हम मुल्क के दानिशमंद हैं
पाबंद नियम-कानून के
पैबंद नये निज़ाम के
दुश्मन नैतिकता के खोखले पैगाम के
हम सोने की कुर्सी के हक़दार
संस्कृति के हम पहरेदार
कथनी-करनी का साश्वत अलगाव
मजबूत करता उनका सैद्धांतिक लगाव
हम विमर्श में दक्ष हैं
बोलना हो चाहे पक्ष मे चाहे पक्ष विपक्ष हो
पक्ष-विपक्ष माया है वफा के आराध्य के समक्ष
जिनकी खायेंगे गुण भी तो उन्हीं का गायेंगे
बदलता है जैसे ही परवरदिगार
बदल जाता है हमारे दिल का उद्गार
प्रभु तो व्यापारी हैं हम हैं महज शिल्पकार
बाजार की मांग पर हम गढ़ते विचार
शिल्पकार से बन गये व्यापारी
दोगलापन तो व्यवस्था का अभिन्न अंग है
हम तो बस निर्धारित आचरण के पाबंद हैं
(एक अजन्मी कविता की भूमिका)
(ईमिः24.07.2015)
(ईमिः24.07.2015)
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