711
मोदी को मारा मोदी ने दोनों
हैं दुश्मन-ए आवाम
एक ने किया दलाली दूजे ने
किया मुल्क नीलाम
(ईमिः16.06.2015)
712
आज़ाद
केजन्मदिन पर
ईश मिश्र
इन्किलाब
जिंदाबाद -जिंदाबाद ज़िंदाबाद
एक
इन्किलाबी का जन्मदिन है आज
कांपता
था जिससे अंगरेजी साम्राज्य
नाम है
उसका चंद्रशेखर आज़ाद
कमांडर
था वह हिन्दुस्तान सोसलिस्ट सेना का
आम जनता
का राज जो लाना था
गरीबी-गैरबराबरी
से मुक्त समाज बनाना था
इंसान का
इंसान से शोषण नामुमकिन करना था
मिला
भगत-भगवती से विद्वान-वीरों का साथ
थे
सारे-के सारे निर्भय और इन्किलाबी जन्मजात
गूँज उठा
भारत भर में नारा-ए-इन्किलाब ज़िनाबाद
हुआ जब
प्रतिध्वानित यह नारा हिमालय की चोटिओं से
सुनाई
दिया लन्दन में उसे बंद महल की खिड़कियों से
चूलें
हिल गयीं सम्राट की बौखला गया हुक्मरान
उनमें भी
हलचल मची चलाते थे जो शान्ति-अभियान
कद आज़ाद
की सेना का जैसे-जैसे बढ़ता गया
जालिम
ज़ुल्म में तेजी लाता गया
हो गए थे
भगवती-भगत-राजगुरु-सुखदेव शहीद
आज़ाद
तलाश रहे थे इन्किलाब की नई तजवीज
डाला
इलाहाबाद के एक पार्क के जंगल में अस्थायी डेरा
तभी
गद्दारों-मुख्विरों के जरिये वहां डाल दिया दुश्मन ने घेरा
अकेले
आज़ाद ने घंटों सम्हाला मोर्चा अंग्रेजी सेना का
दिया
नहीं मौक़ा खुद पर निशाना लगाने का
किया अंतिम
गोली का इस्तेमाल खुद पर
शहीद-ए-आज़म
हो गए आज़ाद मर कर
मरता
नहीं शहीद ज़िंदा रहते हैं उसके विचार
देते हैं
प्रेरणा होते नए इन्किलाबी उभार
अमर रहो
कामरेड आज़ाद, कोटिक
लाल-सलाम
जारी
रहेगा शोषण-मुक्त समाज का तुम्हारा अभियान
आने वाली
पीढियां आगे बढाती रहेंगी इन्किलाबी पैगाम
इन्किलाब
जिंदाबाद, जिंदाबाद
चंद्रशेखर आज़ाद .
(23.07.2011)
713
गीता पाठ
वह कहता है लोग
गीता पढ़ें करें और योग
धनपशु जिससे कर
सकें बेखटक राजभोग
गीता है महाभारत
में एक मनुवादी प्रक्षेपण
देती है जो विवेक
की तालाबंदी का प्रशिक्षण
मेहनतकश की तो दिनचीर्या
ही है संपूर्ण योग
जरूरत यह उनकी
करते जो बिन मेहनत भोग
एक ग्वाला जब
धनुर्धर का सारथी बन जाता
जादू के सम्मोहन में
विकराल रूप दिखाता
खुद को सर्वज्ञ और
सृष्टि का श्रोत बतलाता
चमत्कृत धनुर्धर हो
वशीभूत दंडवत हो जाता
मदारी को माता पिता
गुरु सबकुछ मान लेता
बन स्वयंभू विधाता
देता धनुर्धर को उपदेश
बिन सोचे समझे मानो
प्रभुओं का आदेश
धर्मयुद्ध के नाम पर
करवाता जनसंहार
भरता दिलों में
युद्धोंमादी हिंसक विचार
हिंसा से विरक्ति को
बतलाता जघन्य पाप
मरने वाला कोई भी हो
दादा भाई या बाप
चिंता के बिन फल के
देता कर्म का उपदेश
दुनया को देता
रक्तपात का पुनीत संदेश
फेकता है भक्तिभाव
का एक मोहक जाल
बुनता है तब
स्वर्ग-नर्क का जटिल मायाजाल
पूंजीवाद की तरह
पैदा करता है मन में वहम
बढ़ने के लिए आगे
बनना है बिल्कुल बेरहम
जीतने पर देता है
छलावा भोगने का संसार
हारने पर खुल
जायेंगे बैकुंठलोक के द्वार
दिखाता डर पिछड़ने
का लगाने पर दिमाग
दुनिया में मची है
जीतोड़ भागम्भाग
छिपा लेता है चुपड़ी
बातों में युद्ध का निहितार्थ
कि पीछे है इसके
शासक वर्गों के निजी स्वार्थ
जंग तो खुद है एक
खतरनाक ऐतिहासिक मसला
ये क्या साधेगा कोई
भी सामाजिक मामला
कि जीतता नहीं कोई
भी जंग में हारता है आवाम
रक्तरंजित धरती बन
जाती है भयावह शमसान
हर तारीक़ी दौर में
जंग चाहता है जंगखोर
निःसंकट राज करे
आवाम पर जिससे हरामखोर
और भी बहुत कुछ
छिपाता है यह विधाता
भक्तिभाव में जिसको
भी बाधक है पाता
हर शासक आवाम को
पढ़ाता है गीता
इससे ठगने में लोगों
को होती जो सुभीता
पढ़ो गीता मगर लगा
कर दिमाग
छल-फरेब के जाल में
लगा दो आग
अंत में भक्त जनों
को देता हूं यह संदेश
बिन विचारे मानो मत
किसी प्रभु का आदेश
चिंतनशक्ति है
विशिष्ट इंसानी प्रवृत्ति
अन्यथा करता वह खुद
की पशुवत पुनरावृत्ति
चिंतन जब मुल्तवी कर
देता इंसान
खींचता है ज़िंदगी
पशुओं के समान
जीना है अगर इंसानी
सम्मान के साथ
गीता के उपदेशों को
मारो तगड़ा लात
(ईमिः 19.06.2015)
नोटः कल रात फेसबुक
पर एक कमेंट में ठीक-ठाक कविता लिखा गई थी ई-अल्पज्ञान के चलते गायब हो गयी. सारी
सुबह, काफी कोशिस के बात भी वह बात नहीं आ पायी. वही बात वैसे भी बीते पलों की तरह
दुबारा नहीं आती.
714
ढूढ़ रहा था तुम्हारी यही
तस्वीर
उतारा था जिसे कविता में
तुमसे मिलने से पहले ही
और थमा दिया था लाल फरारा
कल्पना करो उस कवि की खुशी
के आलम का
साकार हो जिसकी कल्पना
लेकिन तुम तो पहले ही
उठा चुकी थी इंकिलाबी परचम
कविता की कल्पना के पहले
कल्पना यथार्थ का ही
अमूर्तिकरण है
(ईमिः 18.06.2015)
715
आत्मप्रेम
मैंने तो बचपन के बाद ही
त्याग दिया आत्मप्रेम
जानते हुए कि यह नैसर्गिक
इंसानी प्रवृत्ति है
याद हैं वे दिन
जब गर्मी की छुट्टियों में
चरवाही के दरम्यान
संठे से जमान पर उकेरता
अपना नाम
सभी ज्ञात भाषाओं में
और कोई कल्पित पदनाम
जैसे जैसे मालुम होती गयीं
कमियां
एहसास होता गया अपने
दुर्गुणों का
कैसे रख सकता जारी प्यार
ऐसे अपात्र से
न तो देखने-सुनने में किसी
लायक
ऊपर से सद्गुणों से विपन्न
संगीतशून्य और खेदकूद में
लद्धड़
शहरी भेष में छिपे न जिसका
देहातीपन
सिंगल पसली की काया
फूहड़ मजाक लगता बाहुबल का
कोई दावा
दुर्गुणों फेहरिस्त लंबी
इतनी
कि पागल उपनाम दिलाया
मैं क्या कैसे कर सकता है
प्यार कोई भी समझदार
ऐसे किसी सर्वदुर्गुणसंपन्न
शख्स से
पागल कहने वाले लोग मुझे
समझदार भी कहते थे
नहीं समझ पाता था रहस्य इस
शाब्दिक विरोधाभास का
शक करता था पागलपन पर
मान लिया था मगर समझदार
होने की बात
सो छोड़ दिया खुद से प्यार
और करने लगा जमाने से
क्योंकि प्यार के बिना कोई
रह भी तो नहीं सकता
(ईमिः 29.06.2015)
716
नहीं जानता क्यों लिखता हूं
कविता
लेकिन लिखता हूं कविता
इल्म नहीं बिंब-प्रतीकों के
तिलस्म का
फिर भी लिखता हूं कविता
नहीं मालुम अमिधा-व्यंजना
का रहस्य
तब भी लिखता हूं कविता
नावाकिफ हूं छंद-ताल के
नियमों से
मगर छोड़ता नहीं लिखना
कविता
अनभिज्ञ हूं मात्रा-लय कि
मजमून से
बावजूद इसके लिखता हूं
कविता
कह सकूं मन की बात
शायद इसीलिए लिखता हूं
कविता
भले ही लोग कहें सपाटबयानी
जब तक करेगा मन लिखता
रहूंगा कविता
(ईमः29.06.2015)
717
इसी लिए
कहता हूं चलो कहीं और चलें
कहीं ऐसी
जगह जहां तुम कह सको
और मैं
समझ सकूं तुम्हारी बात
यहां की
दीवारों से टकरा कर आने वाली प्रतिध्वनि
शोर बन
जाती हैं
चलो वहां
चलें जहां दीवार न हो
न हो
जहां डीजे का कान फाड़ू तमाशा
या भगवती
जागरण का हो-हल्ला
न हों
जहां गांव के चौपाल की शातिर तिकड़में
या शहरी
मशक्कत की भागमबाग
अफवाहों
की गर्म बाजार न हो
शतरंज की
सियासी चाल न हो
जहां हम
हों और हमारा जमीर
चलो कहीं
और चलें
जहां सुन
सकूं तुम्हारे मुखर मौंन की आवाज़
और कह
सकूं मन की बात
यहां तुम
कुछ कह नहीं पाती
और मैं
अनकहा सुनकर भी समझ नहीं पाता
(ईमिः 22.06.2015)
718
जब होता
है मन उदास
मौसम भी
उदास दिखता है
होता है
जो बहुत दूर
मन के
पास दिखता है
मगर मन
पर
नाक का
सम्मान भारी पड़ता है
तब
औपचारिक वार्ता का
कोई उचित
बहाना खोजता है
चहता बस
एक हल्की बयार
आंधी-तूफां
की बात करता है
डूबने को
बहुत है एक चुल्लू
सागर में
कूद पड़ता है
जब होता
है मन उदास
मौसम भी उदास
दिखता है
(ईमिः23.06.2015)
719
भूपत के
पास जमीन नहीं है
लेकिन
गांव में घर पर बीबी बच्चे हैं
और
दिल्ली में अपना खुद का रिक्शा
भूपत 30 साल से यही करता है
विश्वविद्यालय
गेट पर रिक्शा लगाता है
खा-पीकर
जो बचता है घर भेज देता है
जून की
हर छुट्टी में गांव चला जाता है
भूपत का
कभी कभी निरूलाज़ जाने का मन कहता है
मगर याद
कर गांव में बच्चों की भूख
फुटपाथ
के छोले-कुल्छे से काम चलाता है
व्यर्थ
ही पूछते हो गरीब की रुचि या स्वाद
मिलता
उसे जो भी समझता उसे परमात्मा का प्रसाद
अब भूपत
सवारी छोडने के बाद
निरूलाज़
के अदर झांकता नहीं हैं
कभी भी
उसका मन निरूलाज़ जाने को नहीं होता
भूपत के
पास जमीन नहीं है
(ईमिः23.06.2015)
720
आत्मप्रेम
मैंने
तो बचपन के बाद ही त्याग दिया आत्मप्रेम
जानते
हुए कि यह नैसर्गिक इंसानी प्रवृत्ति है
याद
हैं वे दिन
जब
गर्मी की छुट्टियों में चरवाही के दरम्यान
संठे
से जमान पर उकेरता अपना नाम
सभी
ज्ञात भाषाओं में
और
कोई कल्पित पदनाम
जैसे
जैसे मालुम होती गयीं कमियां
एहसास
होता गया अपने दुर्गुणों का
कैसे
रख सकता जारी प्यार ऐसे अपात्र से
न तो
देखने-सुनने में किसी लायक
ऊपर
से सद्गुणों से विपन्न
संगीतशून्य
और खेदकूद में लद्धड़
शहरी
भेष में छिपे न जिसका देहातीपन
सिंगल
पसली की काया
फूहड़
मजाक लगता बाहुबल का कोई दावा
दुर्गुणों
फेहरिस्त लंबी इतनी
कि
पागल उपनाम दिलाया
मैं
क्या कैसे कर सकता है प्यार कोई भी समझदार
ऐसे
किसी सर्वदुर्गुणसंपन्न शख्स से
पागल
कहने वाले लोग मुझे समझदार भी कहते थे
नहीं
समझ पाता था रहस्य इस शाब्दिक विरोधाभास का
शक
करता था पागलपन पर
मान
लिया था मगर समझदार होने की बात
सो
छोड़ दिया खुद से प्यार
और
करने लगा जमाने से
क्योंकि
प्यार के बिना कोई रह भी तो नहीं सकता
(ईमिः 29.06.2015)
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