Vinay Pratap मित्र, मैंने आपको नहीं खुद के बारे में कहा कि मैं एक कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मण परिवेश में पैदा हुआ और पला और १३-१४ साल में जनेऊ तोड़ने से नास्तिकता के रास्ते पर बढ़ने के पहले स्नानोपरांत शिव-लिंग की पूजा के बाद ही जलग्रहण करता था. आपने लेनिन से शुरू करके इतने सवाल उठाये हैं कि उनका जवाब यहाँ संभव नहीं है. समाजवाद के संकट पर मैंने १९९२ में एक लंबा लेख लिखा था, खोजकर कभी पोस्ट करूँगा. प्रोफ़ेसर रंधीर सिंह की मोटी पुस्तक, "Crisis of Socialism" इन मुद्दों पर समुचित प्रकाश डालती है. कार्ल मार्क्स कोइ पैगम्बर नहीं थे, हमारी आपकी तरह हांड-मांस के सूक्ष्म और पैनी प्रज्ञा के साधारण इंसान थे जिन्होंने अपने समकालीन समाज की एकल वैज्ञानिक व्याख्या की और मानव-मुक्ति के लिए शोषण-विहीन, वर्ग-विहीन समाज के निर्माण की कामना. भविष्य के इस मानव-मुक्ति के समाज की रूपरेखा उन्होंने भविष्य की पीढ़ियों की प्रज्ञा पर छोड़ दिया. मार्क्स को पैगम्बर मानाने वाले मूर्खों का मजाक बनाने के ही लिए हंसी में कहा था, "शुक्र खुदा का कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ". मार्क्स के बाद के मार्क्सवादी विद्वानों ने मार्क्सवाद को बहुत समृद्ध किया है, इतिहास में परिवर्तन के साथ मार्क्स की कई मान्यताओं में की आमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं. ग्राम्सी का वर्चस्व का सिद्धांत ऐतिहासिक भौतिकवाद को काफी आगे ले जाता है. भूमंडलीकरण में उत्पादन के अनौपचारिक्करण और आउटसोर्सिंग ने मार्क्स की श्रम-समाजीकरण की अवधारणा को ही ध्वस्त कर दिया और श्रम, के समाजीक्लारण और अपने आप में वर्ग से अपने लिए वर्ग के नए सिद्धांत विक्सित कर्मणे में दुनिया भर में तमाम मार्क्सवादी लगे हुए हैं.
मैंने न तो आपको न आपके पिताजी को बेवकूफ कहा है न आपको. मेरे पिताजी तो एक साक्षर किसान थे और विरासत में मिले पारंपरिक ज्ञान से आगे बढे ही नहीं थे. आपके पिताजी ने किस सन्दर्भ में मार्क्सवाद को दल में नमक कहा था मुझे नहीं मालुम, शायद उन्होंने उसी तरह परिहास किया होगा जैसे मार्क्स ने मार्क्सवादी न होने के लिए खुदा का शुक्रिया अदा करने का परिहास किया था, मैंने भी उस परिहास को अंतिम सत्य मांन लेने की आप की अदा पर परिहास ही किया था. सभी से मेरा एक ही आग्रह रहता है कि सार्वजनिक मंचों पर निर्णायक वक्तव्य कही-सुनी बातों या अफवाहों के आधार पर नहीं देना चाहिये जैसा कि हम हिंदुस्तानियों की आम आदत है. हमारे पूर्वज सर्वज्ञ नहीं थे कहने से उनका अपमान नहीं होता क्योंकि इतिहास की गाड़ी में बैक गेयर नहीं होता. मेरे दादा जी पंचांग के कट्टर अनुयायी और इतने कर्मकांडी थे कि भगवान का भोग लगे बिना बच्चों को भोजन नहीं मिल सकता था इस लिए मरती दादी ने मुख्य रसोई से अलग आँगन के एक बरामदे एक छोटा चूल्हा बनाया था. सुबह ७ बजे ऊबड़-खाबड पैदल के रास्ते घर से २४-२५ किमी दूर आठवीं क्लास के परिक्षा केन्द्र पहुँचने के लिए रात १२ बजे मुहूर्त पर ही निकले थे. यदि मैं इन अंधविश्वासों का खंडन करता हूँ तो इसका मतलब यह नहीं कि दादाजी को बेवकूफ समझता हूँ! बल्कि जीवन में जिन लोगों का अतिसम्मान करता हूँ उनमें मेरे स्वर्गीय दादा जे हैं. टेक्स्ट को कांटेक्स्ट में पढ़ने की आवश्यकता होती है. मेरी बातों से यदि आपको लगा हो कि मैंने आपके पिताजी को बेवकूफ खा है तो क्षमा चाहता हूँ, वैचारिक मतभेद के बावजूद सम्मान प्रकट करता हूँ उन्हें मेरा प्रणाम संप्रेषित करें.
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