्मूलन हुआ, गाड़ी के भोजन की गुणवत्ता में सुधार हुआ, .... और रेल ने घाटे में चलना बंद कर दिया था. मुखिया के व्यक्तित्व का असर मातहद सहकर्मियों पर भी (शायद ) पड़ता हो और मुखिया थे, मधु दंडवते जिनकी साधरणता ही उनकी असाधरणता थी और सरलता विस्मयकारी. मेरा निजी संपर्क तो नहीं था लेकिन एक बार मिलने और सभाओं में सुनने का अवसर मिला है. 1977 में जनता पार्टी सरकार के गठन के पहले इलाहाबाद के कुछ समाजवादी मित्रों के साथ बीपी हाउस में सोपा या संसोपा (याद नहीं है) के दफ्तर चले गये. मधु दंडवते जी पार्टी के कार्यकर्ताओं से इतनी सहजता से बात कर रहे थे कि यकीन नहीं हुआ. कुछ और लिखना था कि चंचल भाई ने फंसा दिया. करनी-कथनी में एका रखने वाले विरले लोग सदा सम्मान-योग्य हैं और उनकी नीयत पर संदेह नहीं करना चाहिए तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद. लोहियावादियों से मेरी हमेशा तू-तू मैं-मैं (वैचारिक) होती रहती है लेकिन उनमें से कई मेरे घनिष्ठ मित्र रहे हैं. हमारी खेत-मेड़ की लड़ाई तो है नहीं, सत्य -- समाज की समझ, समतामूलक समाज की रूपरेखा और वहां पहुंचने के रास्ते -- की समझ और व्याख्या को लेकर असहमति है, लेकिन अंतिम सत्य होता नहीं, मतभेदों के संवाद से ही समकालिक सत्य की उत्पत्ति होती है. एक असाधरारण व्यक्तित्व और समतामूलक राजनीति के प्रतिबद्ध, कर्मठ,कार्यकर्ता, मधु दंडवते जी को उनके जन्मदिन पर नमन.
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