Sunday, August 4, 2013

लल्ला पुराण १०७

स्त्री-पुरुष संबंधों पर फेस बुक की एक पोस्ट पर विमर्स्ध में मेरे कुछ कमेन्ट:

बहुत देर से पहुंचा कोशिस किया कि ज्यादा पढ़ सकूं. इसमें मुझे शशांक के कमेन्ट पूर्णतः मर्दवादी लगते हैं. "स्त्री होकर", सिर्फ उतना कहना चाहूँगा कि जेंडर न तो जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति है, न ही कोइ साश्वत विचार. जेंडर विचार नहीं बल्कि विचारधारा है जो इसी तरह के विमर्श से हमारी जिंदगी में निर्मित-पुनर्निर्मित होती है.

मैंने चौराहे पर एक पोस्ट डाला था, "Civility introduces duality, one wants to look what one is not", the perennial contradiction of essence and appearance. The most visible examples are family and love affairs, that are really not authentic due to being based on hypocritical duality. Children and parents spend years under the same roof without really ever interacting, they only communicate. In most of the affairs  I have seen that both of them are trying to impress each other without being honest and transparent to each other, which unnecessarily complicates the relationship. Trying to look different from what one is needs application of mind, I save that for other things a and try to look what I am.

शर्म-हया की कहावतें एक खास किस्म के समाजीकरण की परिणाम हैं, सेक्स-आधारित नैसर्गिक प्रवृत्ति नहीं है. शर्म-हया; सहनशीलता; दुर्बलता; ..... आदि विशेषण पितृसत्ता के जैविक बुद्धिजीवियों द्वारा थोपे गुण हैं. "सहो मत परिकार करो".

Mayank Awasthi जैसे हैं या जैसा सोचते हैं वैसा न दिखना या अभिव्यक्त करना व्यक्तित्व के अन्तरविरोधों का परिचायक है, जो हमें संस्कार में मिलता है, जिससे लगातार लड़ते रहने की जरूरत है, आत्म विकास के लोइए. इन अंतर्विरोधों के (सार और स्वरुपका) चलते इंसान न तो रिश्तों का आनन्द ले पाता है न ही पारदर्शी पारस्परिकता का. मेरे कुछ पुराने छात्र जब मिलते/मिलती हैं तो आभार वुँक्त करते हैं कि मैंने उनसे मित्रवत व्यव्हार किया. मैं उन्हें कहता हूँ, २ बातें हैं: १ तो आपने मेरा कोइ खेत नहीं काटा है कि शत्रुवत व्यव्हार करून. २ कि आप किसी रिश्ते का (कोइ अपवाद नहीं) आनंद तभी ले सकते हैं जब वह:१. जनतांत्रिक हो;२. समतापूर्ण हो और जैसा मैंने एक तुकबंदी में कहा है कि समानता एक गुणात्मक अवधारणा है.; ३. पारदर्शी हो. पारस्परिक सम्मान इस रिश्ते का अनचाहा परिणाम होता है. श्रेणीबद्ध रिश्तों में ऊपरी सीढी के लोग आनन्द के भ्रम में रहते हैं और खुश्फह्ज्मी से पुलकित हो जाते हैं. यह व्यक्तित्व का दुहरापन अपना ही शुकून छीनता है.

Dhirendra P Singh, आपकी बात से सहमत हूँ कि रिश्ते एक पोराक्रिया में प्रगाढ़ होते हैं. संस्कृत वह श्लोक आज भे प्रासंगिक है कि दिष्ट और सज्जनों की मित्रता दिन के सुबह और दोपर बाद के शाए के तरह होती है. लेकिन अपनी पित्रिसत्तात्मक संसकारों के चलते लड़के और लडकियां एक दूसरे की पसंद का अंदाज़ लगाकर व्यवहार करते हैं. यह भय जो पहले मुझमे भी था बिलकुल कृतिम और निराधार होता है. अगर हम बिलकुल पारदर्शिता से मिलें तो पता चलेगा कि रिश्तों के प्रगाढता  की गति बढ़ जाती है. मैं तो देहाती, दुबला-पतला, साधारण रहन सहन का लड़का था ऊपर से शादी-शुदा इलाहाबाद के पहले ३ सालों मैं भूल ही जता था कि शादीशुदा हूँ क्योंकि गुना नहीं आया था और यह मानकर चलता था कि मुझसे कोइ लड़की क्यों मित्रता करेंगी. शुरू में कोइ लड़की मित्रता की उत्सुक होती थी तो लगता था पागल होगी. एक शादीशुदा व्यक्ति से खुलेआम प्रेम के इजहार का नैतिक साहस भी दुर्लभ है. और आपके सिद्धांतों की परख तभी होते है जब आप पर लागू हों! घनिष्ठता बढ़ने के पहले भी मैं सन्दर्भ गढ़ कर मैं अपने विवाहित स्थिति और उसे निभाने का निर्णय बता देता था. और जितनी भी मित्र बनीं भौतिक दूरियों के बावजूद/झगडा-झंझट के बावजूद आज भी अच्छी मित्र हैं. रिश्तों में ऊब और दरार तब आती है जब जनतांत्रिक पारस्परिकता और पारदर्शिता के आभाव के चलते रिश्ते प्रामाणिक नहीं होते. श्रेणीबद्धता की मानसिकता भी एक कारण होता है.  

कोइ भी सम्बन्ध सोच से बनता है और सोच समाजीकरण का परिणाम है. सम्बन्ध हवा में नहीं समाज में ही बनते-बिगड़ते हैं और पित्रिसत्तामक्ता या मर्दवाद सिर्फ सामाजिक संरचना नहीं है, वैचारिक और संवेदनात्मक संरचना भी है, जिसकी एक स्वंत्र शब्दावली है, जो निश्चित रूप से न्मर्द्वादी है, प्रेम की शब्दावल समेत. दिल्ली में बलात्कार विरोधी प्रदर्शनों के दौरान कुछ कविउतायें लिखी थी, उनमे एक है, "जला देना होगा यह शब्दकोष", दुनिया में निरपेक्ष कुछ ही नहीं होता, सब कुछ सापेक्ष है, आप किस पक्ष में हैं, यह महत्वपूर्ण है. निरपेक्षता का दावा करने वाले अपने को धोखा देते हैं.


Post cannot be closed like that. Some aged member has labelled   a serious moral accusation and I always speak from a higher moral pedestal. Mr. Dhirendra P Singh, I have guts to say bitter truth on your face, I do not need any fake id to tell you that you, a frustrated old man with unfounded arrogance emanating from  the  sense of wastefulness of life, are behaving like a zealot  who tries to look big by ridiculing others without realizing that in doing so he himself looks like a dwarfs. Your basic frustration seems to be,  "why is your shirt whiter than mine" syndrome. bye. Now this post may be declared closed.

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