701
चिराग जलता रहेगा सहर होने
तक
जंग चलता रहेगा अमन आने तक
डर है कि काले बादलों से न
घिर जाये माहताब
दाग़दार न हो जाये इक नई
सुर्ख सुबह का ख़ाब
आम अादमी की भूमिका में थे
जब आप
सोचा था लोगों ने कम होगा
कुछ संताप
मगर बनते ही खास आम से
दफ्न किया नैतिकता आराम से
उतार फेंका आम आदमी का
चोंगा
आवाम को दुत्कारा कह पंडित
पोंगा
अपनाया सत्ता पाने की
मैक्यावली की सलाह
किया न मगर चलाने के
मशविरों की परवाह
अवश्यंभावी है उसी तरह आपका
सर्वनाश
हो रहा है जिस तरह वंशवाद
का सत्यानाश
क्रांति का बीज जब बोयेगा आवाम
होगा सब फरेबियों का
काम-तमाम.
(ईमिः29.03.2015)
702
ऐसा नहीं कि गहराई का
किनारों से कुछ लेना नहीं
वही तो है जो किनारों को
मिलने नहीं देती
(ईमिः 15.06.2015)
703
इल्ज़ाम का तबादला इंसानी
फितरत है
फिर भी उसकी ईमानदारी की
हसरत है
मगर मानेगा न गलती तो
सीखेगा कैसे
करता रहेगा गलतियां पहले ही
जैसे
ले ले इल्जाम अगर इंसान खुद
पर
हो शर्मिदा और अपने किये पर
शर्म में नहीं है कोई शर्म
की बात
शर्मिंदगी है क्रांतिकारी
एहसास
बेचैनी नहीं है दोष व्यक्तित्व
का
सनद है ये सर्जक कृतित्व का
शर्मिंदा होती है जब बेचैन
आत्मा
होता है पिछली गल्तियों का
खात्मा
ले सीख गलतियों से बनाती नई
डगर
बढ़ती है उस पर बिना किसी
अगर-मगर
मिलते राह में नये नये
हमसफर
आसान हो जाती है मुश्किल सी
डगर
जब भी अंधेरे के लिये बुझाओ
चिराग
मासूम हवाओं पर न लगाओ दाग
(ईमिः 15.06.2015)
704
धर्म की सहिष्णुता का
प्रतिशत
ईश मिश्र
एक धर्मस्थल के विवाद में
हया-बलात्कार, आगजनी-लूटपाट
की चन्द वारदातो का हवाला
देकर
शायर ने सवाल पूछा
धर्म की सहिष्णुता का
प्रतिशत क्या है?
धर्म बहुत ही सहिष्णु है
सहिष्णुता का प्रतिशत है
कभी सौ तो कभी दो सौ
गिनती अनंत तक जाती है
लेकिन सबकी एक सीमा होती
है.
ऐसे में जब मचा हो
नास्तिकता का चार्वाकी
उत्पात
करते सर्वशक्तिमान पर आघात
ईश-निंदा की काट तो खोजना
होगा
कुछ तो विधि का विधान बनाना
होगा
धर्म की सहिष्णुता अनंत
धर्म को समाज चलाना है
खुदा के बंदो को उल्लू
बनाना है
और पर्वर्दिगार को भी बचाना
है
उसके क़ानून को लगाना है.
मौत से कम सजा वह क्या दे
कोई गर विधि का विधान बदल
दे?
"धरती सूरज के चक्कर करती है"
कोई सिर्फिरा ऐसा यदि कह
दे!
रसूल-उल-अल्लाह से लोगे
पंगा
कैसे रहोगे भला-चंगा?
बानाओगे अगर उनकी तस्बीर
मौत ही बनेगी तक़दीर
भारत में रहोगे कहोगे नहीं
बंदेमातरम्
कौन सहेगा, कितना भी सहिष्णु धर्म?
कहे नहीं जो जय श्रीराम
धरती पर उसका क्या काम?
मिटा देंगे रामभक्त उन सबका
नाम-ओ-निशान
माँ के गर्भ से भी करेंगे
गर राम-द्रोह का ऐलान
कर दिए थे नापाक मुस्लिमों
ने कुछ स्थान
मस्जिद ओ दरगाह का इस
राष्ट्र में क्या काम?
बजरंगी वीरों ने मन में
लिया ठान
मिटा देंगे ऐसे सारे निशान
मिल गया जब मोदी का फरमान
मार दिए उनने काफी मुसलमान
कर दिया था नापाक जिन जगहों
को मुसलमानों ने
कर दिया मटिआमेट , रामभक्त बजरंगी दीवनो ने
नापाक रही जगह ख़ुद राम के
लिए नामाकूल थी
लेकिन हनुमानो के लिए काफ़ी
अनुकूल थी
मस्जिद थी जहाँ बैठे वहान
गोधडिआ हनुमान
बैठ गए मजार पर हुल्लडिआ
हनुमान
और कौन सुपात्र ऐसा
भाग्यवान ?
सेवक से बन जाए जो ख़ुद ही
भगवान ?
लूटा माल, जलाया मकान
चूर किया औरतों का गरूर ओ
गुमान
ना छोड़ी इज़्ज़त बच्ची की
न बुढिआ की आन
युग्द्रश्टा के राजधर्म का
गुजराती अभियान
धर्म की सहिष्णुता होती
अनंत,
लेकिन हर चीज की सीमा होती
है
प्लेटो और लॉक ने भी यही
कहा है,
नास्तिकता की सजा मौत होती
है.
(इमि/२४.०४.२०११)
705
ऐसा नहीं कि गहराई का
किनारों से कुछ लेना नहीं
वही तो है जो किनारों को
मिलने नहीं देती
(ईमिः 15.06.2015)
706
आषाढ़-सावन
ईश मिश्र
दिखी बूदों की पहली फुहार
ख़त्म हुआ चिलचिलाती धूप और
लिसलिसाती उमस से निजात का इंतज़ार
होने लगी निर्मल बूंदों की
बौछार खुशियों की बाढ़ लिए आ गया आषाढ़
भीगते हुए रिम-झिम में
मोटर-साइकिल पर
लगता आ गयी फसल-ए-बहार धरती
पर
बैठी हो पीछे अगर कोइ जिगरी
दोस्त
आषाढ़ की बूँदें करें और भी
मदहोश
जब-जब बादल करता बरसना बंद
इन्द्र धनुष भरता प्यार के
नए रंग
यादें हैं ये मेरे बचपन की
दस साल बीत गए थे आई थी जब
बाढ़ पचपन की
हुई थोड़ी देर आषाढ़ के
आगमन में
साँसें लगी फूलने धरती के
चमन में
पेड़-पौधे सूख गए सूख गयी
घास
फटने लगी धरती बढ़ने लगी
प्यास
इंसानों के साथ-साथ
पशु-पक्षी भी हो गए उदास
घरों में लगता जैसे ले लिया
हो चूल्हा-चक्की ने संन्यास
बची रहीं फिर भी इंसानों की
जिजीविषा और जीने की चाह
यकीन था की निकलेगी
कोइ-न-कोइ राह
लगा लोगों को वह नतीज़ा
इन्द्र की नाराज़गी का
खुश करने को उसे करने लगे
टोना-टोटका
निर्वस्त्र महिलाओं ने रात
में चलाया हल
कीचड़ में लोटते बच्चों ने
किया कोलाहल
गाये गीत देते हुए इन्द्र
को धमकी
क्या कर लेगा वह एक उजड़े
उपवन की
"बादल सारे पानी दे नाहीं-त आपण नानी दे "
तब भी नहीं इन्द्र ज़रा भी
पसीजे
हो गया था इंतज़ार का
इन्तेहाँ
तभी बादल ने धरती के कान
में कुछ कहा
धूप धीरे-धीरे छंटने लगी
उपवन में शीतल हवा बहाने
लगी
आ गयी लगता सभी में नई जान
ताकने लगे सब मिलकर आसमान
बरसा आषाढ़, था उसका जब अवसान
बिलखती धरती में फिर भी दाल
दी जान
पडी जब बुड्ढे आषाढ़ की
पहली फुहार
आ गयी धरती पर जन्नत की
बहार
बूढ़े-बच्चे- जवान उल्लास
में नाचने-गाने लगे
आषाढ़ के आगमन का उल्लास
मनाने लगे.
आता है मानसून जब आषाढ़ के
साथ साथ
होती है तब कुछ और ही बात
मिलाती नहीं सिर्फ गर्मी और
उमस से निजात
लाता है खुशियाँ तमाम
साथ-साथ
जब हम बच्चे होते थे
पहली बारिस के कीचड में
लोट-पोत हो जाते थे
खेलते थे तरह-तरह के खेल
बदता था इससे बच्चों में
आपसी मेल
मिठास आम-जामुन-कैंत में आ
जाती थी
फल का मजा लेते हुए पेड़ों
पर लखनी शुरू हो जाती थी
खुलती थी नीद सुबह हल में
नधाते बैलों की घाटियों से
निकल पड़ते थे बाग़ में
मिलने साथियों से
हरे हो जाते थे खेत-बाग़ और
चारागाह
छोटी सी मझुई का तट लगता
जैसे कोइ बंदरगाह
जैसे-जैसे आषाढ़ बढ़ने लगा
हरियाली का आलम मचलने लगा
बढ़ता ही रहा बेबाक विस्तार
की ओर
आते-आते सावन बचा न ओर-छोर
इसी लिए सावन की हरियाली पर
जोर दिया कवियों ने
आषाढ़ के साथ नाइंसाफी की
सबने
पड़ते नहीं बीज यादि खेत
में आषाढ़ में
लहलहाती नहीं फसलें सावन की
बाड़ में
होते अग़र निराला
कहते अबे सावन साला
जिस हारियाली पर तुझे है
गुरूर
आषाढ़ की नीव पर खडी है, हुजूर !
आता सावन जोड़े हाथ
कहता मैं तो मिलकर रहता हूँ
सावन के साथ
इन्सान करते रहते आपस में
मार-पीट-लड़ाई
एकता हमारी उन्हें फूटी आँख
भी नहीं सुहाई
लगा गए तोड़ने में हमारे
एकता
आषाढ़-सावन की जोड़ी कोइ
तोड़ नहीं सकता
करता है इन्शान प्रकृति से
ज्यादा छेड़-छाड़ जब
मानवता के लिए आफत बुलाता
तब-तब
आइये बंद करें प्रकृति से
जंग
सामंजस्य से मिलजुल कर रहें
संग-संग.
707
क्या कहती हैं ये चकित
हिरनी सी बेचैन आँखें?
कभी कुछ कहती हैं, कभी बतातीं कुछ और बातें
एक-एक करके कह डालना चाहती
हैं सबकुछ
रह जाता है फिर भी कहने को
बहुत कुछ
तोते सी नाक के नीचे
अर्थपूर्ण मंद मुस्कान
इरादा दर्शाती भरने की
कन्चनजंगा की ऊंची उड़ान
बादलों के बीच जो रोशनी दिख
रही
काले पर्दों के पीछे लड़की
है एक खड़ी
खोज रही हैं आँखे कोइ असंभव
लक्ष्य
मद्धिम मुस्कान है उसके
आशावादिता का साक्ष्य
मुस्कराती है जब प्रकाश हो
मद्धिम
दांत लगते हैं कंचनजंगा कि
धवल शिखाओं माफिक
बेचैन आँखें
सजकर आती होती है जब कोइ
उत्सव की बात
अलग तब भी दिखती हो हों जब
और लोग भी साथ
काले परिधान में वह
जब होती है
बादल फाड़कर निकलता सूरज
दिखाई देती हो.
आँखों का रूमानी अंदाज़ और
केशों की काली घटा
अर्थपूर्ण मंद मुस्कान
बिखेरती अद्भुत छठा
दो लटों के बीच चमकता मोती
फबता इतना नहीं यदि गर्दन
कमसिन न होती
उन्नत उरोजों पर फ़ैली है
माला ऐसे
छलकने से रोकना चाहती
हो प्याला जैसे
[ईमि/20.7.2011]
708
कलम का डर
कलम अब और नहीं चुप
रात को रात कहो धूप को धूप
बोलोगे गर सेठ जयप्रकाश के
खिलाफ
चिदाम्बरम की वर्दियां नहीं
करेंगी माफ
करोगे गर मनमोहन के गौहाटी
के महल की बात
समझा
जाएगा इसे कलम का खुराफात
विश्व
बैंक का कारिन्दा
हो सकता
है किसी भी राज्य का बासिन्दा
लेकिन कलम
रहेगा मौन
बोलेगा
फिर कौन?
होगा कलम जब
मुखर
सुनाई
देगा हर जगह विद्रोह का स्वर
नहीं होगा
तब लोगों में वर्दियों का खौफ
कलम हो
जाएगा जब बेख़ौफ़
काँपेगा
वर्दियों का मालिक थर-थर
करदेगा
कलम जब आवाम को निडर.
[ईमि/३०.५.२०१२]
709
इक्कीसवीं सदी की लड़की
मैं इक्कीसवीं सदी की मूर्ति-भंजक लड़की हूँ
रोज-रोज तोडती हूँ “लड़की” की मूर्तिया
चकनाचूर हो जाती हैं वे हथौड़े के एक ही प्रहार से
क्योंकि छल किया है लड़की के साथ
उस बहुरूपिये खुदा के मर्दवादी मूर्तिकारों ने
दिखा दिया है उसे प्रणय-पूजा के भाव मे
बैठा दिया है बेपतवार की नाव में
सीख लिया है मैंने बेपतवार नाव खेना
अभी नाव मझधार में ही है
बना लिया है हाथों को पतवार हमने
बदल ही दूंगी हवा का रुख
खोजूंगी
नया किनारा
गूंजेगा
जहाँ समानता का अनूठा नारा
हम लडकियां अपनी मूर्तिया खुद गढ़ने लगी हैं
जो तोडती हैं सारी वर्जनाएं
बेझिझक गोते खाती है वर्जित जलाशय में
तोड़ती ही नहीं खाती भी है वर्जित फल
निशाना असम्भव पर साधती है
और साबित करती है
असंभव की काल्पनिकता
हमारे हाथ में श्रृंगार की डिबिया नहीं
कलम और बन्दूक होती है
यह लडकी काफी नहीं बनाती
क्रान्ति करती है
[इमि/३१.०५.२०१२]
710
ठंढ से मौत
ईश मिश्र
ठंढ से नहीं मरते साइबेरिया
में जानवर और इन्सान
सुनते हैं हो जाता है वहाँ
शून्य से नीचे तिहत्तर तापमान
अखबार में पढते हैं उत्तर
प्रदेश का है ठंढ से मौतों का कीर्तिमान
बेघरी और भूख से भला मरता
है कोई?
पूछतेहुक्मरान.
एक सरसंघचालक थे गुरूजी
गोलवलकर
लिखा एक किताब में काफी
सोच-विचार कर
प्राचीनकाल में उत्तरी
ध्रुव था वहाँ
उड़ीसा और बिहार आज हैं
जहां
मरते हैं लोग शायद प्राचीन
काल के तापमान से
कौन बच सकता है विधि के
विधान से?
बिहार में गर्मी से मर जाते
हैं लोग
खोज लेंगे कोई गुरूजी कुछ
ऐसा संयोग
बहुत पहले विश्वत-रेखा थी
वहाँ
बहती है गंगा आज जहां
[मंगलवार, 17 जनवरी 2012/७:४२ पूर्वाह्न]
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