Thursday, August 8, 2013

मुहब्बत के नगमे


मुहब्बत के नगमे
लिखता हूँ जब मुहब्बत के भी नगमे
बन जाते हैं वे भी इन्किलाबी तराने
प्रतिध्वनित होते हैं जंग-ए-आज़ादी के नारे
लिखना चाहता हूँ जब आशिकी के चाँद तारे
मिल जाता है गम-ए-दिल गम-ए-जहान में
बैठता हूँ जब माशूक की मुहब्ब के इम्तिहान में
देखना चाहूँ जब उसकी आँखों में नैसर्गिक आकर्षण
दिखती हैं वे तकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर
सभी कर सकें प्रेम ऐसा  माहौल बनना चाहिए
इस दुनिया को जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए.
[ईमि/०९.०८.२०१३]

No comments:

Post a Comment