Thursday, February 7, 2013

लल्ला पुराण ६३

मैं जब तक यहाँ पहुंचा प्यार के इस संगम पर गंगा-यमुना का काफी पानी मिल चुका और, ऐसा कहने के लिये क्षमा कीजियेगा, महाकुम्भी, सामन्ती धर्मोन्माद गंगा को पर्याप्त प्रदूषित कर चुका. ज्यादातर लोगों के लिये प्यार मर्दवादी वैचारिक वार्चस्व के दायरे मे निर्मित, एक कल्पित, अमूर्त भावना है. सभ्यता मनुष्य के अंदर दोगलेपन का संचार करती है. लोग होते कुछ हैं दिखना कुछ और चाहते हैं; सोचते कुछ हैं, कहते कुछ और हैं; कहते कुछ हैं करते कुछ और हैं. कुछ कमेन्ट दायरे को तोड़ते दिखे कि प्यार दोस्ती है. किसी ने कहा कि प्यार पहले १००% सच्चा  होता था अब १०%. उनके पास शायद प्यार की सच्चाई नापने का अंकगणितीय सूत्र हो? प्यार एक गुणात्मक अवधारणा है मात्रात्मक नहीं. जिसे सब कुछ अच्छा किसी कल्पित अतीत में दिखे और भावी पीढियां पतनशील, वह मानसिक जड़ता का शिकार होता है. इतिहास की गाड़ी में बैक-गीयर नाहीं होता. पहले प्यार नहीं होता था, शादी होती थी, किशोरावस्था में ही, ताकि वे प्यार-मुहब्बत के दल-दल में न फंस जाएँ, लड़की की खास चिंता थी? रात को सबके सोने के बाद "खूंट" खोलते हुए कमरे में घुसो और भोर से पहले "खूंट" बांधते हुए निकलो. दो अपरिचित किशोर-किशोरी आज्ञाकारी बच्चों की तरह अपनी सेक्सुअल उत्सुकताएं शांत करते थे, और वैचारिक वर्चस्व के भार से दबी लड़की बचपन से सिखाये गए मन्त्र को शब्दशः  याद रखते हुए सास-ससुर की सेवा और पति-परमेश्वर की पूजा में एक सम्पूर्ण जीवन की सारी सर्जक संभावनाएं हवन कर देती थी. सहवास (सम्भोग शब्द इस लिये नहीं इस्तेमाल करता कि मूल्यपरक शब्द है जिस पर फिर कभी.) और प्यार को लोग गड्ड-मदद कर देते हैं. मुझे तो बहुत बार प्यार हुआ, आज भी है. कई बार तो पटा ही नहीं चला कि प्यार है कि दोस्ती? सहवास प्यार की गारंटी नहीं है और प्यार के लिये साह्वास जरूरी नहीं. बहुत पहले, एक बार अपनी एक बहुत ही अच्छी दोस्त को मैंने कहा कि हमारी दोस्ती प्यार नहीं है तो उसने मुझे अवाक कर दिया, "Of course you are in love with me, just that we haven't slept together". एक ईमानदार, नैतिक/बौद्धिक घनिष्ठ मित्रता की सगाहं भावानात्मक अभिव्यक्ति ही मेरे लिये प्यार है. दोस्ती में पारदर्शक-पारस्परिकता होनी चाहिए. बाकी फिर कभी.

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