. जी विभास जी यह सब कुप्रचार था. स्टालिन का सबसे प्रखर विरोध मार्क्सवादी खेमों से ही हुआ. भाई विभास जी मैंने आपको नहीं एक काल्पनिक शक्ति को चुनौती दी है, जो है ही नहीं वो बिगाड़ेगा क्या? धर्म्भीरुओं को नहीं खुदा के वजूद को चुनौती देता हूँ. विभास मैं मिछ्ले ४० सालों से एक प्रामाणिक नास्तिक हूँ इसलिए हौसला अपने अंदर से पैदा करता हूँ किसी काल्पनिक शक्ति से भिक्षा-याचना नहीं करता. मार्क्सवाद पूंजीवाद का कब्र खोदने के मजदूर तैयार करता है, पूंजीपतियों के बौद्धिक और भौतिक सेना के खिलाफ.
Vibhas Awasthi "बौद्धिक पूंजीपति" समाजविज्ञान में आपकी मौलिक अवधारणा है, इसे परिभाषित कर देते तो अच्छा होता. कहीं इसे "बौद्धिक दिवालियापन" के विपरीतार्थी शब्द के रूप में तपो नहीं इस्तेमाल किया है? "कला के लिए कला" को मैं सामाजिक अपराध मानता हूँ और बहस के लिए बहस को भी. जिसे आप अहं कह रहे हैं वह जनपक्षीय पक्षधरता के प्रतिबद्धता है. यता की प्रतिबद्धता है. आपको मुझी किसी प्रमाण पत्र दिखाने की आवश्यकता नहीं हैं, जी हां दुनिया में बहुत नास्तिक हैं, फिर भी कम. उनका न तो कोइ पवित्र ग्रन्थ है न ही संगठन. नास्तिक होना साहस का काम है और धार्मिक होना, लीक पर चलने जैसा सरल रास्ता, जिसमें दिमाग और अंतरात्मा को तकलीफ न हो. आधारहीन अहंकार और बीमार किस्म की कुंठा तो आप की बातों से झलकती है. जहां तक भगवान को चुनौती देने का काम है वह किसी विवेक सम्म्त व्यक्ति के लिए उतना ही आसान है, जितना लीक पर चलने वालों के लिए उससे डरना. जो सिर्फ काल्पनिक है उसे चुनौती देने में कोइई खतरा नहीं है. २० साल से अधिक पुरानी बात है. फ्रीलांसर यानि बेरोजगार था, किसी लेख के भुगतान की प्रतीक्षा कर रहा था. मेरी धर्मपरायण पत्नी ने कहा, "भगवान के बारे में गलत ख़याल रखते हो, इसी लिए तुम्हारे साथ बुरा होता है". वैसे उनकी बात में कुछ परोक्ष सच्चाई थी. खुदाओं को सर नवाना बंद करने से नाखुदाओं को भी सर न नवाने की आदत पड गयी. और किसके लिए गाड ही नहीं है तो गाडफादर साला कहाँ से होगा. झुका कर सर जो सर हो जाता मैं तो नौकरी डेढ़ दशक पहले मिल जाती लेकिन भगवानों और उनके धर्मभीरू भक्तों से पंगा लेने का जज्बा न रहता, या यों कहें कि मैं, मैं न रहता, और कोइ शिकायत नहीं है जैसा मैं हूँ. मैंने पत्नी से कहा, "भगवान साला इतना टुच्चा है कि मेरे जैसे अदना आदमी से बदला लेने आ गया तो उसके और ऐसी-तैसे करूँगा, मेरा जो बिगाडना हो बिओगाद ले". वह तो है नहीं, तो क्या ब=इगादेह्गा उस्ल्के कुछ भक्तों ने जरूर कोशिस किया लेकिन कुछ खास नहीं बिगाड़ पाए. नास्तिकता और अहंकार पर मैंने भगत सिंह के वक्तव्य के लिए उनके लेख का लिंक डाला है, उन्हें तो अहंकारी या बौद्धिक पूंजीवादी नहीं कहेंगे. बिना बुद्धि की पूंजी के क्रांतिकारी समझ नहीं आ सकती. अगर आपका यह मतलब है तो, thanks for the complement.
धर्म पर मार्क्स के विचारों पर भी एक पोस्ट डाला है.
शैलेन्द्र जी नमस्कार. अगर आध्यात्मिकता में सहनशीलता अधिक होती तो इतिहास में सर्वाधिक रक्तपात धर्म के नमाम पर न होता. सुकरात को अधार्मिकता फैलाने के आरोप में मृत्युदंड मिला था. कभी कभी धर्मोन्मादी कुतर्क तर्क पर भारी पड़ता है और पैदा होता है दुनिया को जूते की नोक पर रखने की महत्वाकांक्षा वाल सिकंदर, जो एथेंस सरीकहे नगर राज्यों की दार्शनिक-भौतिक समृद्धि को घोडों टापों से रौंदकर मटियामेट कर देता है. सुकरात को तो खैर मार स्दाला गया लेकिन उनक्ले तर्क आज भी जीवित हैं, सत्य के लिए जान की बाजी लगाने के प्रेरणा श्रोत की तरह.
शैलेन्द्र जी किसने आपको कहा कि मार्क्सवाद रक्तपात का पैरोकार है? मार्क्सवाद दुनिया को समझने और मानव-मुक्ति के पक्ष में उसे बदलने का विज्ञान है, जिसके सिद्धांत देश-काल की परिस्थियों में अनूदित किये जा सकते होइन. यदि शानातिपूर्ण तरीके से पूंजीवादी तानाशाही खत्म की जा सकती है तो अति उत्तम. मार्क्सवादी अति संम्वेदंशील होता है इसी लिए मानव-मुक्ति के लिए सर पर कफान बाँध कर निकलता है. जिस तरह की यहाँ मार्क्सवाद पर बातें हो रही हैं, उनका मार्क्सवाद का ज्ञान सतही समझ और अफवाहों अवं जनश्रुतियों पर आधारित है उसकी समझ पर नहीं. गाफिल जी ने पूछा है मार्क्सवादी बदलते क्यों नहीं, जी हाँ बदलते हैं, डीपी त्रिपाठी बदल कर पवार्वादी हो गए और राज्य सभा में पहुँच गए. विभूति राय मार्क्सवादी से भूमिहार और सोनियावादी हो गए और वर्दी उतारते ही कुलपति बन गए और महिला लेखकों को छिनाल कह कर नाम कमाया. सीताराम येचुरी और प्रकाश करात(सीपीयम/सीपीआई) बिना मार्क्सवाद का चोला उतारे संसदीय राजनीति के समीकरणों में रच बस गए. मैंने १९८५ में एक लेख लिखा था, "Constitutionalism in Indian Communist Movement" जो मूलतः सीपीआई/सेपीयम की अक्रान्तिकारिता पर था. मैंने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को बदलने का कोइ कारण नहीं पाया, सोच तो पल-पल बदलती है.
कश यह व्यक्तिगत होता, आज सारी समस्यायों की जड यही है. इसी अमूर्त, फरेबी अवधारणा के चलते दुनिया के मजलूम इंसानी हकों से महरूम हो गए हैं. ईश्वर भय का परिणाम है है और शोषकों का औजार. सभी समाज अपने जर्रोरतों के हिसाब से शब्दावली धर्म और देवी-देवतापन का गठन करते हैं. यह मौन और तथाकथित तत्ष्ठाता आपराधिक है. सज्जन बहुमत के आपराधिक मौन और अनैतिक तटस्थता दुष्ट अल्पमत को बल प्रदान करती है. तटस्थता दर-असल पलायनवादी कायरता है.
मजहब हमें सिखाता आपस में बैर करना. सभी मजहब चूंकि तर्क को दरकिनार कर आस्था पर जोर देते हैं, अधोगामी हैं. हिन्दू सबसे अधोइगामी मजहब है क्योंकि इस्लाम और ईशैयत कम-से कम सैद्धांतिक समानता की अनुमति देते है, हिन्दू धर्म में तो लोग पैदा ही असमान होते है, समानता की सैद्धांतिक गुजाइश भी नहीं है. सेक्स की तरह जब तक मजहब को निजी माला बम्नाये रखे किसी को कोइ आपत्ति नहीं है, बस मजहब के नाम उन्माद मत फैलाइए और नास्तिकोंके की भी भावनाओं की कद्र कीजिये.
ये हमारे छात्र जीवन के देश-काल के संदर्भ में कुछ हद तक सही हो सकता है, यद्यपि ये मान्यताएं तभी दरकना शुरू हो चुकी थीं. तब से नारी-प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान के उमड़ते समंदर में कई उफान-तूफान आ-जा चुके. लड़कियों की प्राथमिकता अपने काम और प्रतिभा से एक स्वतंत्र अस्मिता है. सांस्कृतिक व्रर्चस्व की जड़ें मन में इतनी गहरी बैठी होती हैं कि टूटने में वक़्त लगता है और बहुत वाह्य-शक्ति. मगर फैज़ के शब्दों नें, ये जो दरिया झूम के उट्ठा है तिनकों से न टाला जायेगा.[09.09.2013 ]
Vibhas Awasthi "बौद्धिक पूंजीपति" समाजविज्ञान में आपकी मौलिक अवधारणा है, इसे परिभाषित कर देते तो अच्छा होता. कहीं इसे "बौद्धिक दिवालियापन" के विपरीतार्थी शब्द के रूप में तपो नहीं इस्तेमाल किया है? "कला के लिए कला" को मैं सामाजिक अपराध मानता हूँ और बहस के लिए बहस को भी. जिसे आप अहं कह रहे हैं वह जनपक्षीय पक्षधरता के प्रतिबद्धता है. यता की प्रतिबद्धता है. आपको मुझी किसी प्रमाण पत्र दिखाने की आवश्यकता नहीं हैं, जी हां दुनिया में बहुत नास्तिक हैं, फिर भी कम. उनका न तो कोइ पवित्र ग्रन्थ है न ही संगठन. नास्तिक होना साहस का काम है और धार्मिक होना, लीक पर चलने जैसा सरल रास्ता, जिसमें दिमाग और अंतरात्मा को तकलीफ न हो. आधारहीन अहंकार और बीमार किस्म की कुंठा तो आप की बातों से झलकती है. जहां तक भगवान को चुनौती देने का काम है वह किसी विवेक सम्म्त व्यक्ति के लिए उतना ही आसान है, जितना लीक पर चलने वालों के लिए उससे डरना. जो सिर्फ काल्पनिक है उसे चुनौती देने में कोइई खतरा नहीं है. २० साल से अधिक पुरानी बात है. फ्रीलांसर यानि बेरोजगार था, किसी लेख के भुगतान की प्रतीक्षा कर रहा था. मेरी धर्मपरायण पत्नी ने कहा, "भगवान के बारे में गलत ख़याल रखते हो, इसी लिए तुम्हारे साथ बुरा होता है". वैसे उनकी बात में कुछ परोक्ष सच्चाई थी. खुदाओं को सर नवाना बंद करने से नाखुदाओं को भी सर न नवाने की आदत पड गयी. और किसके लिए गाड ही नहीं है तो गाडफादर साला कहाँ से होगा. झुका कर सर जो सर हो जाता मैं तो नौकरी डेढ़ दशक पहले मिल जाती लेकिन भगवानों और उनके धर्मभीरू भक्तों से पंगा लेने का जज्बा न रहता, या यों कहें कि मैं, मैं न रहता, और कोइ शिकायत नहीं है जैसा मैं हूँ. मैंने पत्नी से कहा, "भगवान साला इतना टुच्चा है कि मेरे जैसे अदना आदमी से बदला लेने आ गया तो उसके और ऐसी-तैसे करूँगा, मेरा जो बिगाडना हो बिओगाद ले". वह तो है नहीं, तो क्या ब=इगादेह्गा उस्ल्के कुछ भक्तों ने जरूर कोशिस किया लेकिन कुछ खास नहीं बिगाड़ पाए. नास्तिकता और अहंकार पर मैंने भगत सिंह के वक्तव्य के लिए उनके लेख का लिंक डाला है, उन्हें तो अहंकारी या बौद्धिक पूंजीवादी नहीं कहेंगे. बिना बुद्धि की पूंजी के क्रांतिकारी समझ नहीं आ सकती. अगर आपका यह मतलब है तो, thanks for the complement.
धर्म पर मार्क्स के विचारों पर भी एक पोस्ट डाला है.
शैलेन्द्र जी नमस्कार. अगर आध्यात्मिकता में सहनशीलता अधिक होती तो इतिहास में सर्वाधिक रक्तपात धर्म के नमाम पर न होता. सुकरात को अधार्मिकता फैलाने के आरोप में मृत्युदंड मिला था. कभी कभी धर्मोन्मादी कुतर्क तर्क पर भारी पड़ता है और पैदा होता है दुनिया को जूते की नोक पर रखने की महत्वाकांक्षा वाल सिकंदर, जो एथेंस सरीकहे नगर राज्यों की दार्शनिक-भौतिक समृद्धि को घोडों टापों से रौंदकर मटियामेट कर देता है. सुकरात को तो खैर मार स्दाला गया लेकिन उनक्ले तर्क आज भी जीवित हैं, सत्य के लिए जान की बाजी लगाने के प्रेरणा श्रोत की तरह.
शैलेन्द्र जी किसने आपको कहा कि मार्क्सवाद रक्तपात का पैरोकार है? मार्क्सवाद दुनिया को समझने और मानव-मुक्ति के पक्ष में उसे बदलने का विज्ञान है, जिसके सिद्धांत देश-काल की परिस्थियों में अनूदित किये जा सकते होइन. यदि शानातिपूर्ण तरीके से पूंजीवादी तानाशाही खत्म की जा सकती है तो अति उत्तम. मार्क्सवादी अति संम्वेदंशील होता है इसी लिए मानव-मुक्ति के लिए सर पर कफान बाँध कर निकलता है. जिस तरह की यहाँ मार्क्सवाद पर बातें हो रही हैं, उनका मार्क्सवाद का ज्ञान सतही समझ और अफवाहों अवं जनश्रुतियों पर आधारित है उसकी समझ पर नहीं. गाफिल जी ने पूछा है मार्क्सवादी बदलते क्यों नहीं, जी हाँ बदलते हैं, डीपी त्रिपाठी बदल कर पवार्वादी हो गए और राज्य सभा में पहुँच गए. विभूति राय मार्क्सवादी से भूमिहार और सोनियावादी हो गए और वर्दी उतारते ही कुलपति बन गए और महिला लेखकों को छिनाल कह कर नाम कमाया. सीताराम येचुरी और प्रकाश करात(सीपीयम/सीपीआई) बिना मार्क्सवाद का चोला उतारे संसदीय राजनीति के समीकरणों में रच बस गए. मैंने १९८५ में एक लेख लिखा था, "Constitutionalism in Indian Communist Movement" जो मूलतः सीपीआई/सेपीयम की अक्रान्तिकारिता पर था. मैंने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को बदलने का कोइ कारण नहीं पाया, सोच तो पल-पल बदलती है.
कश यह व्यक्तिगत होता, आज सारी समस्यायों की जड यही है. इसी अमूर्त, फरेबी अवधारणा के चलते दुनिया के मजलूम इंसानी हकों से महरूम हो गए हैं. ईश्वर भय का परिणाम है है और शोषकों का औजार. सभी समाज अपने जर्रोरतों के हिसाब से शब्दावली धर्म और देवी-देवतापन का गठन करते हैं. यह मौन और तथाकथित तत्ष्ठाता आपराधिक है. सज्जन बहुमत के आपराधिक मौन और अनैतिक तटस्थता दुष्ट अल्पमत को बल प्रदान करती है. तटस्थता दर-असल पलायनवादी कायरता है.
मजहब हमें सिखाता आपस में बैर करना. सभी मजहब चूंकि तर्क को दरकिनार कर आस्था पर जोर देते हैं, अधोगामी हैं. हिन्दू सबसे अधोइगामी मजहब है क्योंकि इस्लाम और ईशैयत कम-से कम सैद्धांतिक समानता की अनुमति देते है, हिन्दू धर्म में तो लोग पैदा ही असमान होते है, समानता की सैद्धांतिक गुजाइश भी नहीं है. सेक्स की तरह जब तक मजहब को निजी माला बम्नाये रखे किसी को कोइ आपत्ति नहीं है, बस मजहब के नाम उन्माद मत फैलाइए और नास्तिकोंके की भी भावनाओं की कद्र कीजिये.
ये हमारे छात्र जीवन के देश-काल के संदर्भ में कुछ हद तक सही हो सकता है, यद्यपि ये मान्यताएं तभी दरकना शुरू हो चुकी थीं. तब से नारी-प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान के उमड़ते समंदर में कई उफान-तूफान आ-जा चुके. लड़कियों की प्राथमिकता अपने काम और प्रतिभा से एक स्वतंत्र अस्मिता है. सांस्कृतिक व्रर्चस्व की जड़ें मन में इतनी गहरी बैठी होती हैं कि टूटने में वक़्त लगता है और बहुत वाह्य-शक्ति. मगर फैज़ के शब्दों नें, ये जो दरिया झूम के उट्ठा है तिनकों से न टाला जायेगा.[09.09.2013 ]
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