Wednesday, July 15, 2015

क्षणिकाएं 51 (721-30)

721
नहीं जानता क्यों लिखता हूं कविता
लेकिन लिखता हूं कविता
इल्म नहीं बिंब-प्रतीकों के तिलस्म का
फिर भी लिखता हूं कविता
नहीं मालुम अमिधा-व्यंजना का रहस्य
तब भी लिखता हूं कविता
नावाकिफ हूं छंद-ताल के नियमों से
मगर छोड़ता नहीं लिखना कविता
अनभिज्ञ हूं मात्रा-लय कि मजमून से
बावजूद इसके लिखता हूं कविता
कह सकूं मन की बात
शायद इसीलिए लिखता हूं कविता
भले ही लोग कहें सपाटबयानी
जब तक करेगा मन लिखता रहूंगा कविता
(ईमः29.06.2015)
722
यह इक्कीसवी सदी की मूर्तिभंजक औरत है
जिसने बंद कर दिया है किस्मत का रोना-गाना 
 प्रज्ञा से बना दिया है मर्दवाद को  हास्यास्पद खिलौना
तोड़ती है सब प्रतिबंध सेंसर, कर्फ्यू और वर्जना
करता है कलम इसका बेबाक बुलंद सिंह गर्जना
इक्कीसवी सदी की यह औरत नहीं है अब अकेली
सारा कायनात है अब इसके संघर्षों की सहेली
नहीं करती पूज्या बन किसी मंदिर में अंतर्नाद
न ही बन भोग्या किसी गैर का घर आबाद
जलाकर करती है रीति-रिवाज़ों के बंधन बर्बाद
लगाती है अब नारा-ए-इंक़िलाब ज़िंदाबाद 
नहीं गाती यह अब नगाड़े की चोट पर नौटंंकी की बहर
लाती नई सबा गढ़ती नया खुशनुमा सहर
इसके हाथ में श्रृंगार की डिबिया नहीं बंदूक होती है
यह औरत कॉफी नहीं बनाती क्रांति करती है
(ईमिः 29.06.2015)
723
कल्पना  नहीं हकीकत है यह औरत
भावी इतिहास की नसीहत है यह औरत
छुई-मुई नहीं वाचाल है यह औरत
आज्ञाकारी नहीं दावेदार है यह औरत
जी हां, ख़ौफनाक है यह औरत
मर्दवाद के पैरोकारों के लिए
परंपरा के रखवालों के लिए
सरमाए के किलेदारों के लिए
हो रहा है मुखर उसका कलम 
बढ़ रहा है आगे उसका कदम 
खाई है मानव-मुक्ति की कसम
रुकेगी नहीं जब तक है दम
(एक अजन्मी कविता का प्राक्कथन)
(ईमिः 30.06.2015)
724
बस ऐसे ही. बौद्धिक वारागर्दी का एक नमूना--

वो खुदा जो तेरे करीब है
वही तो मेरा रकीब है

ज़िंदगी की क्यों तलाश है
वह तो निशदिन तेरे पास है

गलियों में भटकने  से भटकता रास्ता
मिल जाता है हो ग़र मकसद से वास्ता

भटको मत संधान करो
मार्गों का अनुमान करो

लगा दो विवेक को अनुसंधान के काम पर
मानो उसकी बात दिल को अपने थाम कर

मक़सद ग़र बड़ा तो राह मुश्किल होगी
नीयत की पाकीज़गी राह आसान कर देगी 
(ईमिः 02.07.2015)
725
न बंद किया होता लिखना कविता ग़र तस्वीरों पर
जरूर लिखता इस काव्यमय तस्वीर पर एक उड़ती कविता
शब्दों में पिरोता आंखों में छिपा तक़लीफ़ का उमड़ता समंदर
चेहरे पर  आत्मविश्वास से लबरेज दुनिया बदलने का संकल्प-भाव
जब भी फिर कभी शुरू करूंगा कविता लिखना तस्वीरों पर
जरूर लिखूंगा इस तस्वीर के विद्रोही तेवर पर एक लंबी कविता.
(ईमिः 05.07.2015)
726
जहालतों में जहालत-ए-आज़म है सियासी ज़हालत
वह न सुनता है न बोलता है न ही शरीक होता किसी प्रदर्शन में
क्योंकि वह नहीं समझता सियासत का मतलब
वह सियासी जाहिल है
नहीं जानता कि सियासत ही तय करती है
रोटी-पानी दवा-दारू आज़ादी-गुलामी के मूल्य
इतना ही नहीं वही तय करती है कीमत ज़िंदगी की भी
ये ज़ाहिल इतने ज़ाहिल हैं कि शर्म की तो बात दूर
फ़क़्र करते हैं सियासी जहालत पर
और सियासत से नफरत सौतेली औलाद की तरह
वह बंद दिमाग नहीं जानता
कि उसी की जहालत के नतीजे हैं
लावारिश बच्चे तथा वेश्यावृत्ति
उसी का नतीजा है
चोर उचक्कों का बन जाना सियासत के सिररमौर
जो खुले आम करते हैं देशी-विदेशी कंपनियों की दलाली
और मुल्क की नीलामी
रोकना है ग़र आवाम की तबाही तथा विनाश का विकास
समझना पड़ेगा सियासत का अर्थशास्त्र
और तय करना पड़ेगी अपनी सियासत
गर चाहते हो मानवता की मुक्ति
कॉरपोरेटी हैवानों से
खोलने पड़ेंगे सियासत के मदरसे
हर शहर में हर गली हर गांव में
जैसे जैसे छंटेंगे सियासी जहालत के बादल
एक-एक कर ध्वस्त होतते रहेगे 
दलाली की सियासत के खंभे
तब शुरू होगी एक नई सियासत
सचमुच के जम्हूरियत की सियासत
(ईमिः08.07.2015)
727
चलो ! मिलते हैं फिर एक बार
ऐसे जैसे मिल रहे हों पहली बार
यहाँ नहीं. कहीं और
जहां तुम मुझे सुन सको
और मैं पहचान सकूं तुम्हारी आवाज़ 
आओ चलें किसी अनजाने द्वीप पर 
यहाँ न तुम सुन पाती मुझे
और मुझे सुनाई देती है
तुम्हारी बातों में अनकही बातें
प्रतिध्वनियों से दम घुटता है
आओ मिलते हैं फिर से
ऐसे जैसे पहले मिले ही नहीं
लेकिन कहीं और
और अजनबी बनकर 
आपरिचित चेहरों के साथ
खोजें एक दूजे को
आँख बंद कर टटोलते हुए
पुकारें अनकहे अनसुने शब्दों में
शुरू करें नया संवाद
समझ सकें हम जिससे
पारस्परिक अस्मिताएं
उनकी सम्पुर्णता में
अंशों में नहीं
आओ मिलते है
लेकिन कहीं और यहाँ नहीं
क्योंकि मिलने की जरूरत है
संभव है मिलने से
उन बातों पर हो सके बात
जिन्हें नहीं होना चाहिए था
और एक नई धुप की रोशनी में
हो सकता है हम झाँक सकें
एक दूसरे की दुनिया में
मुक्त कर सकें जहां
अपने अंश नहीं सम्पूर्ण अस्तित्व
और सत्यापित कर सकें
साश्वत परिवर्तनशीलता का सिद्धांत
आओ मिलते हैं
यहाँ नहीं, कहीं और
किसी नए द्वीप में जहां न हों दीवारें
और न सुनाई दे प्रतिध्वनियां
संवाद के गढे जा सकें नए स्वर
अनकहे अनसुने
अनक्षर अनश्वर
आओ मिलते हैं लेकिन कहीं और.
यहाँ नहीं.
[ईमि/07.07.2015]
728
हिंद-ओ-पाक
पढ़ रहा था हबीब जालिब की गजल का वो मिसरा
है जिसमें ज़ुल्म की रात के बाद का नया सवेरा
होगा नहीं इन मुल्कों में अमरीका का कोई डेरा
फ़क़्र से कहेगे हिंदुस्तान भी मेरा पाकिस्तान भी मेरा
गहन अंधेरे ने लेकिन फिर से हम सबको घेरा है
पूरी दुनिया मे अब तो अमरीका का ही डेरा है
अाया है जब से भूमंडलीकरण का दौर
तीसरी दुनिया बन गया साम्राज्यवादी ठौर
लॉर्ड क्लाइव की नहीं है अब कोई दरकार
सिराज्जुदौली भी निभाता मीरज़ाफरी किरदार
खत्म होना ही है सबको है जिसका भी वजूद
ये घना अंधेरा भी रहेगा न सदा मौजूद
आयोगा ही धरती पर इक नया सवेरा
स्वतंत्रता समानता का बनेगा बसेरा
अपनी ही चालों में फंस रहा जब पूंजीवाद
हिंद-ओ-पाक में फैला रहा है वो फासीवाद
जगेगा जमीर जब दोनों मुल्कों का आवाम का
समझेगा वह हकीकत विश्वबैंक के पैगाम का
भूमंडलीय पूंजी की साजिश नाकाम कर देगा
फासीवाद को उसके अंजाम तक ले जायेगा
हिंद-पाक मिल साथ हिंदुस्तान बन जायेगा
बचेंगी न बंटवारे की कड़वी स्मृतियां शेष
हिंदुकुश से अरबसागर तक होगा एक ही देश
(ईमिः12.07.2014)
729
ग़म-ए-गर्दिश के दौरा की इनायत बेगुनाहों पर ही होती है
गुनहगार तो गम-ए-जमाखोरी के दौरा से परीशां रहते हैं
(ईमिः13.07.2015)
730
गुजरे वक्त की याद बहुत ज्यादा आती है
जब वक्त गुजरा ही हो
उनके बिना जो छूटते हैं उस वक्त 
होती है नये वक्त की कल्पना भी मुश्किल 
गुजरते वक्त के साथ
जुड़ती हैं नई यादें 
धूमिल करते हुए उस गुजरे वक़्त की यादों को
जो अब कभी-कभी प्रसंगवश ही आती हैं
(अरे ये भी कविता हो गई हा हा )
(ईश मिश्रः 15.07.2015)










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