यह एक पोसे पर मेरे कमेंट्स:
जी विभास जी,सम्मान कमाया जाता है, न उम्र से मिलता है, न दहेज या दलाली में और इसकी पारस्परिकता इसके स्थायित्व की गारंटी है. कुछ खोखले और नैतिक-वैचारिक दिवालिये, उम्र का रोब गाँठ कर, तर्क-तथ्यों से परे कुतर्कपूर्ण फतवेबाजी करते हैं और जीवन में डिग्री और जुगाड से नौकरी के आलावा किसी अन्य उपलब्धि/योगदान के आभाव में,हीन-भावना से ग्रस्त ये लोग कुंठा-जनित अहंकार के साथ तुरंत निजी आक्षेपों पर उतर आते हैं, ऐसे दयनीय जीवों पर गुस्सा नहीं हमदर्दी दिखाना चाहिए. मैं तो साधारण व्यक्ति हूँ जिसका मुझे लगातार एहसास है. दर असल हम सब साधारण इंसान हैं, कुछ लोग असाधारण दिखने का पोरयास करते हैं. जैसा कि मैंने एक पोस्ट में कहा है कि सभ्यता दोगलेपन का संचार करती है, लोग वह दिखना चाहते हैं जो हैं नहीं. मैं भरपूर किशिस करता हूँ कि सभ्य होने से बचा रहूँ, इसी लिये जो सोचता हूँ कहता हूँ. न तो भगवान से डरता हूँ न भूत से; न खुदा से न शैतान से, इसी लिए किसी नाखुदा की मोम सी नाज़ुक भावनाओं के पिघलने की परवाह किये बिना, बिना लाग-लपेट के अप्रिय बातें भी कह देता हूँ, इससे कुछ लोग बौखलाकर निराधार निजी आक्षेपों पर उतर आते हैं, यह खैर उनकी समस्या है. भगवान अगर है तो उनका भला करे.
Vibhas Awasthiमैं तो वही करता हूँ. मैंने तो कभी किसी पर आक्षेप नहीं लगाया. मेरे किसी बात से लोग मार्क्स को गले देने लगते हैं, मैंने एक छोटा सा नोट लिखा मेहनत करके, मार्क्सवाद को सार संक्षेप में समझाने के लिए लेकिन सर्वागी लोग पढते नहीं, सिर्फ बोलते हैं. अब देहाती आदमी हूँ कभी कभी जरूरत पड़ने पर वक्तव्य में थोड़ी उजड्डता आ जाती है. हा हा
विभास ब्राउन सुगर के बात आपने शुरू किया था जो मार्क्स की मानसिक प्रयोगशाला में बनती है , और मैंने आपको इंगित करके कभी कारपोरेट पत्रकारिता का दलाल नहीं बोला. पूरी मीडिया ही कार्पोरेटी हो गयी है. सार सार गहने की अच्छी आदत भाई, अच्छा करते हैं वही बातें रिसीव करें जो उस योग्य हों.
और हाँ गटर का पानी आपने बोला था मार्क्सवाद के बारे में क्योंकि वह अयातित है, मैंने कहा था कि अपना भी देश गटर के पानी में काफी समृद्ध है, संघी और जमाती जहालत को गटर का पानी बोला था. अगर आप उनमे कोइ हैं तो मैंक्या कर सकता हूँ. कहने का जज्बा हो तो सुनने का भी माद्दा रखिये.
जी हाँ अप जैसे ज्ञानियों के लिए ही मैंने मार्क्स पर एक संक्षिप्त नोट पोस्ट किया है उस पर कोइ कमेन्ट नहीं. मैंने यह कहा था कि आपका मार्क्सवाद का ज्ञान जन-शश्रीतियों पर आधारित है. मिनी कहा था कि गटर का पाने आयातित करने की जरूरत नहीं है, अपना देश काफे समृद्ध है, वह अब भी कहता हूँ, अगर आप के दाढ़ी में तिनका हो तो मैं क्या करूं?
मैं तो भगवान और बाप-दादाओं के बारे में कुछ कहने से डरता हूँ कि लोग अहंकारी और कुसंस्कारी न समझ लें फिर भी आदतन कह ही देता हूँ. गाँव में मेरी एक बहुत अच्छे बच्चे की छवि थी. मेरी पत्नी जब मेरे गाँव जातीं तो औरतें इतनी तारीफ़ करती सीधे और अच्छे होने की कि वे ऊब जाती. मेरी उम्र यही कोइ १५-१६ साल की रही होगी. छुट्टियों में घर गया था. किसी बात पर पिताजी से लंबी बहस हो गयी. मान और दादी दालान से सहमे-सहमे किसी अनिष्ट के भय में हमारी बातें सुन रही थीं. गाँव के कई आते-जाते लोग हक्के-बक्के ऐसे देख रहे थे जैसे कोइ अनहोनी हो रही हो. मेरे पिटा जी का तालिया कलाम सा था, 'पते में कौन ठकुराई'. बहस का नतीज़ा जो भी रहा, पिताजी खुश होने दुखी होने के बीच के भाव में थे. लेकिन रातोंरात मेरी अच्छे बच्चे के छवि चकनाचूर हो गयी, आस पास के गावों में गप्पों का विषय बन गया मैं, कि लोग पढ़-लिख कर समझदार होते हैं फलाने पंडित जी का एक पोता है ४ अक्षर पढ़ लिया तो इतना अहंकारी हो गया कि बाप-दादा से सवाल जवाब करता है! डर का आतंक दिमाग से काफूर हो चुका था. उस घटना ने मुझे किसी से और किसी पर सवाल करने का साहस दिया.
जी विभास जी,सम्मान कमाया जाता है, न उम्र से मिलता है, न दहेज या दलाली में और इसकी पारस्परिकता इसके स्थायित्व की गारंटी है. कुछ खोखले और नैतिक-वैचारिक दिवालिये, उम्र का रोब गाँठ कर, तर्क-तथ्यों से परे कुतर्कपूर्ण फतवेबाजी करते हैं और जीवन में डिग्री और जुगाड से नौकरी के आलावा किसी अन्य उपलब्धि/योगदान के आभाव में,हीन-भावना से ग्रस्त ये लोग कुंठा-जनित अहंकार के साथ तुरंत निजी आक्षेपों पर उतर आते हैं, ऐसे दयनीय जीवों पर गुस्सा नहीं हमदर्दी दिखाना चाहिए. मैं तो साधारण व्यक्ति हूँ जिसका मुझे लगातार एहसास है. दर असल हम सब साधारण इंसान हैं, कुछ लोग असाधारण दिखने का पोरयास करते हैं. जैसा कि मैंने एक पोस्ट में कहा है कि सभ्यता दोगलेपन का संचार करती है, लोग वह दिखना चाहते हैं जो हैं नहीं. मैं भरपूर किशिस करता हूँ कि सभ्य होने से बचा रहूँ, इसी लिये जो सोचता हूँ कहता हूँ. न तो भगवान से डरता हूँ न भूत से; न खुदा से न शैतान से, इसी लिए किसी नाखुदा की मोम सी नाज़ुक भावनाओं के पिघलने की परवाह किये बिना, बिना लाग-लपेट के अप्रिय बातें भी कह देता हूँ, इससे कुछ लोग बौखलाकर निराधार निजी आक्षेपों पर उतर आते हैं, यह खैर उनकी समस्या है. भगवान अगर है तो उनका भला करे.
Vibhas Awasthiमैं तो वही करता हूँ. मैंने तो कभी किसी पर आक्षेप नहीं लगाया. मेरे किसी बात से लोग मार्क्स को गले देने लगते हैं, मैंने एक छोटा सा नोट लिखा मेहनत करके, मार्क्सवाद को सार संक्षेप में समझाने के लिए लेकिन सर्वागी लोग पढते नहीं, सिर्फ बोलते हैं. अब देहाती आदमी हूँ कभी कभी जरूरत पड़ने पर वक्तव्य में थोड़ी उजड्डता आ जाती है. हा हा
विभास ब्राउन सुगर के बात आपने शुरू किया था जो मार्क्स की मानसिक प्रयोगशाला में बनती है , और मैंने आपको इंगित करके कभी कारपोरेट पत्रकारिता का दलाल नहीं बोला. पूरी मीडिया ही कार्पोरेटी हो गयी है. सार सार गहने की अच्छी आदत भाई, अच्छा करते हैं वही बातें रिसीव करें जो उस योग्य हों.
और हाँ गटर का पानी आपने बोला था मार्क्सवाद के बारे में क्योंकि वह अयातित है, मैंने कहा था कि अपना भी देश गटर के पानी में काफी समृद्ध है, संघी और जमाती जहालत को गटर का पानी बोला था. अगर आप उनमे कोइ हैं तो मैंक्या कर सकता हूँ. कहने का जज्बा हो तो सुनने का भी माद्दा रखिये.
जी हाँ अप जैसे ज्ञानियों के लिए ही मैंने मार्क्स पर एक संक्षिप्त नोट पोस्ट किया है उस पर कोइ कमेन्ट नहीं. मैंने यह कहा था कि आपका मार्क्सवाद का ज्ञान जन-शश्रीतियों पर आधारित है. मिनी कहा था कि गटर का पाने आयातित करने की जरूरत नहीं है, अपना देश काफे समृद्ध है, वह अब भी कहता हूँ, अगर आप के दाढ़ी में तिनका हो तो मैं क्या करूं?
मैं तो भगवान और बाप-दादाओं के बारे में कुछ कहने से डरता हूँ कि लोग अहंकारी और कुसंस्कारी न समझ लें फिर भी आदतन कह ही देता हूँ. गाँव में मेरी एक बहुत अच्छे बच्चे की छवि थी. मेरी पत्नी जब मेरे गाँव जातीं तो औरतें इतनी तारीफ़ करती सीधे और अच्छे होने की कि वे ऊब जाती. मेरी उम्र यही कोइ १५-१६ साल की रही होगी. छुट्टियों में घर गया था. किसी बात पर पिताजी से लंबी बहस हो गयी. मान और दादी दालान से सहमे-सहमे किसी अनिष्ट के भय में हमारी बातें सुन रही थीं. गाँव के कई आते-जाते लोग हक्के-बक्के ऐसे देख रहे थे जैसे कोइ अनहोनी हो रही हो. मेरे पिटा जी का तालिया कलाम सा था, 'पते में कौन ठकुराई'. बहस का नतीज़ा जो भी रहा, पिताजी खुश होने दुखी होने के बीच के भाव में थे. लेकिन रातोंरात मेरी अच्छे बच्चे के छवि चकनाचूर हो गयी, आस पास के गावों में गप्पों का विषय बन गया मैं, कि लोग पढ़-लिख कर समझदार होते हैं फलाने पंडित जी का एक पोता है ४ अक्षर पढ़ लिया तो इतना अहंकारी हो गया कि बाप-दादा से सवाल जवाब करता है! डर का आतंक दिमाग से काफूर हो चुका था. उस घटना ने मुझे किसी से और किसी पर सवाल करने का साहस दिया.
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